बाघों की मौतगाह बने अभयारण्य
17-Oct-2017 08:49 AM 1234807
मप्र में पिछले माह के उत्तराद्र्ध में बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व और पेंच टाइगर रिजर्व में दो बाघों की मौत ने वन विभाग की कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े कर दिए हंै। जिन परिस्थितियों में बाघ मृत मिले उससे यह आशंका बढ़ गई है कि प्रदेश के अभयारण्यों में शिकारी और तस्कर खुलेआम घुम रहे हैं। तमाम सुरक्षा एजेंसियों की रिपोर्ट के बाद भी वन विभाग वन्य प्राणियों की सुरक्षा को लेकर चौकस नहीं है। बाघों की मौत के मामले में मध्य प्रदेश का स्थान देश में पहले नंबर पर है। नेशनल टाइगर कंजरवेशन अथॉरिटी (एनटीसीए) के आंकड़ों के मुताबिक यहां बीते एक साल में 27 बाघों की मौत हो चुकी है। इनमें भी सबसे ज्यादा मौतें बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व में हुई हैं। पार्क में 12 माह में नौ बाघों की जान जा चुकी हैं। वन्यप्राणी विशेषज्ञ इसके लिए प्रबंधन के मैनेजमेंट को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। उनका कहना है कि फील्ड और मुख्यालय में पदस्थ अफसर ध्यान नहीं दे रहे हैं। हाल ही में बांधवगढ़ में दो और पेंच टाइगर रिजर्व में एक बाघ व तेंदुआ शावक की मौत हुई है। इन्हें मिलाकर 29 सितंबर 2016 से 30 सितंबर 2017 तक मरने वाले बाघों का आंकड़ा 27 तक पहुंच गया है। इनमें टेरेटोरियल फाइट, बीमारी, ट्रेन एक्सीडेंट, शिकार के मामले शामिल हैं। वाइल्ड लाइफ मुख्यालय के अफसर इसे सामान्य स्थिति मानते हैं। उनका कहना है कि बाघों में 10 फीसदी मौत सामान्य है। इसलिए 308 से ज्यादा बाघों की उपस्थिति के मामले में ये गंभीर बात नहीं है। उल्लेखनीय है कि बाघ स्टेट का दर्जा प्राप्त कर्नाटक में इस अवधि में 18 बाघों की मौत हुई है। यहां वर्ष 2014 की गिनती के मुताबिक 406 बाघ हैं। वन विभाग ने पार्क से गांव तो शिफ्ट कर दिए, लेकिन कुओं को नहीं ढंका। इस लापरवाही से बांधवगढ़ में एक बाघ कुएं में गिरकर मर गया। बाघों को जंगल में खाने, छिपने की जगह नहीं मिल रही है। इसलिए वे जंगल के किनारे पर आकर अपनी टेरेटरी बना रहे हैं। जब दूसरा बाघ या बाघिन यहां पहुंचता है तो उनमें लड़ाई होती है। पार्कों में ठीक से मॉनीटरिंग नहीं हो रही है, जिससे शिकार की घटनाएं बढ़ रही हैं। बांधवगढ़ और पेंच टाइगर रिजर्व में ऐसे मामले सामने आ चुके हैं। विशेषज्ञ कहते हैं कि फील्ड डायरेक्टर और उनके अधीनस्थ स्टाफ की राजनीतिक हस्तक्षेप से पार्कों में पोस्टिंग भी पूरी तरह से फेल हो चुके मैनेजमेंट के लिए जिम्मेदार है। वे कहते हैं कि नेशनल टाइगर कंजर्वेशन अथॉरिटी (एनटीसीए) तीन बार इस प्रथा को बंद करने के लिए राज्य सरकार को लिख चुकी है, लेकिन कुछ नहीं हो रहा। उन्होंने बताया की फील्ड डायरेक्टर का पद एनटीसीए के अधीन हो जाए और उस पर एनटीसीए की मर्जी से पोस्टिंग हो तो मैनेजमेंट में कसावट आ सकती है। पूर्व आईएफएस और विशेषज्ञ वन्य प्राणी आरजी सोनी कहते हैं कि मैनेजमेंट फेल होने के कारण ये स्थिति बनी है। पार्कों में बाघों के खाने की व्यवस्था नहीं हो रही है। टेरेटोरियल फाइटिंग भी इसी का हिस्सा है। पानी नहीं है। छिपने की जगह नहीं है। इसलिए बाघों और दूसरे जानवरों की मौत का आंकड़ा बढ़ रहा है। वहीं एपीसीसीएफ, वाइल्ड लाइफ आलोक कुमार कहते हैं कि जंगल में एक बाघ की उम्र 13 से 14 साल होती है। बीमारी या टेरेटोरियल फाइट में यदि मौत होती है तो इसे सामान्य ही माना जाता है। शिकार और दुर्घटना चिंता का विषय है। ऐसे मामलों में हम पूरी जांच कराते हैं और जिम्मेदारों को सजा भी दिलाते हैं। क्या किलर स्टेटे से मिलेगी मुक्ति मप्र 2006 से पहले टाइगर स्टेट कहलाता था। यहां देश में सबसे ज्यादा टाइगर थे। यहां 10 नेशनल पार्क, 5 टाइगर रिजर्व और 25 अभ्यारण्य में टाइगर पाए जाते हैं। पिछले कुछ साल में जिस तेजी से बाघों की मौत हुई, वो वाकई चौंकाने वाली है। हाल के वर्षों में बाघों की जिस रफ्तार से संदिग्ध मौतें हुईं, उसने राज्य को बाघों के लिए किलर स्टेट बना दिया। हालांकि वन विभाग के अफसरों को उम्मीद है की राज्य को जल्द ही टाइगर किलर स्टेट से मुक्ति मिल जाएगी, लेकिन जिस तरह बाघों की मौत हो रही है उससे तो इसमें संदेह लगता है। -अवधेश कुमार
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