खिसक रहे जमीन से पांव!
02-Oct-2017 11:21 AM 1234847
पिछले तीन साल से भारत बड़ी तेजी से विश्वमंच पर उभरा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विदेश नीति ने भारत को महाशक्ति के रूप में प्रदर्शित किया है। इसका परिणाम यह हुआ है कि आज पूरा विश्व भारत को एक आदर्श देश के रूप में देख रहा है। इससे उत्साहित प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार ने भारत को विश्व की आर्थिक महाशक्ति बनाने के लिए पहले नोटबंदी और फिर जीएसटी जैसे कदम उठाए हैं जो घातक सिद्ध होने लगी है। अब ये कदम देश में आर्थिक महामंदी का कारण बन गए हैं। हालात यह है कि आज विश्व में भारत को आर्थिक मंदी की चपेट में आए देश के रूप में देखा जाने लगा है। दरअसल स्थितियां भी कुछ ऐसी हैं। जीएसटी ने भारत की पूरी अर्थव्यवस्था को तोड़कर रख दिया है। जीएसटी नेटवर्क उम्मीदों से कमतर प्रदर्शन (ऐसा कहना शायद स्थिति की गंभीरता को कम करके बताना है) ने 2017-18 में राजस्व में कमी का गंभीर खतरा पैदा कर दिया है। इससे केंद्र के राजकोषीय हिसाब-किताब के गड़बड़ाने की आशंका पैदा हो गई है। वित्त मंत्रालय को पहला झटका तब लगा जब जुलाई के महीने के लिए जीएसटी के तहत जमा हुए 95,000 करोड़ रुपए में से कुल 65,000 करोड़ रुपए के रिफंड का दावा उसके सिर पर आ गया। अगर इन सारे रिफंड, दावों को स्वीकार कर लिया जाता है, तो केंद्र के पास महज 30,000 करोड़ रुपये ही बचेंगे, जबकि बजट में प्रति माह वास्तविक कर संग्रह 90,000 करोड़ से ज्यादा होने का अनुमान लगाया गया है, लेकिन जीएसटीएन के सॉफ्टवेयर में आ रही दिक्कतों को देखते हुए इस वित्तीय वर्ष में इस पूरी कवायद का भविष्य अधर में लटका हुआ नजर आता है। अर्थव्यवस्था चरमराई भारत में आर्थिक मोर्चे पर स्थितियां सही नहीं दिख रही हैं। कुछ माह पहले दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाÓ माने जाने वाले भारत में जीडीपी वृद्धि दर घटकर 5.7 प्रतिशत के स्तर पर आ गई है। यह तो उन तमाम चीजों में से महज एक है जो सही प्रतीत नहीं हो रही हैं। नोटबंदी या विमुद्रीकरण निश्चित रूप से खेल बिगाडऩे वाला कदम साबित हुआ क्योंकि इसके कारण गरीब और यहां तक कि मध्यम वर्ग भी एकाएक भारी परेशानियों से घिर गए। जो लोग हर रोज मामूली नकद कमाई करके किसी तरह अपना जीवन यापन करने पर विवश थे उनके पास अचानक नकदी का भारी टोटा हो गया। ऐसे गरीब लोग जो छोटे-मोटे कारोबार में लगे हुए थे उन्हें अपना व्यवसाय बंद करना पड़ गया और वे अपने गांव वापस लौटने पर मजबूर हो गए। इस वजह से अर्थव्यवस्था को जो तगड़ा झटका लगा वह अब घटती जीडीपी वृद्धि दर के रूप में परिलक्षित हो रहा है। यहां तक कि यदि हम केवल जीडीपी वृद्धि दर के लिहाज से ही देश में आर्थिक हालात पर विचार न करें और सबकी भलाईÓ को एक सूचक मान कर चलें तो भी वह चीज आज निश्चित तौर पर गायब है जिसे कुछ लोग फील गुड फैक्टरÓ कहते हैं। घटते कारोबार वाले मौजूदा परिदृश्य