दो साल चुनौतियां बेसुमार
17-Oct-2017 08:32 AM 1234893
यूपीए सरकार के आखिरी सालों में जब उसकी नीतियां लडख़ड़ाने लगीं, भ्रष्टाचार चरम पर पहुंच गया, महंगाई लोगों को सताने लगी तब भाजपा ने नरेंद्र मोदी को विकास पुरूष की छवि ओढ़ाकर केंद्रीय राजनीति में उतारा। मोदी का उस वक्त समर्थन करने वालों में वो लोग भी शामिल थे, जो आर्थिक और सामाजिक उदारवाद के पक्षधर थे और मोदी के प्रतिद्वंदी माने जाते थे। मोदी ने उस वक्त जो वादे किए थे, उनसे जनता के मन में नई उम्मीदें जगीं थीं, क्योंकि मोदी तब लोगों को ताजा हवा के झोंके की तरह लगे थे। मोदी की सरलता, सकारात्मकता और आशावादी दलील ने लोगों को खासा प्रभावित किया था। इस तरह, उस वक्त मोदी, अपने वादों, इरादों और विजन से लगभग हर वर्ग के लोगों को प्रभावित करने में सफल रहे थे। ये वो समय था जब मतदाता मोदी की हर इच्छा, हर मांग को पूरा करने के लिए बेताब थे, क्योंकि तब मोदी की विश्वसनीयता बुलंदियों पर थी। अपनी इसी विश्वसनीयता के दम पर मोदी ने तब भाजपा के मिशन 272+ को पूरा किया था। लेकिन अपने कार्यकाल का दो-तिहाई से अधिक वक्त पूरा करने के बाद भी भाजपा की अगुवाई वाली केंद्र सरकार 2014 में किए गए वादे पूरे कर पाने से दूर दिख रही है। 2014 के आम चुनाव में भाजपा ने मतदाताओं से देश के समग्र विकास के लिए कांग्रेस की 60 साल की तुलना में 60 महीने की मांग की थी। मोदी सरकार के 40 महीने यानी दो-तिहाई से अधिक कार्यकाल पूरे हो चुके हैं। किसी सरकार के लिए इतना वक्त जनता से किए गए वादों को पूरा करने के लिए काफी माना जा सकता है, लेकिन फिलहाल मोदी सरकार 2014 में देशवासियों से किए गए वादों को पूरा करने की जगह इन मोर्चों पर विफल या जूझती हुई दिख रही है। अपने वादों को पूरा करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार के पास करीब दो साल का वक्त बाकी है और उनके सामने चुनौतियों का अंबार है। इन चुनौतियों में से पांच चुनौतियां-बेरोजगारी, बढ़ती कीमतें और महंगाई, जीडीपी का ग्रॉफ, जीएसटी और कालाधन सरकार पर भारी पड़ सकता है। बीते आम चुनाव में नरेंद्र मोदी सहित भाजपा के स्टार प्रचारकों ने भ्रष्टाचार, महंगाई, काला धन, रोजगार, महिला सुरक्षा, आतंकवाद, आंतरिक सुरक्षा और किसानों की खुदकुशी जैसे बड़े मुद्दों पर यूपीए सरकार पर ताबड़तोड़ निशाना साधा था। उस वक्त माना गया कि इन्हीं मुद्दों पर देश की जनता ने 30 साल बाद किसी एक पार्टी को स्पष्ट जनादेश दिया है। भाजपा ने अकेले 543 सीटों में से 282 सीटें हासिल की थीं। हालांकि, मोदी सरकार का दो-तिहाई कार्यकाल पूरा होते-होते अब विपक्ष ने इन्हीं मुद्दों पर मोदी सरकार को घेरना शुरू कर दिया है। माना जा रहा है कि अगर स्थिति ऐसी ही या इससे बदतर हुई तो भाजपा को 2019 के चुनाव में मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है। अर्थव्यवस्था बुरी हालत में नरेंद्र मोदी सरकार के सत्ता में आने के 40 महीने बाद सरकार ने यह संकेत दे दिया है कि अर्थव्यवस्था बुरी हालत में है। प्रधानमंत्री आर्थिक सलाहकार परिषद का गठन इसी का संकेत है। अब सरकार के पास एक ही बार पूरा बजट पेश करने का मौका है। 