19-Aug-2017 06:55 AM
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ससत्ता की राजनीति में हाशिये पर सिमट गई कांग्रेस अब विपक्ष की सियासत में भी चूकती हुई दिख रही है। क्या सचमुच कांग्रेस की स्थिति इतनी खराब हो गई है? जयराम रमेश की टिप्पणी को साधारण ढंग से नहीं देखा जा सकता है। उसकी वजह ये है कि जयराम रमेश को पार्टी में बुद्धिजीवी माना जाता है। दूसरी चीज ये है कि उन्होंने इंदिरा गांधी पर काफी काम भी किया है। कुल मिलाकर आप देखें तो उन्हें कांग्रेस के इतिहास के बारे में अच्छी जानकारी है। कांग्रेस के इतिहास में जो उतार-चढ़ाव हुए हैं, उसे देखते हुए जयराम रमेश की टिप्पणी पर मेरा ये कहना है कि पार्टी को वाकई अपने भीतर झांकने की जरूरत है।
दिक्कत यही हो रही है कि पार्टी क्या वाकई में आत्मचिंतन के लिए तैयार है या वो राहुल गांधी को लाने के बारे में सोच रही है। पार्टी की रणनीति कहीं ये तो नहीं। अगर उसकी रणनीति सिर्फ यही है तो हमें ये लगेगा कि पार्टी ने ईमानदारी से अपनी स्थिति के बारे में नहीं सोचा, लेकिन अगर वाकई में आत्मचिंतन किया जाता है और विपक्ष के जो हालात हैं उसे देखते हुए ये जरूर लगेगा कि विपक्ष में फिर से जान फूंकने की जरूरत
है। इसमें कांग्रेस चूंकि एक प्रमुख दल है इसलिए उसके साथ अस्तित्व का संकट साफ दिख रहा है।
आखिर ऐसे हालात क्यों बने हैं? क्या राहुल गांधी को कोई काम करने से रोक रहा है? ये सवाल आज पूरे देश में उठ रहा है। कांग्रेस पार्टी में सब कुछ नेहरू-गांधी परिवार के इर्द-गिर्द ही घूमता है। पार्टी को दिशा भी वहीं से मिलती है और दिशाहीनता की शिकार भी वहीं से होती है। पिछले कुछ सालों से पार्टी का दिशा सूचक यंत्र खराब हो गया है। उसके ठीक होने के कोई आसार भी नजर नहीं आ रहे। आलम यह है कि देश की कभी सबसे बड़ी और सत्ता की स्वाभाविक पार्टी रही कांग्रेस केंद्र के बाद राज्यों से भी सत्ता से बाहर हो रही है और विपक्ष की भूमिका निभाने की न तो उसे आदत पड़ सकी है और न ही क्षमता दिखती है। बीमारी कितनी ही गंभीर क्यों न हो, उसके इलाज की कोशिश तो की ही जा सकती है। कांग्रेस नेता और कुछ समय पहले तक राहुल गांधी के सलाहकार माने जाने वाले जयराम रमेश ने पार्टी की बीमारी की ओर संकेत किया है। उन्होंने कहा है कि सल्तनत चली गई, पर लोग अपने को अब भी सुल्तान समझ रहे हैं।
उनका यह कथन कांग्रेस की समस्या और उसके सुधार के आसार न दिखने की उनके जैसे नेताओं की अकुलाहट को व्यक्त करता है, पर जयराम की इस टिप्पणी पर कांग्रेसियों की प्रतिक्रिया इस बात का प्रमाण है कि कांग्रेस में कोई सच का सामना करने को तैयार नहीं। सच का सामना कराने के लिए गांधी परिवार को कठघरे में खड़ा करना पड़ेगा। कांग्रेस में गांधी परिवार से सवाल करना भी कुफ्र से कम नहीं है। जयराम रमेश ने कहा कि कांग्रेस जिस हालत में है, उसके बूते वह 2019 में नरेंद्र मोदी-अमित शाह की जोड़ी और भाजपा से लडऩे की स्थिति में नहीं है। ऐसा कहने वाले वे पहले व्यक्ति नहीं। यूपी विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला भी कह चुके हैं कि विपक्ष को 2019 का चुनाव भूल जाना चाहिए और 2024 की तैयारी करना चाहिए। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कांग्रेस के साथ रहते और साथ छोडऩे के बाद इसी आशय की बात कह चुके हैं।