में कॉलेज स्नातकों के बीच रोजगार पाने को लेकर और पहले से ही कोई नौकरी कर रहे लोगों में अपनी नौकरी गंवा देने को लेकर असुरक्षा की भावना है। आज भारत में रोजगार से बर्खास्तगी का नोटिस यानी पिंक स्लिपÓ कुछ ज्यादा ही आम बात होती जा रही है। जीडीपी की दर लगातार गिर रही है मार्च 2016 में यह 7.9 फीसदी थी जो कि अब गिर कर 5.7 फीसदी रह गई है। औद्योगिक विकास को लकवा मार गया है। पिछले साल इसकी विकास दर 4.5 फीसदी थी जो कि अब घटकर 1.2 फीसदी रह गई है। अगर कहीं कुछ बढ़ोतरी हुई है तो सिर्फ बेरोजगारी की दर में। दो साल पहले बेरोजगारी 4.5 फीसदी की दर से बढ़ रही थी जो कि अब बढ़कर 5 फीसदी तक पहुंच गई है। रोजगार धंधे चौपट हो चुके हैं। असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले तमाम दैनिक वेतन भोगी मजदूर गांव वापस लौट गए हैं। पांच साल पहले 10 लाख नई नौकरियां उपलब्ध हो रही थी जो कि अब घटकर 2.5 लाख रह गई है। सबसे परेशान करने वाली बात यह है कि सूचना तकनीक सरीखे क्षेत्र में छंटनी शुरू हो गई हैं। वहीं बड़ी कंपनियां ने अपने इंजीनियर कर्मचारियों के वेतन कम कर दिए हैं। इंफोसिस सरीखी कंपनियों ने छंटनी की है। यह ठीक है कि मंदी का दौर पिछले साल इन्हीं दिनों शुरू हुआ था मगर सरकार की नीतियों ने आग में घी सरीखा काम किया। जरा सोचिए कि रियल एस्टेट क्षेत्र जो कि न केवल बड़ी संख्या में लोगों को रोजगार देता है व सीमेंट, सरिया व निर्माण सामग्री का उपयोग करके इस क्षेत्र में उद्योगों के उत्पादों की खपत बढ़ाता है वह इतने बुरे दौर से क्यों गुजर रहा है? यह माना कि इस क्षेत्र में बेईमानों की संख्या कम नहीं है मगर अचानक पूरा धंधा क्यों चौपट हो गया? जेपी सरीखे प्रतिष्ठित निर्माता ने भी खुद को दिवालिया क्यों घोषित कर दिया? रिपल इफेक्ट प्रभाव आपने कभी तालाब में पत्थर फेंका होगा तो आपने देखा होगा कि पत्थर के पास पहले एक छोटी गोल लहर बनती है फिर एक और बड़ी लहर बनती है फिर और बड़ी फिर एक और बड़ी और इस तरह पूरे तालाब के किनारे तक लहरें बनती जाती हैं। इसे रिपल इफेक्ट कहा जाता है। यह रिपल इफेक्ट अर्थव्यवस्था में इस तरह काम करता है। मान लीजिए एक लाख लोग हैं। उन्हें जब तनख्वाह मिलती है वह उसे बीस जगह खर्च करते हैं। वह दाल आटा चाय पत्ती, कपड़ा, बाल कटवाने, साईकिल खरीदने मकान की किश्त देने या किराया देने, बस का किराया देने, जैसी बीस जगह खर्च करते हैं। अब अगर एक लाख लोग जो होटलों में या दुकानों में या मकान बनाने में नकदी पर काम करते थे और नोटबंदी की वजह से उन्हें काम से निकाल दिया गया। तो ये एक लाख लोग जिन बीस जगह खर्च करते थे वे धंधे भी बंद हो जायेंगे। जब यह बीस लाख जगह घाटे में आयेंगी तो वहां काम करने वाले लोग भी नौकरी से निकाले जायेंगे। फिर जब यह बीस लाख लोग नौकरी से निकलेंगे तो यह लोग जहां खर्च करते थे वह व्यापार घाटे में आ जायेगा। इस तरह धीरे-धीरे पूरी अर्थव्यवस्था बैठ जायेगी। चूंकि भारत की