16-Sep-2017 10:14 AM
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मप्र सरकार भ्रष्टाचार के खिलाफ जीरो टॉलरेंस का दावा करती है, लेकिन सच्चाई यह है कि प्रदेश में भ्रष्टाचार चरम पर है। भ्रष्टाचारियों पर अंकुश लगाने के लिए गठित लोकायुक्त विभाग के आंकड़े बताते हैं कि प्रदेश में किस तरह साल दर साल भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी के मामले बढ़ रहे हैं, लेकिन स्टाफ की कमी और सरकार के असहयोग के कारण लोकायुक्त संगठन भ्रष्टों के खिलाफ कार्रवाई नहीं कर पा रहा है। इसकी एक वजह यह भी है कि लोकायुक्त संगठन पिछले एक साल से लोकायुक्त विहीन है। उप लोकायुक्त यूसी माहेश्वरी लोकायुक्त का प्रभार संभाले हुए हैं।
उप लोकायुक्त यूसी माहेश्वरी के कार्यकाल पर गौर करें तो उनको विरासत में 382 लंबित शिकायतें मिली थी। उनके 1 जुलाई 2016 से 30 अप्रैल 2017 तक के कार्यकाल के दौरान 5845 शिकायतें भ्रष्टाचार के खिलाफ मिली हैं। इस तरह उन्हें कुल 6227 शिकायतों का निराकरण इस अवधि में करना था। जिसमें से 5985 शिकायतें ही निराकृत हो सकीं। वहीं 242 शिकायतें लंबित हैं। विभाग का दावा है कि निराकृत शिकायतों में से आवश्यक कार्यवाही हेतु 479 शिकायतें प्रेषित की गई हैं। साथ ही 1698 जांच प्रकरण संगठन में लंबित है। इसके अलावा अभियोजन स्वीकृति में 310 प्रकरण लंबित हैं। जिन प्रकरणों के चालान प्रस्तुत किए गए हैं उनकी संख्या 322 है। अभियोजन स्वीकृति प्राप्त प्रकरणों की संख्या 307 है। चालान हेतु लंबित प्रकरणों की संख्या 81 है। लंबित अपराध प्रकरणों की संख्या 543 है। लंबित प्राथमिक जांच प्रकरणों की संख्या 287 है और जिन प्रकरणों में सजा हुई है उन प्रकरणों की संख्या 90 है। लोकायुक्त संगठन द्वारा प्राप्त इन आंकड़़ों से यह तथ्य सामने आता है कि संगठन में जितने मामले आते हैं उनमें से सभी का निराकरण समय पर नहीं हो पाता है।
लोकायुक्त सूत्रों के मुताबिक प्रकरण लंबित होने की वजह छापे की कार्रवाई के बाद पहले तो दस्तावेजों के परीक्षण और विभागीय जांच में ही डेढ़ से दो साल लग जाते हैं, इसके बाद जब आरोपी अधिकारी को अपना पक्ष रखने के लिए बुलाया जाता है तो वे कमियां दिखाकर आवेदन पर आवेदन लगाते रहते हैं। इससे मामला और ज्यादा लंबित होता जाता है। फिर शासन के नियमों के मुताबिक प्रकरण को विभागीय जांच के लिए भेजना होता है। ऐसा इसलिए कि यदि विभाग ने कोई राशि नकद खर्च करने के लिए संबंधित अफसर या कर्मचारी को दी हो तो उसके लेन-देन के दौरान किसी को गलत ढंग से न फंसा दिया जाए। इसलिए मूल विभाग से अनुशंसा का नियम है। विभागों से भ्रष्ट कारिंदों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए अनुमति लेनी होती है। अनुमति के लिए लोकायुक्त चालान की प्रति विभाग को भेजता है तो संबंधित विभाग के प्रमुख सचिव द्वारा पूरी फाइल पढ़कर अनुमति और अनुशंसा दी जाती है। इस प्रक्रिया में कभी-कभी लम्बा वक्त गुजर जाता है।
लोकायुक्त की धीमी चाल की एक वजह है स्टाफ की कमी। प्रभारी लोकायुक्त जस्टिस माहेश्वरी के बार-बार पत्र लिखे जाने के बाद भी डीएसपी और इंस्पेक्टर के पचास फीसदी पद खाली हैं। माहेश्वरी का कहना है कि खाली पदों पर नियुक्तियां सरकार को प्राथमिकता के आधार करनी चाहिए। सरकारी महकमें में भ्रष्टाचार की जंग को मिटाने के लिए बने लोकायुक्त संगठन में इन दिनों भ्रष्टों के खिलाफ कार्रवाई की रफ्तार धीमी पड़ गई है। छापेमारी करने वाले डीएसपी और इंस्पेक्टर स्तर के अधिकारियों का टोटा होने से ऐसी स्थिति बनी है। उधर कांग्रेस प्रवक्ता केके मिश्रा का कहना है कि सरकार भ्रष्टाचार को लेकर तत्पर नहीं है इसलिए वह लोकायुक्त संगठन को पंगु बनाए हुए है।
हाईकोर्ट के आदेश के बाद भी खाली हैं लोकायुक्त का पद
प्रदेश की कई संवैधानिक संस्थाएं लंबे समय से प्रभारियों के भरोसे चल रही हैं। हाईकोर्ट ने भी कई बार सरकार को लोकायुक्त संगठन और मानवाधिकार आयोग जैसी संस्थाओं में पूर्णकालिक मुखिया की नियुक्ति करने के निर्देश दिए, लेकिन सरकार ने कोर्ट के आदेश का पालन नहीं किया। प्रदेश का शीर्ष संवैधानिक राज्यपाल का पद भी बीते एक साल से खाली है। सरकार का दावा भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस का भले हो, लेकिन वास्तविक हालात ये है कि एक साल से भी ज्यादा समय से लोकायुक्त का पद खाली है। जस्टिस पीपी नावलेकर जून 2016 में सेवानिवृत्त हुए थे, तब से ही लोकायुक्त का प्रभार उपलोकायुक्त जस्टिस यूसी माहेश्वरी संभाल रहे हैं। हाईकोर्ट भी सरकार से इस मामले में जवाब-तलब कर चुका है। तब सरकार ने कोर्ट को दिए जवाब में कहा था कि मध्यप्रदेश विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष न होने से लोकायुक्त की नियुक्ति प्रक्रिया पूरी नहीं हो पा रही हैं। अब नेता प्रतिपक्ष आए भी छह महीने बीत गए, लेकिन सरकार ने नियुक्ति में रुचि नहीं ली।
-भोपाल से सुनील सिंह