18-Sep-2017 05:54 AM
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भारत युवाओं का देश बना हुआ है, लेकिन देश में नई चेतना का संचार करने वाली युवा राजनीतिक पीढ़ी कहीं नहीं दिखाई दे रही है। भाजपा, कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, राजद, बसपा जैसे दलों में बड़ी उम्र के नेता अगुआ बने हुए हैं। कांग्रेस में 47 साल के राहुल गांधी हैं पर उनमें नेतृत्व की क्षमता का साफ अभाव उजागर हो चुका है। केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा में कोई लोकप्रिय युवा नेता दिखाई नहीं देता। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या युवा भारत का नेतृत्व हमेशा बुजुर्ग नेताओं के हाथ में ही रहेगा?
आज विश्व में भारत सबसे अधिक युवा आबादी वाला देश है। भारत के मुकाबले चीन, अमेरिका बूढ़ों के देश हैं। चीन में केवल 20.69 करोड़ और अमेरिका में 6.5 करोड़ युवा हैं। हमारे यहां 125 करोड़ से ज्यादा की जनसंख्या में 65 प्रतिशत युवा हैं। इनकी उम्र 19 से 35 वर्ष के बीच है, लेकिन देश के नेतृत्व की बागडोर 60 साल से ऊपर के नेताओं के हाथों में है। केंद्रीय मंत्रिमंडल में तीन-चौथाई नेता सीनियर सिटीजन की श्रेणी वाले हैं। राजनीतिक संगठनों में भी युवाओं से अधिक बूढ़े नेता पदों पर आसीन हैं। मौजूदा संसद में 554 सांसदों में 42 साल से कम उम्र के केवल 79 सांसद हैं। इनकी आवाज संसद में न के बराबर सुनाई पड़ती है। युवाओं की अगुआई कहीं नजर नहीं आती। उनकी ओर से कहीं कोई सामाजिक, राजनीतिक बदलाव या किसी क्रांति की हुंकार भी सुनाई नहीं पड़ रही है।
अन्ना आंदोलन से अरविंद केजरीवाल उभर कर आए। देश को उनकी सोच परिवर्तनकारी लगी। उन्हें अवतारी पुरुष बताया जाने लगा पर 2-3 साल गुजरते-गुजरते वे असफल साबित होने लगे। वे मैदान में विरोधियों को झेल नहीं पाए। उन्हें विपक्ष ने असफल साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। विरोधी उन पर भारी साबित हुए और वे उनके हाथों शिकस्त खा गए दिखते हैं। राहुल गांधी कोई करिश्मा नहीं दिखा पाए। अपने कामों से उनकी हंसी ज्यादा उड़ रही है। 47 साल के ज्योतिरादित्य सिंधिया, 40 वर्षीय सचिन पायलट अपने परिवारों की राजनीतिक विरासतों को ही आगे बढ़ा रहे हैं। वे भी लकीर के फकीर बने नजर आते हैं। इन्होंने राजनीति में आकर कोई नई सोच या दिशा नहीं दी। समाजवादी पार्टी में अखिलेश यादव कोई चमत्कार नहीं कर पाए। हालांकि पिछली बार उत्तर प्रदेश की जनता ने उन्हें युवा जान कर सत्ता सौंपी थी पर वे पारिवारिक झगड़े में ही उलझ कर रह गए। इस बार प्रदेश की उसी युवा पीढ़ी ने उन्हें सत्ता से बाहर कर दिया।
आज की राजनीति में राहुल गांधी, ज्योतिरादित्य सिंधिया, सचिन पायलट से लेकर अखिलेश यादव तक कई युवा हार्वर्ड जैसे विदेशी विश्वविद्यालयों से पढ़ कर आए हुए हैं। गांधी, नेहरू, पटेल भी युवावस्था में विदेश से पढ़कर देश का राजनीतिक नेतृत्व किया था। उन नेताओं ने देश को धर्मनिरपेक्ष, संप्रभु समाजवादी लोकतांत्रिक स्वरूप प्रदान कराने में अपना योगदान दिया। राज्यों की बात करें तो मध्य प्रदेश में श्यामाचरण शुक्ला और विद्याचरण शुक्ला के परिवार से युवाओं में उभर कर कोई नहीं आ पाया। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के बाद कोई नहीं दिख रहा। ओडिशा में नवीन पटनायक भी किसी युवा को आगे नहीं ला पाए। तेलंगाना में चंद्रशेखर राव का परिवार धर्र्म की लौ जगाने में ज्यादा भरोसा रखता है।
दक्षिण भारत में रजनीकांत और अब कमल हासन दोनों ही 60 से ऊपर की अवस्था में आ कर राजनीति में उतरने की सोच रहे हैं और अभी भी वहां 85 साल से अधिक उम्र के हो चुके करुणानिधि का दबदबा है और एसएम कृष्णा जैसे नेता कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में आ रहे हैं।
अन्ना आंदोलन के बाद लगता है कि देश के युवा का बदलाव की राजनीति और वैचारिक क्रांति में भरोसा कम होता जा रहा है। वह यथास्थितिवादी होता जा रहा है। वह परंपरा को तोडऩे के बजाय परंपरापूजक होता जा रहा है। आमतौर पर माना जाता है कि युवा का मतलब है परंपराओं को चुनौती देने वाला और बदलाव में विश्वास रखने वाला। समाज का यह तबका किसी देश में बदलाव का अगुआ होता है।