अर्थव्यवस्था बहुत बड़ी है इसलिए इसके नष्ट होने में थोड़ा समय लगेगा। लेकिन सरकार जिस तरह से एक के बाद एक कदम अर्थव्यवस्था को बर्बाद करने के उठा रही है उससे लगता है कि अब मामला एक दो साल में ही निबट जाएगा। आज हालत यह है कि बाजार में सभी व्यापार मंदी से परेशान हैं। व्यापारी नए व्यापार के लिए कर्जा नहीं ले रहे। उद्योगपति नए उद्योग नहीं लगा रहे। इससे बेरोजगारी और ज्यादा बढ़ेगी। जितनी बेरोजगारी बढ़ेगी उतना ही व्यापार को कम ग्राहक मिलेंगे। ग्राहक नहीं मिलेंगे तो व्यापार और उद्योग घाटे में आकर बंद हो जायेंगे। इसका नुकसान शहरी वर्ग को तो होगा ही, मजदूरों को दिहाड़ी नहीं मिलेगी, मंदी के कारण किसान का माल नहीं बिकेगा, पूरे देश में बदहाली और भुखमरी फैलने के आसार बन सकते हैं। पहाड़ जैसी मुसीबत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब 500 रु. और 1,000 रु. के बड़े नोटों के गैर-कानूनी करार दिया, उसके एक पखवाड़े बाद 24 नवंबर 2016 को पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इसे पहाड़ जैसी मुसीबत बताया था। उन्होंने कहा था कि इस कदम से देश का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) दो प्रतिशत अंक तक पीछे मुड़ सकता है। सरकार ने उनकी चिंताओं को हवा में उड़ा देने में कतई देर नहीं की। जब अक्टूबर-दिसंबर की तिमाही में जीडीपी की वृद्धि दर थोड़ी ही घटकर 7 प्रतिशत पर रही, तो उसकी दलील थी कि नोटबंदी को नाहक ही बुरा बताया जा रहा है। उस वक्त अर्थशास्त्रियों की भौंहें तन गई थीं। उन्होंने चेतावनी दी थी कि वृद्धि के आंकड़ों में वह तकलीफ छिप गई है जो अनौपचारिक क्षेत्र को झेलनी पड़ी है, अगली तिमाहियों में यह सरकार को परेशान करेगी। ऐसा ही हुआ। 31 अगस्त को केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय ने कहा कि अप्रैल-जून की तिमाही में जीडीपी की वृद्धि दर फिसलकर 5.7 फीसदी पर आ गई है जो पिछले तीन साल में इसका सबसे निचला मुकाम है। बड़ी निराशा मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर में हाथ लगी, जो एक साल पहले के 10.7 फीसदी से घटकर पांच साल के सबसे निचले स्तर 1.2 फीसदी की दर से बढ़ा। एक ही दिन पहले भारतीय रिजर्व बैंक ने कहा था कि बंद किए गए ज्यादातर (बंद किए गए 15.44 लाख करोड़ रु. के नोटों में से 99 फीसदी) नोट बैंकिंग व्यवस्था में लौट आए हैं। उम्मीद की जा रही थी कि कोई 3 से 4 लाख करोड़ रुपए का काला धन नष्ट कर दिया जाएगा। मगर इसके उलट अपनी आमदनी में से केंद्र सरकार को अदा किया जाने वाला आरबीआई का अधिशेष 2016-17 में एक साल पहले की तुलना में आधा घटकर 30,650 करोड़ रु. पर आ गया। नए नोटों की छपाई की अतिरिक्त लागत का बोझ उठाने और आपात निधि के लिए 13,140 करोड़ रु. के अतिरिक्त प्रावधान के बाद केंद्रीय बैंक के पास देने के लिए बहुत ही कम नकद अधिशेष बचा था। अनौपचारिक क्षेत्र की मुसीबतें असंगठित क्षेत्र ने नोटबंदी की तगड़ी मार झेली। कई