31-Aug-2017 08:52 AM
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मप्र में हाल ही में संपन्न 43 नगरीय निकायों के चुनावों को सत्ता का सेमीफाइनल माना जा रहा है, लेकिन इन चुनावों के जो परिणाम आए हैं वे आश्चर्यजनक हैं। ये चुनाव परिणाम न भाजपा के लिए शुभ हैं और न की कांग्रेस के लिए। यानी ये खतरे की घंटी है दोनों पार्टियों के लिए। 43 निकायों में से भले ही भाजपा ने 25 निकायों में जीत दर्ज की हो, लेकिन उसे मतदाताओं ने साफ संकेत दे दिया है कि वे उससे संतुष्ट नहीं हैं। हालांकि पार्टी के नेता इन चुनाव में मिले संकेतों से इत्तेफाक रखने से मना कर रहे हैं। फिर भी माना जा रहा है कि इन चुनाव में न भाजपा जीती और न ही कांग्रेस हारी है। अगर चुनाव परिणामों पर नजर डालें तो भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए यह नतीजे बराबर रहे हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि इन चुनावों में भाजपा को जिताने के लिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को दर-दर भटकना पड़ा।
शिवराज सिंह चौहान भाजपा के ऐसे स्टार प्रचारक हैं, जिनके बारे में माना जाता है कि उनका प्रचार में जाना मतलब जीत तय। पर इस बार यह मिथक टूटा है। वे 31 निकाय क्षेत्रों में प्रचार के लिए गए पर इनमें से 14 जगह भाजपा को पराजय का सामना करना पड़ा। इनमें से 13 स्थान पर कांग्रेस ने जीत दर्ज की तो एक जगह पर कांगे्रस के बागी ने। इसी प्रकार कांगे्रस के लिए यह जीत फिफ्टी-फिफ्टी इसलिए है क्योंकि बहुमत के लिए उसे 43 में से कम से कम आधे से ज्यादा स्थान जीतने चाहिए थे पर उसकी गाड़ी 15 पर आकर अटक गई है इस लिहाज से भाजपा जीती पर उसकी सीटें, वोट प्रतिशत तो घटा है दूसरी ओर कांगे्रस के ज्योतिरादित्य सिंधिया, अजय सिंह, कांतिलाल भूरिया एवं अरुण यादव जैसे नेता अपने प्रभाव वाली कई सीटें नहीं बचा सके। हालांकि सिंधिया ने तो प्रचार में जाने की जरूरत नहीं समझी।
नतीजों का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि यदि कांग्रेस पांच और सीटें जीतने में सफल हो जाती तो भाजपा की जीत का ग्राफ नीचे होता और यह संभव था। वैसे भी कांग्रेस के 15 के साथ यदि निर्दलीय 3 जोड़ दिए जाएं तो भाजपा से उसकी जीत का अंतर 7 निकायों का रह जाता है इनमें से यदि कांग्रेस को 4 जगह की जीत मिल जाती तो भाजपा पीछे होती। कांग्रेस ने कुछ गलतियां की हैं, जिसकी वजह से शहडोल में कांगे्रस का बागी दूसरे नंबर पर रहा और कांग्रेस प्रत्याशी तीसरे क्रम पर। यदि टिकट वितरण में कांग्रेस महासचिव व पार्टी के प्रदेश प्रभारी मोहन प्रकाश मनमानी न कर नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह की राय को तबज्जो देते तो यह सीट कांग्रेस के पास होती। इसी प्रकार आठनेर मेें पहले कांगे्रस प्रत्याशी की जीत की घोषणा हो गई थी, लेकिन बाद में वे 46 वोट के मामूली अंतर से हार गए। नेपानगर एवं भीकनगांव में कांग्रेस लगभग ढाई-ढाई सौ वोटों के अंतर से चुनाव हारी है। ये निकाय पांसा पलट सकते थे यदि कांग्रेस थोड़ा और सतर्क होती। इसलिए कहा जा रहा है कि यह चुनाव भाजपा के लिए खतरे के संकेत हैं।
