31-Aug-2017 09:13 AM
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दिल्ली के कॉन्सिट्यूशन क्लब में साझी विरासत बचाने के नाम पर विपक्षी नेताओं का जमावड़ा लगा। नीतीश कुमार से खफा-खफा से चल रहे शरद यादव की पहल पर सम्मेलन बुलाया गया था, जिसमें गैर भाजपा छोटे दलों के अलावा कांग्रेस के भी दिग्गज पहुंच गए। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी से लेकर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक गुलामनबी आजाद से लेकर अहमद पटेल तक सब पहुंचे। लग रहा था शरद यादव की इस मुहिम की ज्यादा जरूरत इस वक्त कांग्रेस को ही है। शायद कांग्रेस को शरद की इस मुहिम से एक सहारा मिल गया है। अगर ऐसा ना होता तो देश पर इतने सालों तक राज करने वाली पार्टी आज शरद यादव जैसे जनाधारविहीन नेता के पीछे चलने को मजबूर नहीं होती।
शरद यादव की पहल पर बुलाई गई साझी विरासत बचाओ रैली को देखकर पुराने तीसरे मोर्चे की याद एक बार फिर से ताजा हो रही थी। गैर-भाजपा और गैर-कांग्रेसी दलों के साथ बनाए गए पुराने तीसरे मोर्चे के सभी पुराने दिग्गज या फिर उनके नुमाइंदे एक मंच पर एक साथ दिख रहे थे। बिहार में नीतीश से खफा जेडीयू के शरद यादव और निलंबित सांसद अली अनवर के अलावा आरजेडी के प्रवक्ता मनोज झा लालू यादव की तरफ से मंच पर विराजमान थे। जबकि, यूपी से एसपी के रामगोपाल यादव और बीएसपी से राज्यसभा सांसद भाई वीर सिंह, टीएमसी के शुभेंदु शेखर राय, नेशनल कांफ्रेंस से फारूख अब्दुल्ला, सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी और सीपीआई के डी राजा भी मौजूद थे।
सबने एक-एक कर मोदी सरकार की नीतियों और काम करने के तरीके पर सवाल खड़े किए। गंगा जमुनी तहजीब पर खतरा बताकर सीताराम येचुरी ने तो आपातकाल की याद दिला दी। दूसरी तरफ, गुलाम नबी आजाद ने आपसी भाई-चारे को तहस-नहस कर सरकार चलाने की भाजपा की कोशिश पर सवाल उठाया। आजाद ने अंग्रेजों की डिवाइड एंड रूल की नीति को याद दिलाकर यहां तक कह दिया कि भाजपा भी इस वक्त देश में इसी विचारधारा पर आगे बढ़ रही है। शरद यादव तो महज एक चेहरे के तौर पर सामने आ रहे हैं, लेकिन साझी विरासत बचाने की मुहिम में असल बेचैनी तो कांग्रेस के भीतर दिख रही है। शरद के इस सम्मेलन में राहुल गांधी की बेचैनी उनकी खिसकती सियासत को दिखाने के लिए काफी है। दरअसल, कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की ताजपोशी की तारीख लगातार खिसकती जा रही है। नंबर दो से नंबर वन की हैसियत में राहुल अभी नहीं आ पा रहे हैं। शायद उनके लायक अभी अनुकूल माहौल नहीं बन पा रहा है, लेकिन अघोषित तौर पर 2019 की लड़ाई मोदी बनाम राहुल की ही बनती जा रही है।
