कैंपस से उतरा मोदी का जादू?
03-Oct-2017 08:39 AM 1234861
क्षणिक परिसर समाज के मस्तिष्क होते हैं। समाज जो कल सोचता है वो परिसर की जेहन में आज आ जाता है। देश के तमाम हिस्सों से आ रहे छात्रसंघ चुनावों के नतीजों को अगर देखा जाए तो वो मौजूदा राजनीति के लिए बड़े संकेत हैं। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) छात्र संघ के बाद दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) छात्रसंघ चुनाव में भी संघ-भाजपा से जुड़े संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) को हार का सामना करना पड़ा है। जेएनयू में जहां वाम संगठनों को सफलता मिली है वहीं डीयू में एनएसयूआई को सफलता मिली है। डीयू में मिली इस जीत के बाद एनएसयूआई इसे अपने नेता राहुल गांधी के प्रति जनता का भरोसा वापस होना बता रहे हैं। वहीं एबीवीपी हार के बाद इसको राष्ट्रीय राजनीति से जोड़ कर न देखने की बात कह रही है। जेएनयू छात्रसंघ की जीत को एकबारगी वामपंथ की निरंतरता की जीत बतायी जा सकती है। लेकिन दिल्ली विश्वविद्यालय से लेकर राजस्थान, ओडीशा और चंडीगढ़ के चुनाव कुछ दूसरी ही कहानी कह रहे हैं। इन चुनावों में भाजपा-संघ समर्थित विद्यार्थी परिषद को मिली करारी हार केंद्र की सत्ता में बैठी भाजपा के लिए किसी खतरे की घंटी से कम नहीं हैं। सबसे खास बात ये है कि मोदी इन्हीं युवाओं के कंधे पर सवार होकर रायसीना की ऊंचाई तय किए थे, लेकिन उन कंधों को अब शायद मोदी जी बोझ लगने लगे हैं। परिषद के खिलाफ वोट देकर उन्होंने एक तरीके से अपनी गल्ती का पश्चाताप कर लिया है। इससे यह सवाल भी उठ रहा है कि क्या कैम्पस से मोदी का जादू उतर रहा है। ज्ञातव्य है कि 2014 में भाजपा को मिली भारी जीत और नरेंद्र मोदी का प्रधानमंत्री बनना युवा भारत की जीत माना जा रहा था। आलम यह था कि देशभर के कैम्पस में मोदी और उनकी स्टाईल छाई रही। देखते-देखते देशभर के कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में हुए छात्रसंघ चुनाव में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की जीत होती गई। यानी कैम्पस पूरी तरह मोदी के रंग में रंग गए। फिर तीन साल बाद ऐसा क्या हो गया है कि कैम्पस से अखिल भारतीरय विद्यार्थी परिषद की विदाई शुरू हो गई। डीयू चुनावों में बुरे नतीजे का अहसास शायद पीएम को पहले से ही हो गया था। लगता है उनकी खुफिया एजेंसियों ने उन्हें पहले ही इसकी सूचना दे दी थी। लिहाजा इस नतीजे को पटलने के लिए उन्होंने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। ये इतिहास में पहली बार हुआ होगा जब किसी पीएम ने किसी छात्रसंघ चुनाव में परोक्ष रूप में ही सही हिस्सेदारी की हो। इसके लिए बाकायदा छात्रसंघ चुनाव की तिथि को आगे बढ़ाया गया जिससे स्वामी विवेकानंद की जयंती के बहाने पीएम को छात्रों को संबोधित करने का मौका मिल सके और फिर उसके जरिये डीयू के छात्रों को प्रभावित किया जा सके। योजना के मुताबिक पीएम ने न केवल छात्रों को संबोधित