सामाजिक बहिष्कार का दंश
31-Aug-2017 08:10 AM 1234809
सामाजिक बहिष्कार संस्कृति और राष्ट्र के विकास में बहुत बड़ी बाधा है। हाशिये पर जी रहे लोगों के उत्पीडऩ की घटनाएं बताती हैं कि इस कंप्यूटर युग में भी हमारा समाज किस प्रकार दकियानूसी सोच से ग्रसित है। इस दकियानूसी सोच से ग्रसित देश को भंवर से निकालने की दिशा में महाराष्ट्र सरकार ने कारगर कदम उठाया है। पिछले दिनों ही राष्ट्रपति ने महाराष्ट्र सामाजिक बहिष्कार (निषेध व निवारण) अधिनियम, 2016 को मंजूरी दी। इसके साथ ही महाराष्ट्र ऐसा कानून लाने वाला पहला राज्य बन गया। इसके तहत दोषियों को तीन साल तक की सजा और एक लाख रुपए जुर्माने का प्रावधान है। जातीय भेदभाव, जाति पंचायत, धार्मिक जुलूस, रैली, स्कूल व मेडिकल सुविधाएं रोकने जैसे व्यवहार को इस कानून के अंतर्गत अपराध माना गया है। इससे महाराष्ट्र ने दीगर राज्यों के सामने एक नजीर तो पेश की ही है, साथ ही उसके इस कदम से सामाजिक और जातिगत बहिष्कार जैसे कृत्यों पर बहस तेज हुई। लंबे अरसे से महाराष्ट्र में जाति पंचायतों द्वारा गैरकानूनी फरमान जारी करने के खिलाफ आंदोलन चलाए जा रहे थे, लेकिन सवाल है कि इस तरह के कानून से हालात कितने बदलेंगे? गौरतलब है कि जाति, धर्म, लिंग आदि के आधार पर होने वाले भेदभाव को रोकने के लिए पहले ही कई आयोग तथा कानून भी बनाए जा चुके हैं। अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग (1990), राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग (1993), राष्ट्रीय महिला आयोग (1992), राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (2007), अनुसूचित जाति एवं जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम (1989) आदि जातिगत और सामाजिक बहिष्कार को रोकने के लिए कानूनी तौर पर सक्षम हैं, लेकिन स्थिति में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हुआ। जाति पंचायत की मनमानी के खिलाफ नए अधिनियम का पारित होना बेशक शुरुआती जीत है, लेकिन सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती इस कानून के क्रियान्वयन की है। आए दिन जाति पंचायतों की मनमानी या किसी का सामाजिक बहिष्कार करने के उनके फरमान की खबरें आना जाहिर करता है कि सरकारी महकमें या पुलिस-तंत्र केवल कागजी खानापूर्ति में मशगूल हैं। हालांकि अधिनियम की मंजूरी के बाद मुख्यमंत्री देवेंद्र फडनवीस का कहना है कि इसका सख्ती से पालन कराया जाएगा। दरअसल, गांवों में जाति तथा वर्ग के आधार पर जाति पंचायतों का काफी बोलबाला रहा है। सामाजिक व पारिवारिक समस्याओं का निपटारा जाति पंचायत द्वारा ही करने की परिपाटी रही है। इनके फैसले अतार्किक और पूर्वाग्रह से ग्रसित होने के बावजूद गरीब लोगों पर मानने की बाध्यता रहती है। इन फैसलों में सामाजिक बहिष्कार जैसे फरमान भी जारी होते रहे हैं। लिहाजा, पीडि़तों को सामाजिक शोषण सहने के साथ-साथ मानसिक यंत्रणा भी झेलनी पड़ी है। वास्तव में, हमारे नीति-नियंताओं को कानून बना कर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेने के बजाय सामाजिक बहिष्कार जैसी समस्याओं के मूल कारण के निवारण पर बल देना होगा। जो लोग सशक्त होते हैं, समाज में उन्हें प्रतिष्ठा की नजरों से देखा जाता है। यह स्वाभाविक है और ऐसा सारी दुनिया में होता है। लेकिन एक न्यूनतम मानवीय गरिमा के साथ जीना हरेक व्यक्ति का अधिकार है, चाहे उसकी आर्थिक व सामाजिक पृष्ठभूमि जैसी भी है। हमारे संविधान के अनुच्छेद-21 में जीने के अधिकार की जो गारंटी दी गई है उसका यही आशय है। संविधान के इस अनुच्छेद को सार्थक बनाने के लिए बहुत कुछ करना होगा, और वही हमारे आर्थिक व सामाजिक विकास की सही दिशा होगी। सब मांग रहे हैं अपने लिए अलग बजट पिछले महीने जब महामहिम रामनाथ कोविंद ने देश के चौदहवें राष्ट्रपति के रूप में पद की शपथ ली, तो एक उम्मीद जगी कि दलितों के हालात बेहतर होंगे, लेकिन जिस दिन उन्होंने पद की शपथ ली, उसी दिन आंध्र प्रदेश से दलितों के सामाजिक बहिष्कार की खबर ने मायूस किया। गोदावरी जिले के तीन सौ से ज्यादा दलित परिवार उच्च जाति द्वारा कथित सामाजिक बहिष्कार के विरोध में उपवास पर बैठ गए। इस प्रकार की घटनाएं बताती हैं कि समाज में समरसता लाने की कोशिश को कहां-कहां और किस तरह पलीता लगाया जा रहा है। ऐसे समय में जब हमारी विकास दर ऊंची है और जल्दी ही हम एक महाशक्ति बन जाने का दम भरते हैं, हमारे देश में सामाजिक बहिष्कार जैसी प्रथा का जारी रहना एक कलंक ही कहा जाएगा। ऐसी स्थिति अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी हमारी छवि को नुकसान पहुंचाती है। लिहाजा, हमें यह सोच विकसित करने की जरूरत है कि जिन्हें हम तिरस्कार लायक समझते हैं, वे कोई और नहीं, हमारे अपने लोग हैं। द्यअक्स ब्यूरो
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