कांग्रेस के भीतर राहुल गांधी नंबर दो की हैसियत में हैं। लिहाजा उन्हें 2019 की चिंता अभी से ही सता रही है। अलग-अलग राज्यों में लगातार मिल रही हार से कांग्रेस के भीतर अपनी सिकुड़ती जमीन को लेकर बेचैनी है। राहुल को शायद इस बात का एहसास हो गया है कि अकेले अपने दम पर कांग्रेस के लिए अगली लड़ाई में मोदी को हरा पाना संभव नहीं है। लिहाजा, अभी से ही विपक्षी एकता की दुहाई दी जा रही है। राहुल गांधी ने साझी विरासत बचाओ रैली में कहा, मेरी शरद जी से बात हुई है, बाकी विपक्षी दलों के नेताओं से भी बात हो रही है। राहुल गांधी ने सभी विपक्षी दलों के नेताओं को साथ लेकर 2019 में मोदी को चुनौती देने की बात की है।
राहुल गांधी की बातों से कांग्रेस के भीतर का डर सामने आ रहा है। वरना चुनाव से पहले सभी विपक्षी दलों को इस तरह साथ लेकर चलने की कोशिश नहीं होती, लेकिन उनके लिए ऐसा कर पाना भी आसान नहीं होगा। एकजुट विपक्ष का सपना महज एक कपोल कल्पना है। अगर सैद्धांतिक रूप में देखा जाए कि जनता परिवार 1977 में कांग्रेस को उखाड़ सकती है, अगर वीपी सिंह और देवीलाल 1989 में राजीव गांधी को हरा सकते हैं तो साझा विपक्ष के विचार में वाकई कुछ दम जरूर है, लेकिन, अगले चुनाव का अंकगणित बताता है कि अगर समूचा विपक्ष भी एकजुट हो जाए, तो वे नरेंद्र मोदी को नहीं रोक सकते।
मोदी और भाजपा को हराने का सपना पूरा करने के लिए विपक्ष के सामने सबसे बड़ी चुनौती ये नहीं है कि वह एकजुट नहीं हो सकता। यह संभव है क्योंकि कई पार्टियों के सामने अस्तित्व का खतरा है। बल्कि, यह भाजपा की योजना है कि वह चुनाव से पहले विशाल गठबंधन खड़ा करे, जो विपक्ष को शतरंज की बिसात पर उस स्थिति में भी मात दे जब वे एकजुट हो जाएं।
भाजपा की योजना में ठीक बात ये है कि ऐसे कुछ राज्य ही हैं जहां आशंका है कि विपक्ष एकजुट होकर भाजपा का सामना करे। बाकी राज्यों में या तो भाजपा के साथ बड़ा गठबंधन है या फिर विपक्ष को मात देने की संभावना उसके साथ है। इस समय पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, दिल्ली और ओडिशा ही ऐसे राज्य हैं जहां कम से कम कागज पर ही सही, विपक्ष भाजपा को तगड़ी चुनौती देने की स्थिति में है। बाकी सभी जगहों पर भाजपा बेहतर स्थिति में है।
उदाहरण के लिए महाराष्ट्र को लें। यह अब लगभग साफ हो चुका है कि भाजपा अगले चुनाव में गठबंधन के लिए शरद पवार को लुभा रही है। भाजपा के लिए पवार एक तरह से जीवन बीमा की तरह हैं अगर 2019 में (या 2018 में भी अगर विधानसभा चुनावों के साथ लोकसभा चुनाव हों) एनडीए के साथ बने रहने से शिवसेना इनकार कर दे। पवार के साथ गठबंधन कांग्रेस और शिवसेना को अलग-थलग कर देगा। कहा जाता है कि राजनीति में रिश्ते अजीब होते हैं, लेकिन दुनिया इधर से उधर हो जाए, फिर भी कांग्रेस और शिवसेना एक साथ नहीं आ सकती। ऐसे में त्रिकोणात्मक संघर्ष होगा, जिसका फायदा भाजपा को होगा।
विपक्ष के पास मजबूत नेता नहीं
