आसमानी राहुल का जमीनी दौरा फ्लाप
01-May-2013 08:59 AM 1234779

मध्यप्रदेश की व्यावसायिक नगरी इंदौर से कुछ किलोमीटर दूर मोहन खेड़ा में कांग्रेस के मोहनÓ राहुल गांधी प्रदेश के जमीनी स्तर के कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को मोहने की कोशिश कर रहे थे। उधर उनकी यह मोहकÓ अदा मध्यप्रदेश के आला दर्जे के कांग्रेसियों को मायूस कर रही थी। राहुल गांधी ने मोहन खेड़ा ही क्यों चुना यह एक अलग प्रश्न है लेकिन सबसे महत्वपूर्ण और ज्वलंत सवाल है कि क्या राहुल गांधी मध्यप्रदेश में कांग्रेस के आला नेताओं का मान मर्दनÓ करने आए थे या फिर वे सचमुच यह संदेश देना चाह रहे थे कि कांग्रेस किसी की बपौती नहीं है। कार्यकर्ताओं की पार्टी है। कांग्रेस कार्यकर्ताओं की पार्टी है या नहीं यह तो आगामी चुनाव के नतीजे ही बताएंगे, लेकिन जिस तरह से राहुल गांधी के समक्ष बड़े नेताओं की पोल खोली गई है और खुलेआम बोला गया है कि दिग्विजय सिंह को चुनावों से दूर रखो तो ही सत्ता सुंदरी का वरण हो पाएगा अन्यथा सत्ता मिलना संभव नहीं है, उससे लग रहा है कि कांग्रेस में भारी अंतर्विरोध है। राहुल के समक्ष बोले गए ये प्रायोजित बोलÓ मध्यप्रदेश में कांग्रेस की गुटबाजी को और गहरा करेंगे। अंग्रेजी शिक्षित, विदेशी अंदाज में राजनीति करने वाले, बार-बार हारने वाले सर्वहाराÓ राहुल मध्यप्रदेश कांगे्रस की नसों में बहने वाले खून से वाकिफ नहीं हैं। इसलिए उन्होंने जिन जमीनी कार्यकर्ताओं की क्लास ली है। उन्होंने राहुल गांधी के समक्ष वही बोला जो उन्हें बोलने के लिए कहा गया था और इस प्रायोजित शिकायती अभियान में राहुल मध्यप्रदेश कांग्रेस की बीमारी दूर करने की बजाए और जख्म गहरे कर गए हैं।
मोहन खेड़ा में राहुल गांधी कोई करिश्मा दिखाने नहीं आए थे, करिश्मा दिखाने का यह वक्त भी नहीं है क्योंकि चुनाव अभी दूर है। दरअसल यह प्रसव से पहले की अवस्था है। प्रसव सुचारू रूप से हो जाए इसकी व्यवस्था राहुल गांधी को करनी थी, लेकिन वे इसमें कामयाब नहीं रहे। मध्यप्रदेश में कांग्रेस के समक्ष सत्ता पाने के लिए जो बाधाएं उत्पन्न हो रही हैं उनका समाधान तलाशने में राहुल नाकामयाब रहे हैं। उन्होंने यह तो कहा कि गणेश परिक्रमा करने वालों को और तीन बार हारने वालों को टिकिट नहीं मिलेगा लेकिन यह नहीं बताया कि तीन बार हारने वाले संगठन में महत्वपूर्ण पद कैसे पा जाते हैं। इस यात्रा की एक खासियत और रही ज्योतिरादित्य सिंधिया ने राहुल गांधी के समक्ष जमकर शक्ति प्रदर्शन किया। सिंधिया शायद यह बताना चाह रहे थे कि अब मध्यप्रदेश में कांग्रेस के तारणहार वे ही हो सकते हैं। सिंधिया समर्थकों ने जमकर नारेबाजी की और सिंधिया बनाम दिग्विजय-भूरिया गुटबाजी साफ उभरकर सामने