छोटी मैन्युफैक्चरिंग इकाइयों में ताले पड़ गए क्योंकि उनके मालिक नकद भुगतान नहीं कर पाए और बिक्री रसातल में चली गई। इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट रिसर्च (आइजीआइडीआर) की प्रोफेसर आशिमा गोयल कहती हैं, अर्थव्यवस्था को गति देने वाली मांग का तकरीबन इकलौता घटक उपभोक्ता खर्च धीमा पड़ गया और नकदी पर निर्भर अनौपचारिक क्षेत्र पर कुठाराघात हुआ। इस बीच, क्रिसिल ने कहा कि नकदी के संकट से आर्थिक वृद्धि को चोट पहुंची, खासकर छोटे उद्यमियों को, जबकि जीएसटी की वजह से निर्माताओं को एक तरफ उत्पादन में कटौती करनी पड़ी तो दूसरी तरफ 1 जुलाई को जीएसटी के लागू होने से पहले सारा माल खत्म करना पड़ा। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआइई) ने कहा कि 2017 के पहले चार महीनों में तकरीबन 15 लाख की बड़ी तादाद में रोजगार चौपट हो गए, जो जाहिर तौर पर नोटबंदी और नए निवेशों में गिरावट की वजह से हुआ। इन आंकड़ों से सरकार सकते में आ गई। खासकर तब जब वह भारत को चीन से भी आगे दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के तौर पर पेश कर रही थी। देश ने वह दर्जा अब गंवा दिया है: वर्ष 2017 की दूसरी तिमाही में चीन की वृद्घि दर 6.9 फीसदी रही। इसने मोदी सरकार के वृद्धि के अफसाने को गंभीर चोट पहुंचाई है, क्योंकि यह सरकार विकास और भ्रष्टाचार विरोधी नारे के बलबूते ही सत्ता में आई थी और दो साल से भी कम वक्त में उसे दोबारा मतदाताओं के सामने जाना है। मौका ताड़कर विपक्ष 3 सितंबर के मंत्रिमंडल फेरबदल से पहले फौरन मोदी पर टूट पड़ा। नोटबंदी सहित विभिन्न मुद्दों के लिए सरकार को जिम्मेदार ठहराते हुए कांग्रेस के नेता गुलाम नबी आजाद ने कहा, अगर फेरबदल काम के आधार पर हो रहा है, तो प्रधानमंत्री मोदी को भी इसकी जद में होना चाहिए। हालांकि वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा कि नोटबंदी के नतीजे अनुमान के मुताबिक ही हैं। उन्होंने नोटबंदी के बाद आयकर जांच के दायरे में आए 18 लाख खातों का जिक्र करते हुए कहा, रकम बैंकों में जमा कर दी गई है इसका मतलब यह नहीं है कि वह वैध रकम हो गई है। जीडीपी के ताजातरीन आंकड़ों के आधार पर उन्होंने इतना तो माना, आंकड़ों ने अर्थव्यवस्था के आगे चुनौतियां खड़ी कर दी हैं। आने वाली तिमाही में हमें नीति और निवेश पर और काम करने की जरूरत है। क्या नोटबंदी के पीछे सही मंशा होते हुए भी यह इतना ज्यादा विनाशकारी उपाय था जिसने अपने आसपास बहुत ज्यादा नुक्सान पहुंचाया? क्या सरकार उतावली में कुछ ऐसा कर बैठी जो आखिरकार अर्थव्यवस्था के लिए बड़ा झटका साबित हुआ? क्या उसके फौरन बाद उसने उतना ही उथल-पुथल मचाने वाला जीएसटी लागू करने का कदम उठाया जिसने कर की बहुत सारी दरों और रिटर्न दाखिल करने के पेचीदा तरीकों के साथ कारोबार में भारी उलझनें पैदा कर दीं, भले ही थोड़े वक्त के लिए ऐसा किया हो? जानकार कहते हैं, शायद हां, खासकर तब जब वृहत अर्थव्यवस्था