17-Oct-2017 09:30 AM
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हमारे धार्मिक त्यौहार बिना लाउड स्पीकरों के सम्पन्न ही नहीं हो पाते हैं। त्यौहारी सीजन में लगातार 16 से 18 घन्टे तक लाउडस्पीकरों का शोर असहनीय हो जाता है। लेकिन आस्था के नाम पर हर कोई ध्वनि प्रदूषण की चपेट में आता रहता है। साथ ही सामाजिक और राजनीतिक आयोजनों में भी ध्वनि विस्तारकों का खूब प्रयोग होता है जिससे निकलने वाली करकस ध्वनि मानसिक बीमारियों को जन्म देती है। जबकि ध्वनि एवं कोलाहल नियंत्रण के लिये सरकार द्वारा कानून बनाए गए हैं परन्तु ये कानून केवल कागजों तक ही सीमित होकर रह गए हैं। प्रशासन की इच्छाशक्ति इस दिशा में मृतप्राय: है। ध्वनि नियंत्रण आदेश के अन्तर्गत जिला प्रशासन केवल विज्ञप्ति का प्रसारण करते हुए अपने कर्तव्य की इतिश्री करने की औपचारिकता पूर्ण कर लेता है। यदि सक्षम अधिकारियों या पुलिस से आम आदमी यह निवेदन करता है कि इस शोरगुल को रोका जाए तो यह निवेदन निरर्थक ही सिद्ध होता है।
ध्वनि प्रदूषण के सम्बंध में न तो समाज में कोई जागरुकता है एवं न ही शासन एवं प्रशासन के नुमाइन्दे इस दिशा में गंभीर हैं। परन्तु अब यह आवश्यक हो गया है कि इस सामाजिक बुराई का उन्मूलन करने हेतु विद्यमान कानूनों को कड़ाई से लागू किया जाए। हमारे पड़ोसी राज्य महाराष्ट्र में इस सम्बंध में बनाए गए कानूनों को कड़ाई से लागू किया जा रहा है। वहां बिना अनुमति सड़कों पर कोई जुलूस या बारात नहीं निकाली जा सकती है। अत्यन्त सीमित मात्रा में कड़े प्रतिबंधों के साथ सक्षम प्राधिकारी जुलूस निकालने की अनुमति जारी करते हैं। वर्ष भर रात्रि के 10 बजे के बाद ध्वनि विस्तारक यंत्रों के उपयोग पर स्थाई प्रतिबंध है। पुलिस द्वारा भी व्यवस्था का पालन कड़ाई से करवाया जाना सुनिश्चित किया जाता है।
ध्वनि प्रदूषण को नियंत्रित करने हेतु कानून विद्यमान हैं परन्तु हमारे प्रदेश में इन कानूनों को प्रभावी रूप से लागू किया जाना संभव नहीं हो पा रहा है। दिशा निर्देशों के उपरांत भी किसी भी पुलिस थाने द्वारा शोरगुल की रोकथाम हेतु कोई कार्यवाही नहीं की जाती है। यह कहा जाता है कि त्यौहारों का समय है, किसी को लाउडस्पीकर बजाने से कैसे रोका जा सकता है। नियमों का पालन करवाने की बजाए पुलिस की निष्क्रियता इस दिशा में अत्यंत दुखद है। फलस्वरूप ध्वनि विस्तारकों के ताण्डव में दिन प्रतिदिन वृद्धि होती जा रही है। प्रदेश में आज तक एक भी प्रकरण इस सम्बंध में कायम नहीं किया जा सका है जहां ध्वनि नियंत्रण सम्बंधी कानूनों के उल्लंघन की स्थिति निर्मित हुई हो। कानूनों का उल्लंघन करने पर यदि अभियोजन की कार्यवाही की जाए तो कानूनों का कड़ाई से पालन सुनिश्चित किया जा सकेगा।
हमारे कान एक निश्चित ध्वनि की दर को बिना कोई हानि पहुंचाए स्वीकार करते हैं। परन्तु एक सीमा से अधिक तेज आवाज को स्वीकार नहीं कर पाते हैं जिससे श्रवण क्षमता का अस्थाई या स्थाई रूप से क्षरण होना संभाव्य है। ध्वनि प्रदूषण से सिरदर्द, अनिद्रा, तनाव आदि समस्याएं उत्पन्न होती हैं। गर्भवती स्त्रियों के लिये ध्वनि प्रदूषण अत्यन्त खतरनाक है। दिन प्रतिदिन बढ़ता ध्वनि प्रदूषण मनुष्यों की कार्यक्षमता और गुणवत्ता को कम करता है एवं मनुष्य की एकाग्रता का क्षरण होता है। यदि शोर का स्तर 80 डेसीबल से 100 डेसीबल तक हो तो यह मनुष्यों में स्थाई बहरेपन का कारण हो सकता है।
मप्र में ध्वनि प्रदूषण की स्थिति बदतर
ध्वनि प्रदूषण एवं कोलाहल नियंत्रण के मामले में मध्यप्रदेश की स्थिति अत्यन्त बदतर है। इस सम्बंध में शासन एवं प्रशासन की गंभीरता दृष्टिगोचर नहीं होती है। कोलाहल नियंत्रण के सम्बंध में हमारे राज्य में विद्यमान कानूनों को कड़ाई से लागू किया जाना संभव नहीं हो पा रहा है परन्तु अब यह अत्यन्त आवश्यक हो गया है कि इस विकृति का उन्मूलन करने हेतु विद्यमान कानूनों को कड़ाई से लागू किया जाए। सक्षम राज्य सरकारों एवं प्राधिकारियों द्वारा इन नियमों की लगातार अनदेखी किये जाने के कारण माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिनांक 18 जुलाई 2005 को एक उल्लेखनीय निर्णय पारित किया गया। भारत के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस आर.सी. लाहोटी और जस्टिस अशोक भान की खण्डपीठ ने लाउडस्पीकरों, वाहनों के हार्न और यहां तक कि निजी आवासों में भी ध्वनि विस्तारक यंत्रों के उपयोग के सम्बंध में दिशा निर्देश जारी किये हैं। इन दिशा निर्देशों में पटाखों एवं वाहनों से उत्पन्न होने वाले शोर आदि को भी नियमों की परिधि में लाया गया है, लेकिन मध्यप्रदेश में इसका पालन होते नहीं देखा गया है।
-जे.एन.मालपानी (आईएएस)