प्रदेश के जिन दो निकायों में खाली कुर्सी के लिए वोट डाले गए उन दोनों जगह पर कांग्रेस के अध्यक्ष थे और दोनों फिर जीतने में सफल रहे। इससे पता चलता है कि भाजपा ने उन्हें गलत तरीके से हटाया था वे जनता के बीच लोकप्रिय हैं। नतीजों से यह भी पता चलता है कि कांग्रेस ने जिन 15 निकायों में जीत दर्ज की है इनमें से 7 निकाय पहले भाजपा के कब्जे में थे। अर्थात कांगे्रस ने ये भाजपा से छीन लिए। ये निकाय झाबुआ, अलीराजपुर, महेश्वर, दमुआ, सौंसर, मोहगांव एवं जुन्नारदेव हैं। जुन्नारदेव में कांग्रेस का बागी जीता है। ऐसा होना भी लोगों का भाजपा से मोह भंग होने का संकेत है।
आमतौर पर माना जाता है कि स्थानीय संस्थाओं एवं उपचुनावों में वह दल ही ज्यादा सफल होता है जिसकी प्रदेश में सत्ता होती है। फिर भाजपा का तो नीचे से ऊपर तक जादू चल रहा है। दूसरे दलों के नेता टूट टूटकर भाजपा का दामन थाम रहे हैंं। ऐसे में मप्र में भाजपा 14 साल से सत्ता में है जिसके बाद इस तरह के नतीजे भाजपा के लिए चिंता का विषय है। चुनाव नतीजों से भाजपा की सेहत पर तो कोई असर नहीं पड़ा, लेकिन कांग्रेस ने साबित किया है कि अनुकूल परिस्थितियों को भी अपने पक्ष में भुनाने की सामथ्र्य अब उसमें बाकी नहीं रह गई है। मध्यप्रदेश में जहां भाजपा का विकल्प कांग्रेस के अलावा कोई दूसरा नहीं हो सकता, वहां भी अब अगर सरकार के खिलाफ माहौल को कांग्रेस निर्णायक तरीके से अपने वोट में तब्दील नहीं कर पा रही है तो उसके लिए भविष्य में भी करने को बाकी क्या है?
कांग्रेस अपने में जीतने का जज्बा पैदा नहीं कर पा रही है तो शिवराज के नेतृत्व में भाजपा अभी भी थकान से कोसों दूर है। मजेदार बात यह भी जिन क्षेत्रों में यह चुनाव हुए हैं उनमें से अधिकांश कभी कांग्रेस के गढ़ हुआ करते थे और यहां के आदिवासी वोटर कांग्रेस के परम्परागत वोटर कहे जाते थे, लेकिन भाजपा ने अब इन आदिवासी क्षेत्रों में अपनी ऐसी पकड़ मजबूत की है कि कांग्रेस अब अपनी ही जमीन पर पांव नहीं धर पा रही। झाबुआ, खरगोन, मंडला, शहडोल, उमरिया, छिंदवाड़ा, डिंडोरी और बैतूल, ये सभी कभी कांग्रेस के गढ़ हुआ करते थे। चुनाव भी किसी एक क्षेत्र में नहीं सिमटे हुए थे। निमाड़ से लेकर चंबल तक और महाकौशल से विंध्य तक, कहीं भी भाजपा ने कांग्रेस को अडऩे नहीं दिया, सिवाय कमलनाथ के गढ़ छिंदवाड़ा में। छिंदवाड़ा में अजेय रहने के बावजूद कमलनाथ की गिनती कभी मास लीडर के तौर पर नहीं होती है। पूरा मध्यप्रदेश जानता है कि कमलनाथ जमीनी कम, हवाई नेता ज्यादा हैं। तो एक बड़ा सवाल यह भी है कि महाकौशल में कमलनाथ और कांग्रेस की सफलता के पीछे भाजपा की कोई हिडन स्टे्रटजी तो नहीं है? राजनीति में क्या संभव नहीं है! भाजपा शायद अगले चुनाव के लिए अपना प्रतिद्वंद्वी चुन रही हो और जिस तरह राजनीति में सब कुछ संभव है, वैसे ही कांग्रेस में कुछ भी संभव हो सकता है।
नगरीय निकाय चुनाव में करीब आधा दर्जन विधायकों ने अपने-अपने क्षेत्र में अपनी पसंद के प्रत्याशियों को टिकट दिलाया था। इनमें खरगोन भीकनगांव की झूमा सोलंकी, मंडला (बम्हनीबंजर, बिछिया और नैनपुर)के संजीव छोटेलाल उइके, डिंडौरी के ओमकार मरकाम, बालाघाट बैहर के संजय उइके, अनूपपुर कोतमा के मनोज अग्रवाल और डबरा की इमरती देवी शामिल हैं। इनमें से केवल संजय उइके बैहर में भाजपा की अध्यक्ष वाली नगर परिषद पर कांग्रेस प्रत्याशी को जिताने में सफल रहे। उधर, नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह ने का कहना है कि कांग्रेस ने नगरीय निकाय चुनाव के टिकट वितरण में जनभावना का ध्यान नहीं रखा। कुछ लोग बागी भी हो गए। यदि जनभावना के अनुरूप टिकट दिए जाते तो परिणाम और अच्छे आते। अभी नतीजे ज्यादा उत्साहजनक तो नहीं, लेकिन खुश होने लायक जरूर हैं।
शिवराज के जादू को लग गई नजर?