जयराम रमेश की टिप्पणी पर दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने कहा कि वह भी तो सुल्तान रह चुके हैं। शीला दीक्षित शायद भूल रही हैं कि कांग्रेस में गांधी परिवार से इतर कोई नेता सुल्तान बनना तो दूर, बनने की सोच भी नहीं सकता। जाहिर है, जयराम रमेश की यह टिप्पणी बिना नाम लिए पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के बारे में ही है। यह टिप्पणी राहुल गांधी की कार्यशैली पर सवाल उठा रही है। किसी को कोई गलतफहमी न रहे, इसलिए उन्होंने अपनी बात को और स्पष्ट किया। जयराम का कहना है कि 1977, 1989 और 1998-99 का संकट चुनावी हार का था, इसलिए पार्टी उससे उबरने में कामयाब रही। 2014 के लोकसभा चुनाव की हार और उसके बाद राज्य विधानसभा चुनावों में हार ने कांग्रेस के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा कर दिया है। मुश्किल यह है कि कांग्रेस के लोग इसे समझने को तैयार नहीं। 1977, 1989 और 1998-99 की हार से कांग्रेस को उबारने के लिए पार्टी के पास नेतृत्व था। आज अस्तित्व का संकट मुंह बाए खड़ा है तो उसका एक बड़ा कारण नेतृत्व का संकट है। कांग्रेस के लोग यह समझने को ही तैयार नहीं कि जिन्हें (राहुल गांधी) वह अपनी सबसे बड़ी ताकत समझ रहे थे, वह सबसे बड़ी जिम्मेदारी साबित हो रहे हैं। पार्टी अतीतजीवी बन गई है। किसी कांग्रेसी से आज के संकट के बारे में पूछिए तो उसका रटा-रटाया जवाब होता है कि पहले भी तो संकट आया था और उबर गए। इस बार ऐसी क्या नई बात है? मशहूर कवि दुष्यंत कुमार की एक गजल का शेर है - तुम्हारे पांव के नीचे कोई जमीन नहीं, कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यकीन नहीं। कांग्रेस और कांग्रेसियों की हालत कुछ ऐसी ही है। वे आईना दिखाने पर आईने में ही नुक्स निकाल रहे हैं।
पार्टी यह देखने को ही तैयार नहीं है कि उसका नेता भविष्य की ओर पीठ करके खड़ा है। कांग्रेस की हालत का अंदाजा इस बात से लगाइए कि लोकसभा चुनाव के बाद पार्टी ने अपने वरिष्ठ नेता एके एंटनी की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई। इसे चुनाव में हार के कारणों की समीक्षा का जिम्मा सौंपा गया। उस कमेटी की रिपोर्ट पर अमल तो छोडि़ए, कांग्रेस कार्यसमिति के लोगों को उसके दर्शन भी नहीं हुए। पिछले तीन सालों में देश में इतना कुछ बदल गया, पर कांग्रेस संगठन में कोई बदलाव नहीं हुआ।
नेतृत्व का विकल्प
पार्टी में दूसरी पंक्ति तो छोडि़ए पहली पंक्ति का ही नेतृत्व नहीं है। पहली पंक्ति में ही कोई ऐसा नहीं है जो विपक्ष की एक आवाज को लेकर चल सके। जो ये बता सके कि विपक्ष किस दिशा में जाएगा। सरकार की गल्तियों को जो मुद्दा बनाकर पेश कर सके। ऐसा तो कोई दिखता ही नहीं है। कांग्रेस को ये सोचना पड़ेगा कि अभी तक वे जिस वर्चस्व वाली स्थिति में रहे थे, वो अब बीते दिनों की बात हो गई है और ये वर्चस्व आज उनके हाथ से नहीं निकला है बल्कि बहुत दिनों से निकला हुआ है लेकिन उनको ये एहसास हो ही नहीं रहा है। साठ के दशक में कांग्रेस की जो स्थिति थी, वही स्थिति आज भारतीय जनता पार्टी की है। जब तक कांग्रेस को इस हकीकत का एहसास नहीं होगा और वे विपक्ष की एकता की जरूरत को गंभीरता से समझेंगे नहीं तब तक कोई भी रणनीति इनके लिए काम नहीं करने वाली है।
संप्रग सरकार के भ्रष्टाचार का प्रभाव
लोकसभा चुनाव और उसके बाद हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की हार का एक बड़ा कारण संप्रग सरकार के दस साल का भ्रष्टाचार रहा है, लेकिन कमाल यह है कि पार्टी को यह सीधी-सी बात समझ में नहीं आ रही है कि देश का मतदाता भ्रष्टाचार को और बर्दाश्त करने या उसकी उपेक्षा करने को तैयार नहीं। कम से कम पार्टियों व सरकारों के संदर्भ में तो यह बात कह ही सकते हैं। व्यक्तियों के भ्रष्टाचार के प्रति अभी वह इतना निर्मम नहीं हुआ है। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर मतदाताओं की ओर से नकारी गई कांग्रेस पिछले तीन साल में भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों के साथ और शिद्दत के साथ खड़ी नजर आ रही है। उसे उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव और सपा के भ्रष्टाचार से कोई परहेज नहीं तो पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस और बिहार में लालू परिवार के भ्रष्टाचार में उसे धर्मनिरपेक्षता को बचाने का अवसर नजर आता है।
-दिल्ली से रेणु आगाल