के आंकड़े संभावनाओं से भरपूर दिखाई दे रहे थे। नाराजगी का गणित 27 सितंबर को एक अखबार के संपादकीय में यशवंत सिन्हा ने सरकार की नीतियों के खिलाफ साफ तौर पर अपनी नाराजगी जाहिर की है। देश के भूतपूर्व वित्तमंत्री यशवंत सिन्हा नाराज हैं। उनकी नाराजगी के गहरे अर्थ हैं। वह खुद वित्तमंत्री रहे हैं इसलिए उनकी आलोचना को गंभीरता से लिया जाना चाहिए, दूसरे वह अभी की सरकार के एक जूनियर मंत्री जयंत सिन्हा के पिता भी हैं, इसलिए भी उनकी आलोचना का अर्थ है। यशवंत सिन्हा ने वित्तमंत्री अरुण जेटली पर हमला करते हुए कहा है कि अरुण जेटली एक भाग्यशाली वित्तमंत्री रहे कि उन्हें कच्चे तेल की गिरती हुई कीमतें विरासत में मिलीं। इसलिए जेटली बहुत बड़ी रकम गिरती हुई कीमतों से बचा पाए। यशवंत सिन्हा के मुताबिक इस रकम का रचनात्मक इस्तेमाल होना चाहिए था। यशवंत सिन्हा गिरती हुई अर्थव्यवस्था पर कहते हैं कि औद्योगिक उत्पादन ठप हो गया है। खेती संकट में है और भारी रोजगार देने वाले कंस्ट्रक्शन क्षेत्र की मुश्किलें कम नहीं हो रही हैं। निर्यात गिर रहा है और सेवा क्षेत्र का भी बुरा हाल है। जीएसटी से 95000 करोड़ रुपए के टैक्स कलेक्शन के मुकाबले 65000 करोड़ रुपए रिटर्न की मांग खड़ी हो गई है। वन नेशन, वन टेंशन भारत का सबसे बड़ा टैक्स सुधार गहरी मुश्किल में है जीएसटी खुद बीमार हो गया है और इससे कारोबार में भी बीमारी फैल गई है। जीएसटी के सूचना तकनीक नेटवर्क (जीएसटीएन) के बिना जीएसटी लागू होना नामुमकिन है। यह नेटवर्क असफल साबित हो गया है। रिटर्न भरने की भी तारीखें आगे बढ़ा दी गई हैं। इस नेटवर्क के भरोसे लाखों इनवॉयस मिलाने, टैक्स क्रेडिट, माल ले जाने के लिए इलेक्ट्रॉनिक परमिट देने, केंद्र और राज्य के बीच राजस्व बंटवारे का काम मुश्किल दिख रहा है। जीएसटीएन की असफलता की पड़ताल के लिए राज्यों के वित्त मंत्रियों की समिति बनानी पड़ गई है। सनद रहे कि इस नेटवर्क की तैयारी को लेकर देश को लगातार गुमराह किया गया। शनिवार को बंगलौर में जीएसटी उपचार समिति की बैठक के बाद सरकार ने स्वीकार किया कि नेटवर्क में समस्यायें हैं जिन्हें दूर करने की कोशिश हो रही है। उत्पादों और सेवाओं को विभिन्न दरों में बांटने वाली जीएसटी (फिटमेंट) कमेटी ने पर्याप्त तैयारी, शोध और उद्योगों से संवाद नहीं किया। इसी गफलत के चलते जुलाई के तीसरे सप्ताह में सिगरेट कंपनी आइटीसी का शेयर एक दिन में 13 फीसदी टूट गया यानी निवेशकों को करीब 50,000 करोड़ रुपए का नुक्सान। यह हुआ सिगरेट पर जीएसटी लगाने की गलती से। पहले सिगरेट पर जीएसटी की दर कम रखी गई फिर गलती समझ में आई तो उसे बढ़ा दिया गया। मंदी के लिए सरकार की नीतियां जिम्मेदार भाजपा के सहयोगी संगठन भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस) ने अर्थव्यवस्था में मंदी के लिए सरकार की गलत नीतियों को जिम्मेदार ठहराते हुए कहा है कि मौजूदा आर्थिक हालात पर विचार करने के लिए सभी सामाजिक- आर्थिक