2019 के आम चुनावों के पहले उसे 10 राज्यों की 1,214 विधानसभा सीटों पर चुनावों का सामना करना है। इन राज्यों में 129 लोकसभा सीट हैं, लेकिन दुर्भाग्य यह है कि बड़ी-बड़ी घोषणाओं के बावजूद इस सरकार के पास दिखाने के लिए कुछ नहीं है। मई, 2014 में इस सरकार के सत्ता में आने के बाद कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट शुरू हो गई। इससे महंगाई को काबू करने में मदद मिली। सरकार ने इसका श्रेय लेने में देर नहीं लगाई। तेल की कीमतें कम होने और सरकार द्वारा तेल पर लगने वाले कर बढ़ाने से उसे खूब आमदनी हुई। अब फिर से कच्चे तेल की कीमतें बढऩे लगी हैं। जीडीपी गिरकर 5.7 फीसदी सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी 2014-15 की पहली तिमाही में 7.5 फीसदी थी। 2017-18 की पहली तिमाही में यह 5.7 फीसदी पर पहुंच गई। आईआईपी 2014-15 में 5 फीसदी थी। 2015-16 में 3.3 फीसदी पर पहुंचने के बाद 2016-17 में यह थोड़ा सुधरकर 4.6 फीसदी पर पहुंची। निवेश घट रहा है। घरेलू बचत की दर घट रही है। कुल बचत में घरेलू बचत की हिस्सेदारी 70 फीसदी से घटकर 60 फीसदी हो गई है। साथ ही निर्यात घट रहा है। हालिया तिमाही में निर्यात 14 साल के न्यूनतम स्तर पर है। मांग घट रही है। रोजगार में भी कमी भाजपा ने 2014 के चुनाव में कांग्रेस पर 10 वर्षों से देश को रोजगार विहीन विकास में घसीटने का आरोप लगाया था। साथ ही, अपने चुनावी घोषणा पत्र में उसने युवाओं सहित लोगों के लिए बड़े पैमाने पर रोजगार उपलब्ध करवाने का वादा किया था। हालांकि, सत्ता में आने के 40 महीने बाद भी लोगों को रोजगार मिलने की जगह बेरोजगारों की फौज बढ़ती ही दिख रही है। ऊपर से सरकारी और निजी क्षेत्रों में रोजगार के घटते मौकों ने आग में घी डालने का काम किया है। इसके अलावा बीते साल सरकार के नोटबंदी जैसे बड़े फैसले की वजह से भी लाखों लोगों को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा है। राष्ट्रीय स्तर पर 997 रोजगार केंद्रों द्वारा नौकरी देने की दर केवल 0.57 फीसदी है। नेशनल करियर सर्विस (एनसीएस) के मुताबिक 2015 में इन केंद्रों के जरिये आवेदन करने वाले प्रति 500 उम्मीदवारों में से केवल तीन को ही नौकरी मिली। इसके अलावा देश में साल दर साल रोजगार केंद्रों की प्लेसमेंट दर में गिरावट दर्ज की जा रही है। 2013 में यह आंकड़ा 0.74 फीसदी था जो जैसा कि पहले जिक्र हुआ, 2015 में घटकर 0.57 फीसदी रह गया है। इसके अलावा सरकार की महत्वाकांक्षी प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना भी रोजगार देने के मामले में जूझ रही है। जुलाई, 2017 तक इस योजना के तहत 30.67 लाख लोगों को प्रशिक्षित किया गया या फिर उनका प्रशिक्षण चल रहा है। इनमें से केवल 2.9 लाख को ही रोजगार मिल पाया है। दो अक्टूबर, 2016 को शुरू की गई इस योजना के तहत अगले चार वर्षों (2016-20) तक एक करोड़ लोगों को रोजगार देने का लक्ष्य तय किया गया है। बीते मई में मोदी सरकार के तीन साल पूरे होने पर भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने बढ़ती बेरोजगारी के सवालों को खारिज किया था। उनका कहना था, हमने रोजगार को नए ढंग से देखने-समझने का नजरिया विकसित करने की कोशिश की है, क्योंकि 125 करोड़ की आबादी वाले देश में सभी को नौकरी देना संभव नहीं है।Ó आलोचकों का कहना है कि मोदी सरकार इस मामले में विफल रहने के बाद अब स्वरोजगार पर जोर देती हुई दिख रही है। कुछ समय पहले कांग्रेस ने सरकार को निशाने पर लेते हुए कहा था कि बीते तीन साल में केवल एक लाख लोगों को ही नौकरी मिल पाई है और इस दौरान सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) क्षेत्र में काम करने वाले लोगों को छंटनी का शिकार होना पड़ा है। जानकार आगे भी रोजगार के मौके कम होने की आशंका जता रहे हैं। लगातार बढ़ रही महंगाई 2014 में भाजपा ने अपने चुनावी घोषणापत्र में देश में