हाल के समय में लगता है युवा खासतौर से मध्यवर्गीय युवा धारा के विरुद्ध नहीं, धारा के साथ बहने लगा है। बदलाव के बजाय परंपराओं में, यथास्थिति में भविष्य देख रहा है। युवा सामाजिक, राजनीतिक जकड़बंदी से टकराने के बजाय उससे समझौता करने के मूड में दिखाई देने लगा है। यह बात भी सही है कि सत्ता की ओर से युवाओं को बदलाव की चेतना, आंदोलन से दूर रखने और इन आंदोलनों को कमजोर करने की योजनाबद्ध कोशिशें हुईं और उसे काफी हद तक कामयाबी भी मिली है। असल में मौजूदा व्यवस्था युवाओं की बेचैनी, उसके जोश, उसकी क्रिएटिविटी को कुचलने का काम कर रही है। इस कारण युवा राजनीति के अलावा अन्य क्षेत्र में जा रहे हैं।
लकीर के फकीर बन बैठे हैं युवा नेता
भारत में पिछले कुछ सालों में कई युवा नेता राजनीतिक पटल पर उभरते दिखे। लेकिन वे जितनी तेजी से उभरे उतनी ही तेजी से गायब भी हो गए। दरअसल, पार्टी कोई भी हो उसे युवा नेतृत्व पसंद नहीं हैं और जो युवा नेता हैं वे लकीर के फकीर बन बैठे हैं। आलम यह है कि भारतीय राजनीति में उम्रदराज नेता अपने अंतिम समय तक सक्रिय रहने के आदि हो गए हैं। इस कारण युवा अपनी जगह नहीं बना पा रहे हैं। देश के आम युवाओं की बात करें तो उन का हाल यह है कि वे भेड़ों की तरह हांके जा रहे हैं। चारों ओर युवाओं की केवल भीड़ है। हताश, निराश और उदास युवा। एसोचैम के अनुसार, आज 78 करोड़ युवा सोशल मीडिया पर तो सक्रिय हैं पर उन में राजनीतिक व सामाजिक रचनात्मकता नदारद है।
शोपीस बनकर रह जाते हैं युवा नेता
राजनीति में युवाओं को आगे लाने की बात होती है, युवा नेतृत्व की बात चलती है पर पार्टी या सरकार का नेतृत्व किसी बड़ी उम्र के नेता को ही सौंपा जाता है। 2008 में राहुल गांधी ने युवा शक्ति से जनाधार बढ़ाने के लिए देशभर से युवाओं के इंटरव्यू किए थे। उसमें 40 युवाओं का चयन किया गया। पर वे आज कहां हैं, उनकी हट कर कोई अलग पहचान नहीं दिखती। पिछले लोकसभा चुनावों में युवाओं का चुना जाना अच्छा संकेत था पर ये युवा ज्यादातर अपनी खानदानी विरासत संभालने आए। कुछ बंधनों को छोड़ दें तो इन युवाओं में जोश और जज्बा तो नजर आता है पर नई सोच नहीं। विचारों में क्रांति लाने का काम नहीं हो रहा है। संसद में सचिन तेंदुलकर जैसे युवा केवल शोपीस बने हुए हैं। वे न खेलों को भ्रष्टाचार, बेईमानी से मुक्त करने के लिए कोई बात करते हैं, न किसी अन्य सुधार की। दलगत राजनीति हो या छात्र राजनीति, दोनों की दशा डांवाडोल है। राष्ट्रीय व क्षेत्रीय राजनीतिक दलों ने छात्र राजनीति में भी अपनी घुसपैठ बना रखी है।
जेल भेज दिया जाता है युवाओं को
पिछले दिनों कन्हैया कुमार, हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवानी, चंद्रशेखर जैसे युवा नेता उभर कर सामने आए। कन्हैया कुमार ने विश्वविद्यालयों और समाज में व्याप्त धार्मिक, जातीय भेदभाव के लिए आंदोलन छेड़ा। केंद्र सरकार ने देशद्रोह का आरोप लगा कर जेल भेज दिया। गुजरात हार्दिक पटेल ने आक्षरण में भेदभाव को लेकर बड़ा आंदोलन खड़ा किया। उन पर भी मुकदमा कायम किया गया और राजस्थान में कई महीनों तक नजरबंद रखा गया। गुजरात में ही पिछले साल मरी हुई गाय की खाल उतारने पर 4 दलित युवकों की हिंदू संगठनों के लोगों द्वारा की गई बुरी तरह पिटाई के बाद जिग्नेश मेवानी उभर कर सामने आए। इस घटना के विरोधस्वरूप जिग्नेश ने राज्यभर में आंदोलन की अगुआई की। उत्तर प्रदेश के सहारनपुर के शब्बीरपुर में दलितों और राजपूतों के बीच हुई हिंसा के मामले में भीम आर्मी के नेता के रूप में चंद्रशेखर उभर कर सामने आए। 35 वर्षीय चंद्रशेखर ने जातीय भेदभाव और हिंसा के खिलाफ लड़ाई शुरू की थी। दिल्ली के जंतरमंतर पर धरना देने के लिए बुलाई गई भीड़ का नेतृत्व किया और बाद में उन्हें गिरफ्तार करके जेल भेज दिया गया।
-इन्द्र कुमार