विपक्ष बार-बार इक_ा हो रहा है पर जुड़ नहीं रहा। इसका कारण है कि मजबूत जोड़ वाला फैविकोल नेता नहीं है। अपने-अपने राज्य में राजनीति के धुरंधरों को एक ऐसा नेता चाहिए जो उनके मतभेदों को भुला कर एक करे। लोहिया और जेपी जैसा कोई नेता नहीं है। क्षेत्रीय दलों के विभिन्न नेता अपनी राजनीतिक विरासत बचाने के जतन से ही नहीं निकल पा रहे। कांग्रेस राहुल गांधी को विकल्प के रूप में पेश कर रही है, लेकिन नोटबंदी के विरोध में बुलाई गई बैठक में विपक्षी पार्टियों का ना पहुंचना इस बात का संकेत दे गया कि उन्हें राहुल का नेतृत्व मंजूर नहीं। राहुल के नेतृत्व की राजनीतिक परिपक्वता और पार्टी से बाहर स्वीकार्यता, दोनों पर सवालिया निशान लगा दिया था। ऐसे में सवाल उठता है कि कौन विपक्ष के गठबंधन का चेहरा कौन होगा। केंद्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सरकार को बने तीन साल हो गए हैं। इन तीन सालों में विपक्षी दल एकता की कोई धुरी नहीं खोज पाए हैं। एकता के लिए एक ऐसे नेता की जरूरत होती है जिसमें लोगों का भरोसा हो। बात चाहे महागठबंधन की हो या फिर तीसरे मोर्चे की- क्षेत्रीय नेताओं को इक_ा करना सबसे बड़ा चुनौती का काम है। अपने राज्य में कांटे की लड़ाई करने वाले नेताओं को एक मंच पर बैठाना मुश्किल होता जा रहा है।
संभावित सहयोगियों की तलाश में भाजपा भी
दूसरी तरफ भाजपा ने संभावित सहयोगियों की तलाश में तेजी दिखाई है। तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में यह क्षेत्रीय ताकतों- चेन्नई में एआईडीएमके और हैदराबाद में टीआरएस, वाईएसआर या टीडीपी को अपने साथ जोडऩे को तैयार है। नए सहयोगयों और उत्तर पूर्व तक उसकी पहुंच से न सिर्फ उसकी संभावित हार की क्षतिपूर्ति होगी, बल्कि यह एनडीए की 2014 की अंक तालिका को और भी समृद्ध कर सकती है। गांधी चाहें जितना बोल लें कि वे साझा विपक्ष चाहते हैं, लेकिन आज जो राजनीतिक संभावनाएं मौजूद हैं, उसमें उनकी योजना सफल होती नहीं दिखती। जब तक कि राजनीति में कोई उथल-पुथल वाली बड़ी घटना ना हो, जो इतना प्रलय मचाने वाली हो कि मोदी को अलोकप्रिय बना दे, बुरी तरह से धराशायी विपक्ष की वर्तमान स्थिति चुनाव के बाद भी बदलने वाली नहीं है।
कई बार बिखरा है तीसरा मोर्चा
बिहार में नीतीश कुमार और लालू यादव को साथ लाकर कांग्रेस सत्ता की भागीदार बन गई थी। इसी प्रयोग को यूपी से लेकर बंगाल में दोहराने की कवायद भी थी। लेकिन नीतीश कुमार की तरफ से उठाए गए कदम ने कांग्रेस के सपने को धाराशाई कर दिया। अब एक बार फिर से यूपी में अखिलेश और मायावती को तो बंगाल में लेफ्ट और टीएमसी को साथ लाने की कोशिश हो रही है, लेकिन, ऐसा कर पाना इतना आसान नहीं होगा। तीसरे मोर्चे के धुरंधर कई बार साथ आकर बिखरते रहे। अब तीसरे मोर्चे के इन नेताओं के साथ मिलकर कांग्रेस महागठबंधन बनाने की कोशिश कर रही है। इस आस में कांग्रेस आगे बढ़ रही है कि साझी विरासत के नाम पर साझी सियासी जमीन को बचाया जा सके। अगर ऐसा ना होता तो शरद यादव के इस सम्मेलन में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी समेत दिग्गज कांग्रेसी इस तरह बढ़-चढ़कर हिस्सा ना लेते क्योंकि इस साझी विरासत बचाने के नाम पर ना अखिलेश पहुंचे, ना मायावती, ना लालू पहुंचे ना ही ममता। सबने अपने नुमाइंदे भेजकर ही केवल औपचारिकता पूरी कर दी।
द्यइन्द्र कुमार