पक्षों का गोलमेज सम्मेलन बुलाया जाना चाहिए। संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष सजी नारायण ने यहां कहा कि सरकार को श्रम आधारित क्षेत्रों को अर्थव्यवस्था की मंद पड़ती रफ्तार को थामने के लिए प्रोत्साहन पैकेज देना चाहिए। इससे रोजगार के अवसरों में वृद्धि होगी और आम लोगों की क्रय शक्ति बढ़ेगी और उद्योगों को फायदा होगा। उन्होंने कहा कि सरकार को मनरेगा के तहत साल में रोजगार की अवधि वर्तमान 100 दिन से बढ़ाकर 200 दिन कर देनी चाहिए और पूरा कार्य कृषि से जुड़ा होना चाहिए। इसके लिए अगले कार्य दिवस को ही सीधे श्रमिकों के बैंक खाते में पारिश्रमिक के भुगतान की भी व्यवस्था करनी चाहिए। इससे भारत की ग्रामीण अर्थव्यस्था को राहत मिलेगी। कर्जों के उठाव में गिरावट कारोबारों और सेवाओं को दिए जाने वाले बैंक कर्जों का सिकुडऩा 2017-18 के पहले चार महीनों में जारी रहा। बैंकों के कर्जों में समग्र वृद्धि मौजूदा वित्तीय साल (18 अगस्त तक) में ऐतिहासिक निचले स्तर पर पहुंच गई और बैंकों का कर्जों के लेखाबही 1.37 लाख करोड़ रु. तक सिकुड़ गए। आरबीआई के आंकड़ों के मुताबिक, अकेली बढ़ोतरी क्रेडिट कार्ड की बकाया रकमों में हुई, जो क्रमश: 9 फीसदी बढ़े, जबकि वाहन कर्ज में 1.2 फीसदी की मामूली बढ़ोतरी हुई। होम लोन में वृद्धि सुस्त होकर महज 0.4 फीसदी रही। रियलिटी कंसल्टेंट नाइट फ्रैंक के पार्टनर गुलाम जिया कहते हैं, रियल एस्टेट सेक्टर में सुस्ती लगातार चिंता की बात बनी हुई है। नोटबंदी के बाद रेरा आ गया, जिसने डेवलपर के लिए प्रोजेक्ट की योजना बनाने और बिक्री के नियम-कायदों को सख्त बना दिया। इसका मकसद तो इस सेक्टर की सफाई करना था, पर इसका हश्र छोटे वक्त में इसे नुक्सान पहुंचाने में हो सकता है। ब्लूमबर्ग क्विंट के मुताबिक, जहां कंपनियां खासकर बुनियादी ढांचा क्षेत्र की कंपनियां, अपने कर्ज चुकाने से चूक रही हैं, वहीं सूचीबद्ध सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के बैंकों की गैर-निष्पादित संपत्तियां (एनपीए) मार्च 2017 में लंबी छलांग लगाकर 7.7 लाख करोड़ रुपए पर पहुंच गईं। नए दिवालिया कानून के लागू होने के साथ ही आरबीआई ने कर्ज चुकाने से चूकने वाली कई बड़ी कॉर्पोरेट कंपनियों की पहचान की है जिनके खिलाफ कार्रवाई शुरू की जाएगी। मगर यह प्रक्रिया लंबी और तकलीफदेह हो सकती है, जिसमें संभावना यही है कि कई कंपनियां कार्रवाई को अदालतों में चुनौती देंगी। इससे भी बदतर यह कि आरबीआई के शहरी उपभोक्ता सूचकांक में जून में तेज गिरावट दर्ज की गई, जो मोदी के कमान संभालने के वक्त से भी नीचे आ गई है। उपभोक्ता विश्वास में इस तेज गिरावट की तस्दीक मास्टर कार्ड एशिया पैसिफिक सर्वे ने भी की। इसके मुताबिक, 2017 के पहले छह महीनों में उपभोक्ता विश्वास में गिरावट एशिया के 18 देशों में भारत में सबसे ज्यादा थी। यह सर्वाधिक चिंता की बात है।
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