राजन के बाद अब पनगढिय़ा की विदाई!
18-Aug-2017 10:40 AM 1234962
प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी ने 26 मई 2014 को शपथ ली तो उन्हें एक टीम मिली थी और एक टीम उन्होंने खुद बनाई। लेकिन तीन साल में ही उस टीम के कई सदस्य अलग हो गए हैं। रिजर्व बैंक के गवर्नर के रूप में रघुराम राजन को यूपीए सरकार ने नियुक्त किया था, लेकिन नरेंद्र मोदी ने उनको बनाए रखा। तीन साल का कार्यकाल पूरा होने के साथ ही उन्होंने किसी किस्म के सेवा विस्तार की संभावना को खारिज कर दिया और वापस अमेरिका के शिकागो में अध्यापन के काम में लौटने का फैसला किया। नरेंद्र मोदी ने सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील मुकुल रोहतगी को देश का सबसे बड़ा कानूनी अधिकारी बनाया था, लेकिन बनने के साथ ही वे राम जेठमलानी और सुब्रह्मण्यम स्वामी के निशाने पर आ गए। तीन साल का उनका कार्यकाल विवादों में घिरा रहा और अंत में उन्होंने सेवा विस्तार लेने से इनकार कर दिया। तीसरा नाम अरविंद पनगढिय़ा का है। नरेंद्र मोदी ने योजना आयोग का नाम बदल कर नीति आयोग किया तो पनगढिय़ा को पहला उपाध्यक्ष बनाया। योजना आयोग की ही तर्ज पर नीति आयोग के अध्यक्ष प्रधानमंत्री होते हैं। रघुराम राजन की तरह पनगढिय़ा ने भी अमेरिका लौट कर कोलंबिया यूनिवर्सिटी में अध्यापन का काम संभालने का फैसला किया। प्रधानमंत्री की कानूनी और आर्थिक टीम के तीन अहम सदस्यों के जाने के कई मायने निकाले जा रहे हैं, लेकिन साथ ही यह भी कहा जा रहा है कि ये सारे चेहरे प्रतीकात्मक रूप से पद पर बैठाए गए थे और इनका काम सिर्फ प्रधानमंत्री की सोच को अमल में लाने का था। इसलिए इनके जाने से कोई खास बदलाव नहीं होगा। पनगढिय़ा की नियुक्ति बड़े जोर-शोर से हुई थी। तब नेहरूवादी विरासत माने जाने वाले योजना आयोग को खत्म कर उसकी जगह नीति आयोग बनाया गया था। माना गया कि भारत अब विकास का पूर्ण नव-उदारवादी रास्ता अपनाने जा रहा है। अमेरिका में रहने वाले भारतीय अर्थशास्त्री जगदीश भगवती इस नए मार्ग के एक प्रमुख प्रवक्ता समझे जाते हैं। पनगढिय़ा उनके सहयोगी रहे हैं। इसीलिए कयास लगे हैं कि उनका नीति आयोग का उपाध्यक्ष पद छोडऩा मोदी सरकार को लेकर आर्थिक जगत में बदलती राय का सूचक हो सकता है। 2014 में जब एनडीए सरकार ने योजना आयोग को खत्म करने की घोषणा की तो उसका कहना था कि नया संस्थान सरकार के थिंक टैंक की तर्ज पर काम करेगा। लेकिन थिंक टैंक जिस 15 वर्षीय दृष्टिपत्र (विजन डॉक्यूमेंट) और तीन वर्षीय कार्ययोजना (एक्शन प्लान) पर काम कर रहा है, उसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे बहुत महत्वपूर्ण माना जा सके। योजना आयोग की तरह नीति आयोग के पास संसाधनों के वितरण का अधिकार नहीं है, लेकिन उसकी यह जिम्मेदारी थी कि वह राज्यों के साथ करीबी ताल-मेल बिठाते हुए काम करे। इन्हीं सब वजहों से अब नीति आयोग की कार्यप्रणाली पर एक बहस हो सकती है और यह समझने की कोशिश हो सकती है कि उसे जो जिम्मेदारी दी गई है वह उसको पूरा करने में सक्षम है या नहीं। नीति आयोग से जुड़ा दूसरा मुद्दा यह है कि इसका नेतृत्व किसी बाहरी व्यक्ति को सौंपा जाना चाहिए या नहीं। हालांकि अतीत में दूसरे क्षेत्रों से आए प्रतिभावान लोगों ने सरकारी संस्थानों में काबिले तारीफ काम किया है। इनमें नंदन नीलेकणी (यूआईडीएआई) से लेकर मोंटेक सिंह अहलूवालिया, बिमल जालान, शंकर आचार्य, राकेश मोहन जैसे कई प्रसिद्ध नाम शामिल हैं। मोदी सरकार अगर चाहती है कि सरकार में दूसरे क्षेत्रों से जुड़े प्रतिभावान लोगों को लाया जाए तो उसे यह भी ध्यान रखने की जरूरत होगी कि वह ऐसे व्यक्तियों को काम करने की आजादी दे। यही बात नीति आयोग के नए उपाध्यक्ष के लिए भी लागू होगी। लगातार बढ़ रही थी खाई सरकार और पनगढिय़ा के बीच लगातार खाई बढ़ रही थी। पनगढिय़ा खुश नहीं हैं, इसके संकेत पिछले कई महीनों से मिल रहे थे। इसकी प्रमुख वजह यह सवाल उठना है कि क्या केंद्र सरकार सचमुच न्यूनतम सरकार की धारणा पर चल रही है, जिसका वादा 2014 में नरेंद्र मोदी ने किया था? संकेत ऐसे हैं कि सरकार सस्ती जन-प्रियता पाने वाली नीतियों को बढ़ावा दे रही, जबकि पनगढिय़ा जैसे अर्थशास्त्रियों की प्राथमिकता विकास की दीर्घकालिक नीतियां हैं। नतीजतन, ऐसे कई मौके आए जब पनगढिय़ा ने सरकार की नीति से उलट अपनी राय दी। मसलन, जीवन रक्षक दवाओं के मामले में नीति आयोग ने राय जताई कि इनकी कीमत को बाजार के हवाले कर दिया जाए। लेकिन सरकार ने इन्हें तय करने का फैसला लिया। इसी तरह कई और मामले थे जिसमें सरकार ने पनगढिय़ा का कहना नहीं माना। -ज्योत्सना अनूप यादव
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