आई। राहुल बाबा कहने को तो गुटबाजी खत्म करने आए थे, लेकिन इस गुटबाजी पर वे खामोश दिखाई दिए। यदि वे इतना ही करते कि दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया को एक मंच पर साथ लाकर उनके हाथ मिलवा देते तो शायद प्रदेश में कहीं यह संदेश अवश्य जाता कि कांग्रेस में एकता है, लेकिन जिस वक्त राहुल जी के प्यारे हैं श्रीमंत सिंधिया हमारे हैं जैसे नारे लग रहे थे उसी वक्त दिग्विजय सिंह और कांतिलाल भूरिया सिंधिया को ध्वस्त करने में लगे हुए थे। राहुल ने गुटबाजी देखकर जब एक नाराजगी भरी टिप्पणी की तो माहौल अचानक बदल सा गया।
यही कारण है कि राहुल की रवानगी को 48 घंटे भी नहीं बीते थे कि मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने एक टीवी इंटरव्यू में बड़े तल्ख अंदाज में कहा कि वे मध्यप्रदेश के चुनावी टिकिट में एक भी टिकिट के लिए हस्तक्षेप नहीं करेंगे। यानी राहुल के उस बयान पर दिग्विजय सिंह ने सख्त नाराजगी प्रकट कर दी है जिसमें उन्होंने कहा था कि जो प्रत्याशी सिफारिशी चुनावी टिकिट लेगा उसे जिताने का दारोमदार भी उसी नेता पर होगा जिसकी मार्फत टिकिट मिला है। कहने को तो यह एक लोकप्रिय और महत्वपूर्ण सुझाव है, लेकिन कांग्रेस जिसकी बुनियाद ही भाई-भतीजावाद और वंशवाद है वह भला कैसे इस प्रभावशाली सुझाव को स्वीकार कर सकती है। इसी कारण राहुल के मध्यप्रदेश में परिवर्तनकारी दौरे पर अब कांग्रेस में ही सवाल उठ रहे हैं। पार्टी के कई नेता दबी जुबान से कहते हैं कि राहुल के दौरे से कटुता बढ़ी है। जिस तनाव भरे लहजे में दिग्विजय सिंह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर यह घोषणा कर रहे थे कि वे किसी भी प्रत्याशी का नाम आगे नहीं करेंगे उससे साफ झलकता है कि गुटबाजी में फंसी कांग्रेस चुनाव जीतने से पहले ही पराजय स्वीकार कर चुकी है। मध्यप्रदेश का दुर्भाग्य यह है कि यहां जनता के समक्ष तीसरा प्रभावी विकल्प नहीं है। भारतीय जनता पार्टी के प्रति जनता में असंतोष तो है, किंतु उस असंतोष के बावजूद वह कांग्रेस को विकल्प के रूप में नहीं चुन सकती क्योंकि दिग्विजय सिंह ने कांग्रेस की जो दुर्गति की है उसके चलते जनता उन दिनों की याद करके सिहरन से भर उठती है। स्वयं कांग्रेसी कार्यकर्ता दिग्विजय के खिलाफ खुलकर लामबंद क्यों हो गए हैं यह सोचने का विषय है। मध्यप्रदेश में पराजय के बाद दिग्विजय ने 10 वर्ष के लिए घोषणा की थी कि वे प्रदेश की राजनीति में भाग नहीं लेंगे। क्योंकि उन्हें पूर्वाभास था कि अब कांग्रेस लौटकर नहीं आएगी। उन्होंने अपने समर्थकों को कहा था कि मेरी दुकान बंद हो गई है,  इसलिए उनके समर्थक कमलनाथ, सिंधिया, पचौरी गुट में चले गए और दिग्विजय राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय हो गए। किंतु राहुल मध्यप्रदेश में नेताओं की गुटबाजी को समझने के लिए यहां आए थे परंतु वे कार्यकर्ताओं की इस भावना को समझने में कामयाब नहीं रहे। वे चाहते तो प्रदेश के पांच शीर्ष नेताओं में से दिग्विजय सिंह को अलग कर बाकी चार नेताओं को साथ रखते हुए प्रदेश में कार्यकर्ताओं को एकजुटता का संकेत दे सकते थे पर उन्होंने मोहन खेड़ा में प्रदेश के अग्रिम पंक्ति के नेताओं को जिस तरह दरकिनार किया उस कार्रवाई ने कांग्रेस को गहरे जख्म दिए हैं, जिसका अहसास आने वाले दिनों में अवश्य होगा। राहुल गांधी की इस जमीनी यात्रा का जिम्मा शराब माफिया और खदान माफिया ने किया था। ये दोनों व्यक्तियों को कांतिलाल भूरिया की मजबूरी थी कि पूरे कार्यक्रम में साथ लेकर घूम रहे थे। राष्ट्रीय स्तर के नेता राहुल गांधी के इर्द-गिर्द जिन लोगों की भीड़ जमा थी उन्हें देखकर साफ पता चलता है कि राहुल गांधी प्रदेश की शीर्ष नेता पंक्ति को सच्चे अर्थों में उसकी औकात दिखाने आए थे। इंटेलीजेंस की खबर को भी राहुल गांधी ने नजर अंदाज किया कि जिन व्यक्तियों की मेजबानी में यह सारी व्यवस्थाएं हो रही हैं वह शराब और खदान माफिया थे। इससे साफ पता चलता है कि राहुल गांधी मध्यप्रदेश की राजनीति को ज्यादा फलता-फूलता नहीं देखना चाहते क्योंकि इसका श्रेय आगे चलकर उन्हीं नेताओं को मिलने वाला है जिन्हें ठिकाने लगाने का बीड़ा राहुल गांधी ने उठाया है।
राजनीति परिवर्तन का दूसरा नाम है मध्यप्रदेश में भी अमूलचूल परिवर्तन की दरकार है। जो पीसीसी एक दो हजार परिचय पत्र बांटने में नाकामयाब रही हो वह मध्यप्रदेश में भारतीय जनता पार्टी को पराजित करने के लिए बड़ी तादाद में मोबलाइजेशन कैसे कर पाएगी। पार्टी के कई समर्पित नेता तो ऑफ द रिकार्ड यह कह रहे हैं कि भाजपा सरकार से कुछ कांगे्रसी नेताओं का गुपचुप समझौता हुआ है इसी कारण भाजपा को घेरने में कांग्रेस पूरी तरह असफल रही है।
राहुल गांधी ने इस दौरे में चुनावी रणनीति के मद्देनजर कार्यकर्ताओं को जो बौद्धिकÓ दिया है वह पूरी तरह मध्यप्रदेश की शीर्ष लीडरशिप के खिलाफ जाता है। जैसे उन्होंने कहा कि मध्यप्रदेश कांग्रेस को 5-6 नेताओं ने बपौती समझ लिया है। यह 5-6 नेता कौन है राहुल गांधी की माने तो ये 5-6 नेता दिल्ली में बैठे हैं, लेकिन सच तो यह है कि राहुल का इशारा मध्यप्रदेश के अग्रिम पंक्ति के उन नेताओं की ओर ही था जिनकी गुटबाजी से प्रदेश कांग्रेस हलाकान है। इनमें दिग्विजय सिंह, कांतिलाल भूरिया, ज्योतिरादित्य सिंधिया, अजय सिंह, सत्यव्रत चतुर्वेदी, सुरेश पचौरी सहित कुछ और नेता शामिल हैं जो कांग्रेस की नैय्या के खिवइया कहे जाते हैं। राहुल ने इनको खुली चुनौती दी है और राहुल का खेल समझने वाले