बेलगाम महंगाई के लिए कांग्रेस को कोसते हुए इस पर लगाम कसने के लिए कई उपायों की बात कही थी, मसलन जमाखोरी और कालाबाजारी के खिलाफ सख्त उपाय करना, कीमत स्थिरीकरण कोष की स्थापना करना और भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) की क्षमता में बढ़ोतरी करना, लेकिन मोदी सरकार अब तक महंगाई रूपी डायन से लोगों को निजात नहीं दिला पाई है। केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (सीएसओ) द्वारा हाल ही में जारी आंकड़ों के अनुसार सितम्बर माह में रिटेल महंगाई दर (सीपीआई) 3.36 3.28 फीसदी रही, जबकि खाने-पीने के सामान की खुदरा महंगाई दर 1.25 फीसदी रही। फल, सब्जियां और चीनी के दामों में लगातार बढ़ोत्तरी दर्ज की जा रही है। इस आकड़े के अनुसार फल के मामले में खुदरा महंगाई दर 5.14 फीसदी, सब्जियों के मामले में 3.92 फीसदी और चीनी व अन्य कुछ उत्पादों के लिए खुदरा महंगाई दर 6.77 फीसदी रही। सवा सौ करोड़ जनता की उम्मीदों की लहर पर सवार होकर केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार आई थी। महंगाई की आग में झुलसती जनता को उम्मीद थी कि मोदी कोई जादू चलाएंगे, महंगाई खत्म होगी और अच्छे दिन आएंगे, लेकिन यहां तो महंगाई और भी भड़क गई है। आतंकवाद और आतंरिक सुरक्षा अप्रैल, 2014 में भाजपा का चुनावी घोषणापत्र जारी करते हुए नरेंद्र मोदी ने कहा था, देश के लिए चाहे आतंरिक सुरक्षा का मामला हो, चाहे बाहरी खतरों का, भारत सक्षम हो, सामथ्र्यवान हो, इस पर हम प्रतिबद्ध हैं। जीरो टॉलरेन्स के साथ देश को इस दिशा में आगे बढऩा होगा।Ó लेकिन आंकड़े बताते हैं कि मोदी सरकार के दौरान जम्मू-कश्मीर में आतंकी घटनाएं में करीब डेढ़ गुना बढ़ोतरी दर्ज की गई है। सरकारी आंकड़ों की मदद से तैयार की गई एक रिपोर्ट बताती है कि 2014 में राज्य में आतंकी घटनाओं की संख्या 222 थी जो, 2016 में बढ़कर 322 हो गई। साथ ही, बीते तीन वर्षों के दौरान कुल 795 आतंकी वारदातों को अंजाम दिया गया। इन घटनाओं में 178 सुरक्षाकर्मियों के साथ 64 नागरिकों की भी मौतें हुईं। इसके अलावा साउथ एशिया टेररिज्म पोर्टल (एसएटीपी) के मुताबिक 2013 में यूपीए-2 के वक्त आतंकी घटनाओं में मारे जाने वाले नागरिकों की कुल संख्या 81 थी, जो 2017 में अब तक 105 हो चुकी है। देश की आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर भी सरकार का प्रदर्शन पिछली सरकार की तरह सवालों से घिरा दिखता है। एसएटीपी के आंकड़ों के मुताबिक 2013 में नक्सलवाद की वजह से कुल 421 जानें गई थीं। इसके तीन साल बाद यानी 2016 में यह आंकड़ा बढ़कर 433 हो चुका है। कालाधन और भ्रष्टाचार साल 2014 के चुनाव में कालाधन एक बड़े चुनावी मुद्दे के रूप में सामने आया था। भाजपा ने अपने घोषणापत्र में भ्रष्टाचार की गुंजाइश कम करके कालाधन पैदा न हो, यह सुनिश्चित करने की बात कही थी। इसके साथ ही पार्टी ने विदेशों में जमा कालेधन का पता लगाने और उसे वापस लाने की प्रतिबद्धता जाहिर की थी। चुनावी अभियान के दौरान भाजपा ने लोगों से कहा था कि अगर केंद्र में उनकी सरकार बनी तो हर भारतीय (सवा सौ करोड़) के खाते में 15-15 लाख रुपये दिए जाएंगे। हालांकि, बाद में पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने इसे एक चुनावी जुमला करार दिया। इसके बाद नोटबंदी का ऐलान करते वक्त भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसका मकसद कालेधन को खत्म करना बताया था, लेकिन 60 में से 40 महीने बीतने के बाद भी मोदी सरकार इस मोर्चे पर विफल दिख रही है। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की नोटबंदी पर जारी रिपोर्ट के मुताबिक नोटबंदी के दौरान अवैध घोषित किए गए 500 और 1,000 रुपये के नोटों में से 99 फीसदी हिस्से वापस आ गए। इसके अलावा नोटबंदी के दौरान (नवंबर-दिसंबर, 2016) जनधन खातों में बड़े पैमाने पर पैसे जमा होने की बात सामने आई। आर्थिक मामले के जानकारों ने इस पर इन खातों के जरिए बड़े पैमाने पर कालेधन को सफेद किए जाने की आशंका जाहिर की है। जो इस बात का संकेत है कि सरकार के तमाम दावों के बाद भी भ्रष्टाचार व्यवस्था में जमा हुआ है। कुल मिलकर देखा जाए तो जीएसटी, महंगाई और बेरोजगारी...मोदी सरकार के शासन में जनता को अभी तक बस यही चीजें हासिल हुई हैं। इन तीनों की वजह से देश के आर्थिक हालात नाजुक हो चुके हैं। 2019 में टीनाÓ फैक्टर से उम्मीद देश के कितने लोग जीडीपी अनुपात को समझते हैं? करंट अकाउंट डेफिसिट का क्या मतलब होता है? या फिर ये ही बता दीजिए कि विदेशी मुद्रा भंडार बढऩे से लोगों को क्या फायदा होता है? मेरा ये सवाल खासकर उस आम आदमी से है जिसकी लगभग हर नेता कसमें खाता है। इन सवालों का जवाब अधिकांश के पास नहीं होगा, क्योंकि उसे इन शब्दों से क्या वास्ता। फिर भी देश की खस्ताहाल अर्थव्यवस्था और उसके वित्तीय उपाय के लिए इस तरह के गूढ़ शब्द और बड़े-बड़े आंकड़े प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, वित्त मंत्री अरूण जेटली द्वारा पेश किए जाते हैं। मोदी ने साल 2014 में जब लोकसभा चुनाव जीता था, तब उन्हें विभिन्न सामाजिक और आर्थिक वर्गों का अपार समर्थन मिला था, लेकिन चुनाव में मोदी को विजयी बनाने में सबसे अहम भूमिका देश के उस पेशेवर मध्यमवर्ग ने निभाई थी, जो भाजपा का पारंपरिक वोट बैंक नहीं माना जाता। इस वर्ग के ज्यादातर लोगों ने साल 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का समर्थन किया था। 2014 में मोदी ने उम्मीद जगाई की उनकी आर्थिक नीतियां देश में अच्छे दिन लाएंगी, लेकिन उनकी नीतियों के कारण देश की अर्थव्यवस्था बदहाल हो गई है। इसको सुधारने के लिए मोदी सरकार के पास दो साल का वक्त है। वैसे भी मिल रहे संकेतों के अनुसार 2019 में मोदी के पक्ष में जो सबसे बड़ी बात है वह हैटीनाÓ (ञ्जढ्ढहृ्र) यानि देयर इज नो अल्टरनेटिव। इसका मतलब यह कि जनता के पास कोई विकल्प नहीं है इसलिए वह स्वाभाविक रूप से दोबारा मोदी को चुनेगी। नोटबंदी, जीएसटी ने स्थिति और बिगाड़ी केंद्र सरकार द्वारा 2008-09 में कुल जीडीपी का 15.8 फीसदी खर्च किया गया था। 2013-14 में यह 13.9 फीसदी रहा। 2017-18 में इसके घटकर 12.7 फीसदी पर पहुंच जाने का अनुमान है। सरकारी खर्चे में कटौती करके और रोजगार सृजन के उपाय नहीं करके मांग को और खराब स्थिति में पहुंचा दिया गया। इसके बाद सरकार ने नोटबंदी करके स्थिति और बिगाड़ दी। बैंकों की एनपीए की समस्या सुलझाने में सरकार नाकाम रही है। मार्च 2014 में बैंकों का एनपीए 4 फीसदी था जो इस साल बढ़कर 9.5 फीसदी पर पहुंच गया है। रही सही कसर बगैर तैयारी के जीएसटी लागू करके पूरी कर दी गई। सरकार ने तीन साल के कार्यकाल में विभागों और मंत्रालयों का पुनर्गठन करने और बजट आवंटित करने के तरीकों में बदलाव किया। इसकी वजह समझना मुश्किल है लेकिन इसने बजट समझना मुश्किल कर दिया। योजना आयोग को खत्म करके नीति आयोग बना दिया गया। सालों की योजनागत विकास की अवधारणा को खत्म कर दिया गया। नीति आयोग की सिफारिशें सार्वजनिक नहीं की जातीं। कृषि संकट और किसानों की खुदकुशी इस साल जून महीने