किया बल्कि उन्होंने चार मिनट का भाषण डीयू पर केंद्रित किया। दरअसल हार का सिलसिला जेएनयू में शिक्षक संघों के चुनावों के साथ ही शुरू हो गया था। उसके बाद डीयू के शिक्षकों के चुनाव में लेफ्ट की जीत हुई। फिर दोनों विश्वविद्यालय के छात्रसंघों के चुनावों में परिषद को बुरी मात खानी पड़ी। जेएनयू और डीयू के नतीजे इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं क्योंकि अब से चार साल पहले इसी दिल्ली में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए की सरकार के खिलाफ लगातार दो सालों तक अन्ना आंदोलन चला था। आज अगर वही दिल्ली और उसके युवा एक बार फिर कांग्रेस के संगठन को चुनने के लिए मजबूर हुए हैं तो उसके गहरे निहितार्थ हैं। दरअसल पिछले साढ़े तीन सालों के मोदी शासन में भाजपा के मूल वादे विकास की तो कोई चर्चा नहीं हुई। गौ, गोमूत्र, गोबर, बीफ और राष्ट्रवाद ही देश के राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्य पर छाये रहे। राष्ट्रवाद के बहाने जेएनयू समेत विभिन्न परिसरों को सत्ता और संघ द्वारा निशाना बनाया गया और इसके जरिये इन परिसरों के छात्रों का सर्वाधिक उत्पीडऩ किया गया। नतीजतन इन परिसरों का न केवल शैक्षणिक माहौल चौपट हुआ बल्कि छात्रों के भविष्य के सामने ग्रहण लग गया। शिक्षा के क्षेत्र में फंड और यूजीसी के जरिये सीटों की कटौती ने कोढ़ में खाज का काम किया। महिला सवालों पर डीयू में अपनाया गया परिषद का महिला विरोधी रुख उसके ताबूत की आखिरी कील साबित हुई। गुरमेहर प्रकरण उसकी सबसे बड़ी नजीर थी। जब महिला आजादी और उसके सम्मान की रक्षा के लिए पूरा डीयू सड़कों पर उतर पड़ा। इतना ही नहीं छात्राओं को पिंजरा तोड़Ó आंदोलन चलाना पड़ा। परिषद के खिलाफ लड़कियों में कितना रोष है इसकी बानगी उस समय देखने को मिली जब मिरांडा हाउस की एक कक्षा में प्रचार करने गए परिषद के प्रत्याशियों के खिलाफ छात्राओं ने एक सुर में विद्यार्थी परिषद गो बैक के नारे लगाए। डीयू के इस चुनाव में दो बातें और खास रहीं। पहला वामपंथी छात्र संगठन आइसा का एक ताकत के तौर पर उभरना। अध्यक्ष पद को छोड़कर बाकी पदों के वोट बताते हैं कि अगर वामपंथी संगठन पैनल बनाकर उतरते तो 11000 का पैनल वोट उनकी जेब में था और इनको एनएसयूआई के वोटों के साथ मिला दिया जाए तो परिषद हाशिये की ताकत बन जाती है। इसमें दूसरा फैक्टर नोटा का है जिसके खाते में 29000 हजार वोट गए हैं। ये वो वोट हैं जिनकी स्थापित संगठनों से नाराजगी है, लेकिन उन्हें कोई मनचाहा विकल्प नहीं मिल पाया या कहें इसमें एक बड़ा हिस्सा परिषद का है जिसने कांग्रेस के साथ जाने से इंकार कर दिया, लेकिन वो किसी भी कीमत पर परिषद के साथ जाने के लिए तैयार नहीं है। लिहाजा राजनीतिक संकेत बिल्कुल साफ हैं। समाज में किसी भी बदलाव की लड़ाई की शुरुआत युवा करता है। आजादी से लेकर 1977 और 1989 तक देश ने बार-बार इस बात को साबित किया है। 