उन छोटे-छोटे नेताओं ने भी इस चुनौती को खुले रूप में ही स्वीकार किया है। मोहन खेड़ा में यह नेता भूल गए थे कि राहुल तो एक दिन शक्ल दिखाकर दूसरे दिन चले जाएंगे पर उन्हें काम करना इन्हीं नेताओं के साथ है। इसीलिए जब सीहोर की एक महिला ने कहा कि बड़े नेता बहुत घाघ हैं आपको भी नहीं छोड़ेंगे तो उसके कहने का आशय यही था कि राहुल भैया आप तो चले जाएंगे बाद में हमें इन्हीं से काम चलाना है लेकिन राहुल ने बड़े नेताओं को घेरने का यही मार्ग क्यों तलाशा है।  वे जीतने के कुछ फार्मूले लेकर बड़े नेताओं को घेरने की कवायद क्यों कर रहे हैं। जिस तरह की बातें उन्होंने की हैं उन बातों के तरकस से निकले तीर बड़े नेताओं पर ही लक्षित हैं। जैसे उन्होंने कहा कि तीन बार हारने वाले को टिकिट नहीं मिलेगा। मध्यप्रदेश कांग्रेस में ऐसे रिकार्ड मौजूद हैं जहां पार्षद चुनाव जीतने की औकात न रखने वाले प्रत्याशी को भी विधायकी का टिकिट मिल जाता है। क्योंकि वह किसी खास का आदमी है। कांग्रेस के नेताओं ने बाद में यह खुसर-फुसर भी की कि कुछ लोगों को बोलने के लिए कहा गया था। नेताओं को ध्वस्त करने की यह सुपारी किसने दी थी इसे लेकर भी कांग्रेस में खासी गरमागर्म बहस चल रही है। राहुल टिकिट बांटने का काम बंद कमरे में नहीं करना चाहते हैं, लेकिन कांग्रेस में बंद कमरों का खेल बखूबी चला करता है। राहुल गांधी के दौरे में इसकी झलक दिखाई दे रही थी। राहुल बाबा ने सिंधिया के मुकाबले कांतिलाल भूरिया को तरजीह देकर कार्यकर्ताओं से कहा कि हम आप लोगों के भरोसे ही जीतेंगे किसी व्यक्ति से नहीं। दरअसल किसी को प्रोजेक्ट करना बहुत बड़ा सरदर्द है उसे प्रोजेक्ट करते ही विरोधी लॉबी उसे धराशायी करने के लिए कमर कस लेती है। इसी कारण राहुल गांधी इस सवाल को बड़ी चतुराई से टाल गए हैं। सच पूछा जाए तो उन्होंने कांग्रेस की हवा ही निकाल दी है।
प्रश्न यह है कि टॉप लीडरशिप को लेकर राहुल ने इतनी हल्की बातें क्यों की। टिकिट वितरण को लेकर भी जिस अधिकार से उन्होंने नए मापदंड तय किए हैं उनका आधार क्या है यह किसी को पता नहीं है। स्वयं कांग्रेस में इसे लेकर भ्रम की स्थिति है। लोग पूछ रहे हैं कि क्या एआईसीसी की कोई भूमिका नहीं रहेगी, पीसीसी की कोई भूमिका नहीं रहेगी। यदि ये दोनों कमेटियां कोई भूमिका अदा नहीं करेंगी तो क्या टिकिट का फैसला राहुल और उनके इर्द-गिर्द रहने वाले कुछ लोग ही करेंगे। यह ऐसे ज्वलंत सवाल हैं जिनके उत्तर जानने के लिए मीडिया तिलमिला रहा था, किंतु राहुल गांधी ने कोई उत्तर देना मुनासिब नहीं समझा। मीडिया से उनकी मुलाकात ही नहीं कराई गई। वे ब्लैक केट कमांडों से घिरे रहे और बाद में जमीनी नेताओं से इस कदर घिर गए कि बाकी अन्य पदाधिकारी और जिम्मेदार