में देश के कई राज्यों में किसानों का उग्र रूप देखने को मिला। बाजार में अपनी फसलों की सही कीमत नहीं मिलने की वजह से किसानों ने इन्हें सड़कों पर फेंक दिया। इसके साथ ही आंदोलन शुरू होने के महीनेभर के दौरान मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र सहित देश के कई राज्यों से बड़ी संख्या में किसानों की खुदकुशी के मामले सामने आए। इससे पहले दिसंबर, 2016 में एनसीआरबी द्वारा जारी एक रिपोर्ट में कहा गया था कि 2015 में किसानों की खुदकुशी के मामलों में 42 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई। वर्ष 2014 में आत्महत्या की संख्या 12,360 थी, जो कि 2015 में बढ़ कर 12,602 हो गई। बताया जाता है कि दूसरों के लिए अनाज उगाने वाले किसानों की खुदकुशी की मुख्य वजह उनके कंधों पर कर्ज का बोझ है। इस समस्या से निपटने के लिए इस साल उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और पंजाब में कर्जमाफी का ऐलान किया गया था। हालांकि, भाजपा शासित उत्तर प्रदेश में कर्जमाफी के नाम पर किसानों को नौ पैसे से लेकर 84 पैसे देने तक के हैरान करने वाले मामले सामने आए हैं। 2014 में भाजपा ने किसानों से वादा किया था कि यदि उसकी सरकार केंद्र में आती है तो एमएसपी के रूप में उन्हें फसल की लागत से 50 फीसदी अधिक रकम लाभ के रूप में दी जाएगी, लेकिन 40 महीने बाद भी इस मांग को पूरा करवाने के लिए किसानों को खेतों की जगह सड़कों पर उतरना पड़ रहा है। एक करोड़ नौकरियों के वादे का क्या हुआ? साल 2013 में चुनाव प्रचार अभियान के दौरान नरेंद्र मोदी ने कहा था कि उनकी पार्टी अगर सत्ता में आती है तो एक करोड़ नौकरियों के अवसर पैदा करेगी। इसके एक साल बाद ही उनकी पार्टी दिल्ली की सत्ता पर भारी बहुमत से काबिज हो गई। इसी साल जनवरी में भारत के आर्थिक सर्वे ने संकेत दिया था कि चीजें कुछ ठीक नहीं चल रही हैं और रोजगार वृद्धि में सुस्ती है। नई सरकार के आंकड़े दिखाते हैं कि बेरोजगारी की दर 2013-14 में 4.9 प्रतिशत से बढ़कर 5 प्रतिशत हो गई है। लेकिन ये तस्वीर वास्तव में और भी चिंताजनक हो सकती है। हाल ही में अर्थशास्त्री विनोज अब्राहम की एक स्टडी जारी की गई है, जिसमें लेबर ब्यूरो द्वारा इक_ा किए गए नौकरी के आंकड़ों को इस्तेमाल किया गया है। अध्ययन में कहा गया है कि 2012 और 2016 के बीच भारत में रोजगार वृद्धि में बेतहाशा कमी आई है। इस अध्ययन के अनुसार, सबसे चिंताजनक बात है कि 2013-14 और 2015-16 के बीच देश में मौजूदा रोजगार में भी भारी कमी आई है। आजाद भारत में शायद पहली बार ऐसा हो रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार, धातु, पूंजीगत माल, खुदरा बाजार, ऊर्जा, निर्माण और उपभोक्ता सामान बनाने वाली 120 से अधिक कंपनियों में नियुक्तियों की संख्या गिरी है। भारत का आर्थिक सर्वे कहता है कि रोजगार सृजन भारत की एक मुख्य चुनौती है। साल 2030 तक हर साल 1.2 करोड़ भारतीय नौकरी पाने की कतार में खड़े होने लगेंगे। फिलहाल 2.6 करोड़ भारतीय नियमित रोजगार की तलाश में बैठे हैं। ये संख्या मोटा-मोटी ऑस्ट्रेलिया की आबादी के बराबर है। भारत में नौकरी की अनोखी समस्या है। अर्थशास्त्री विजय जोशी के अनुसार, गरीबी और सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था न होने के चलते अधिकांश लोगों को जिंदा रहने के लिए खुद कोशिश करनी पड़ती है। यहां ऐसे बेरोजगार लोगों की भी भारी संख्या है जो अपने परिवारों पर निर्भर होते हैं।
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