अभी-अभी घोषित नगर निगम चुनाव के परिणामों ने भाजपा सरकार की दरकती लोकप्रियता को स्पष्ट किया है तो साथ ही भविष्य के गढ़ते नवीन राजनैतिक समीकरणों की ओर भी संकेत दिया है। आशा से परे आए परिणामों ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह की धड़कनों को जरूर बढ़ा दिया होगा। दिलचस्प ये है कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने इन चुनावों को गंभीरता से लेते हुए 31 सीटों पर धुआंधार प्रचार किया था, लेकिन परिणाम आए तो इनमें से 14 सीट पर भाजपा को हार का सामना करना पड़ा है। कहा जाता था कि चुनाव में शिवराज की सभा हो जाए तो सीट भाजपा की झोली में आना लगभग तय होता था, लेकिन लगता है कि शिवराज के जादू को नजर लग गई। पहली बार शिवराज को इतना बड़ा झटका लगा है। भाजपा को अब गंभीर मंथन की आवश्यकता है।
कांग्रेस एक बार फिर नहीं भुना पाई मौका
भले ही कांग्रेस इन परिणामों में अपनी जीत तलाश रही हो मगर सच्चाई यही है कि राज्य भर में उग्र किसान आंदोलन और राज्य सरकार के खिलाफ उपजे जनाक्रोश को कांग्रेस अपने पक्ष में करने में नाकाम ही रही है। यह सही है कि कांग्रेस का प्रदर्शन पिछले चुनावों की अपेक्षा में कुछ सुधरा है और साथ ही कांग्रेस भाजपा के कुछ इलाकों में भी सेंधमारी करने में सफल रही है, मगर फिर भी कांग्रेस के प्रदर्शन को देखकर लगता नहीं कि कांग्रेस अभी भी अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों में भाजपा को टक्कर देने को तैयार है। कांग्रेस कि लिए मुश्किल यह है कि भाजपा के पिछले 14 सालों से सत्ता में होने के बावजूद भी प्रदेश में सत्ता विरोधी लहर वैसी नहीं है जैसी होनी चाहिए। साथ ही यह कांग्रेस नेतृत्व की असफलता ही दिखाती है कि राज्य भर में किसानों के बीच फैले असंतोष और सत्ता विरोधी लहर के बावजूद भी लोग आज भाजपा के विकल्प के रूप में कांग्रेस को नहीं देख रहे हैं।
कमलनाथ को बबूल के नीचे आम... सिंधिया-अरूण नाकाम
निकाय चुनावों में सांसद कमलनाथ के क्षेत्र कांग्रेस को बबूल के नीचे आम की तरह सफलता मिली है, जबकि ज्योतिरादित्य सिंधिया और अरूण यादव के क्षेत्र में नाकामी मिली है। ज्योतिरादित्य सिंधिया के प्रभाव वाले बरा और कोलारस में कांग्रेस नहीं जीत सकी तो कांतिलाल भूरिया के प्रभाव वाले झाबुआ-अलीराजपुर में कांग्रेस आठ में से दो सीटों पर ही कामयाब हो सकी। वहीं अरुण यादव के करीबी माने जाने वाले 16 उम्मीदवारों को भी हार का सामना करना पड़ा। हालांकि कमलनाथ ने अपने संसदीय क्षेत्र छिंदवाड़ा के अलवा मंडला-डिंडौरी में अपना असर दिखाया और अपने समर्थकों को जिताने में सफल रहे। ज्ञातव्य है कि कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया और अरूण यादव ये तीनों नेता ही अगले विधानसभा चुनाव में पार्टी का नेतृत्व करने का दम भर रहे हैं। अरुण यादव तो अभी नेतृत्व कर ही रहे हैं, लेकिन माना यही जा रहा है कि विधानसभा चुनाव से पहले कमलनाथ या सिंधिया में से किसी एक के पास कांग्रेस की कमान रहेगी। सिंधिया और कमलनाथ यह कोशिश भी कर रहे हैं। अब नतीजों पर आएं तो कमलनाथ के प्रभाव क्षेत्र में कांग्रेस का प्रदर्शन अच्छा रहा है। सिंधिया के प्रभाव वाले क्षेत्र में कांग्रेस को मात मिली है। अब कमलनाथ या सिंधिया में से जिसे भी कमान मिलती है, भाजपा के लिए आसान प्रतिद्वंद्वी कौन होगा?
-सिद्धार्थ पाण्डे