लोग जो उनसे संवाद करना चाहते थे उनकी आकांक्षाएं धरी की धरी रह गई। परंतु दिग्विजय ने अपने छोटे भाई लक्ष्मण की मुलाकात जरूर राहुल बाबा से करा दी। लेकिन बाकी लोग शायद इतने भाग्यशाली नहीं थे। क्या राहुल गांधी मध्यप्रदेश में नेताओं को टटोलने आए थे। शायद यह सच था क्योंकि नेता उनके आने से पहले और उनके जाने के बाद कुछ भी कहने से बच रहे थे। कुछेक बेबाक नेताओं को छोड़ दिया जाए तो बाकी नेता प्रेस से बचते ही नजर आए। उन्हें डर था कि उनके मुंह से कोई ऐसी-वैसी बात निकल गई तो उनका विरोधी अखबार की कटिंग लेकर  राहुल को दे देगा, जिससे उनके नंबर कम हो जाएंगे।
मध्यप्रदेश में कांग्रेस दयनीय स्थिति में है। सत्तासीन दल की तमाम कारगुजारियों के बावजूद एक प्रभावी विपक्ष के रूप में अपनी जिम्मेदारी निभाने में कांग्रेस असफल ही रही है। आमतौर पर सत्तासीन दल में गुटबाजी देखी जाती है क्योंकि सत्ता का स्वाद सभी चखना चाहते हैं, लेकिन कांग्रेस इसके विपरीत है। वह सत्ता में रहे या सत्ता से बाहर गुटबाजी करना उसका धर्म है। गुटबाजी सदैव बुरी भी नहीं होती इसका कई बार फायदा भी मिलता है, लेकिन बहुधा नुकसान होता है। सबसे बड़ा नुकसान तो यह है कि गुटबाजी करने वाली पार्टियां जनता की बुनियादी मुद्दों से दूर हो जाती हैं और अपनी ही राजनीति को पुख्ता करने में लगी रहती हैं। राहुल गांधी के इस दौरे में यह लग रहा था कि वे सांगठनिक बातों पर प्रदेश के आला नेताओं से बातचीत करके कठिनाइयों को समझने की कोशिश करेंगे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। न ही उन्होंने प्रदेशाध्यक्ष से यह सवाल पूछा कि विधानसभा हो या उससे बाहर, महत्वपूर्ण मुद्दों पर सरकार के खिलाफ प्रदेश कांग्रेस आंदोलन खड़ा करने में कामयाब क्यों नहीं रही है। सड़क, पानी, बिजली जैसे बुनियादी मुद्दों पर राहुल गांधी बात करते तो ज्यादा प्रभावशीलता दिखाई देती। थोड़ी बहुत गुटबाजी तो चलती ही रहती है। जनता को गुटबाजी से मतलब नहीं है जनता को चाहिए विपक्ष के रूप में कांग्रेस सक्रिय दिखाई दे। यदि राहुल गांधी सक्रियता का कोई रोडमैप तैयार करते तो शायद बेहतर होता, लेकिन उन्होंने अपनी यात्रा का ज्यादातर समय बड़े नेताओं को धराशायी करने में ही बिता दिया। वैसे भी राहुल गांधी भारत में सर्वाधिक सुरक्षा कवच वाले गिने-चुने नेताओं में से एक हैं उनके आने से सरकारों के पसीने छूट जाते हैं और प्रदेश कांग्रेस की मांग है कि वे उत्तरप्रदेश के मुकाबले 25 प्रतिशत समय ही दे दें। लेकिन इस 25 प्रतिशत समय का उपयोग इसी तरह शीर्ष नेताओं को ध्वस्त करने और गुटबाजी के खिलाफ सुदर्शन चक्र चलाने में किया जाएगा तो कोई मकसद सफल नहीं होगा।

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