1977 जैसा छात्रों का केंद्र सरकार के खिलाफ सड़क पर भले ही कोई राष्ट्रव्यापी आंदोलन न हुआ हो, लेकिन छात्रसंघों के माध्यम से उसने सरकार को लाल झंडी जरूर दिखा दी है। अब इस पूंजी को विपक्षी राजनीतिक पार्टियां किस तरह से इस्तेमाल करती हैं ये उनके ऊपर निर्भर करता है। राजनीति की नर्सरी में भाजपा फेल छात्र राजनीति को राष्ट्रीय राजनीति की नर्सरी कहा जाता है। छात्र संघों का चुनाव जीतने वाले छात्र नेता भविष्य में देश और प्रदेश की राजनीति में महत्वपूर्ण पदों पर पहुंचते रहे हैं। छात्र राजनीति को राष्ट्रीय राजनीति का बैरोमीटर भी कहा जाता है। यह माना जाता है कि युवा जिस ओर रूख करते हैं विजय उसी की होती है। जेएनयू को छोड़ दे तो दिल्ली विश्वविद्यालय को राष्ट्रीय राजनीति के साथ ही दिल्ली की राजनीति को नब्ज कहा जाता है। ऐसे में सत्ता से जुड़े संगठन की करारी हार केंद्र सरकार के लिए शुभ संकेत नहीं है। देश के तीन बड़े कैम्पस में विद्यार्थी परिषद को मिली हार से कांग्रेस की आस जगी है। अभियान में शामिल रहे प्रधानमंत्री कैम्पस में हार के बाद भाजपा और एबीवीपी के नेता चाहे जो कहें लेकिन छात्र संघ चुनाव जीतने के लिए संघ-भाजपा के नेताओं के साथ ही केंद्र सरकार भी पूरी तरह लगी थी। केंद्रीय मंत्रियों को एबीवीपी के मदद के लिए लगाया गया था। लेकिन कैंपस में केंद्र सरकार के प्रति छात्रों का गुस्सा भांपने के बाद भाजपा सरकार को पहले ही अपनी हार का आभास हो गया था। भाजपा ने पूरे देश से युवा मोर्चा के कार्यकर्ताओं को बुलाकर विश्वविद्यालय में चुनाव प्रचार में लगा दिया। छात्रों के आक्रोश को देखते हुए केंद्र सरकार अपने सारे घोड़े खोल दिए थे। लेकिन सत्ता के घोड़े छात्रों के इस दौड़ में फिसड्डी साबित हुए। मध्यप्रदेश के कॉलेजों में जल्द होंगे छात्रसंघ चुनाव उधर मध्य प्रदेश में छात्र संघ चुनाव को लेकर गहमागहमी बढ़ गई हैं। प्रदेशभर के कॉलेजों में छात्र नेताओं की सक्रियता बढ़ गई है। उधर चुनाव की तैयारियों को लेकर उच्च शिक्षा विभाग भी सक्रिय हो गया है। चुनाव के लिए उच्च शिक्षा विभाग ने प्रस्ताव तैयार किया है। जिसमें चुनावी खर्च की लिमिट तय कर दी गई है। साथ ही विश्वविद्यालय प्रतिनिधि और कोषाध्यक्ष का पद खत्म कर दिया गया है। चुनाव मेंहर छात्र नेता पांच हजार रुपए से ज्यादा खर्च नहीं कर पाएगा। प्रस्ताव को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के पास भेज दिया और वो ही चुनाव की तारीख तय करेंगे। चुनाव के दौरान किसी भी प्रकार की विवाद की स्थिति नहीं बने। इसे लेकर विभाग अपने स्तर पर सभी तैयारियां कर चुका है। प्राचार्यों को विवाद की स्थिति से निपटने विशेष अधिकार भी दिए गए इसलिए प्रिंसिपल अपने स्तर पर कदम उठा रहे हैं। जैसे कॉलेजों में दूसरे छात्र प्रवेश नहीं कर पाएं इसके लिए आईडी देखकर छात्रों को प्रवेश दिया जाएगा। साथ ही कॉलेज कैंपस में राजनैतिक दल अपने बैनर पोस्टर नहीं लगा पाएंगे। द्य दिल्ली से रेणु आगाल
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