19-Aug-2017 06:51 AM
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एक तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह कहीं का रोड़ा, कहीं का पत्थर जोड़कर अपने कुनबे (भाजपा) को बढ़ाने में लगे हुए हैं, वहीं दूसरी तरफ पार्टी के राज्यसभा सांसद पार्टी निर्देशों का पालन नहीं कर रहे हैं। ऐसे में शाह अपनी पार्टी के सांसदों से नाराज हैं। उनकी नाराजगी सांसदों के उस रवैये को लेकर है जो बार-बार चेतावनी के बावजूद नहीं बदल रहे हंै। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर खुद पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने कई बार अपनी पार्टी के सांसदों को सदन के भीतर हमेशा मौजूद रहने को कहा है। लेकिन, उनकी पार्टी के सांसद महोदय हैं जो कि अपनी पार्टी आलाकमान की ही सुनने को तैयार नहीं लगते।
संसद के मॉनसून सत्र में राज्यसभा में केंद्र सरकार की किरकिरी हुई। अन्य पिछड़ी जातियों के आयोग को संवैधानिक दर्जा दिलाने के लिए लाए गए उसके बिल में विपक्ष ने संशोधन करा दिया, जिसकी वजह से बिल वापस लोकसभा में भेजना पड़ा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह दोनों इससे नाराज हुए। लेकिन हैरानी की बात है कि प्रधानमंत्री मोदी ने लोकसभा के सांसदों को चेतावनी दी। उन्होंने सत्र खत्म होने से एक दिन पहले पार्टी के सांसदों से कहा कि वे 2019 में हिसाब करेंगे। मोदी ने दो टूक अंदाज में कहा कि जिसको अपनी मर्जी से जो करना है करे, वे 2019 में फैसला करेंगे।
सवाल है कि जब राज्यसभा सांसदों की गैरहाजिरी से सरकार की किरकिरी हुई तो लोकसभा सांसदों को चेतावनी देने का क्या मतलब था? क्या प्रधानमंत्री ने इस बहाने राज्यसभा के सांसदों को भी चेतावनी दी है? राज्यसभा का द्विवर्षीय चुनाव अगले साल होना है, जिसमें भाजपा के करीब 15 सांसद रिटायर हो रहे हैं। इनके अलावा मनोनीत श्रेणी के भी चार सांसद रिटायर हो रहे हैं। चार मनोनीत सीटों के अलावा भाजपा अगले साल 25 से ज्यादा सीटें जीतने की स्थिति में है। तभी प्रधानमंत्री की चेतावनी से लोकसभा के साथ-साथ राज्यसभा के सांसद भी घबराएं है। हालांकि राज्यसभा से रिटायर हो रहे सांसदों में ज्यादातर दिग्गज हैं। कई मंत्री हैं और सबको उम्मीद है कि उच्च सदन में उनकी वापसी होगी। केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली से लेकर स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा, कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद, पेट्रोलियम राज्यमंत्री धर्मेंद्र प्रधान, पार्टी महासचिव भूपेंद्र यादव आदि रिटायर होने वालों में शामिल हैं। इनमें से ज्यादातर की वापस होने की संभावना है।
फिर भी कहा जा रहा है कि पार्टी के ऐसे सांसदों की सूची बन रही है जो सदन से गैरहाजिर रहते हैं। इनमें लोकसभा और राज्यसभा दोनों के सांसद हैं। प्रधानमंत्री ने कई बार अपने सांसदों से कहा है कि वे सदन में रहें और बहस में हिस्सा लें। सो, इस आधार पर परफारमेंस रिपोर्ट बन रही है कि किस सांसद ने कितने सवाल पूछे, कितनी बहसों में हिस्सा लिया या कितनी बार सदन की कार्यवाही में सार्थक हस्तक्षेप किया। सांसदों के चुनाव क्षेत्र में किए कामकाज के साथ संसद में उनकी परफारमेंस को मिलाकर टिकटों का फैसला होगा। तभी कहा जा रहा है कि बड़ी संख्या में भाजपा के सांसदों को इस बार टिकट नहीं मिलेगी। यह बड़ी अजीब बात है कि जिन्हें लाखों लोग अपनी नुमाइंदगी करने के लिए चुनते हैं, उनको उनका दायित्व बार-बार याद दिलाना पड़ता है। यह शायद अतीत में बनी राजनीतिक संस्कृति का ही परिणाम है कि निर्वाचित जनप्रतिनिधि उस कार्य में सबसे कम दिलचस्पी लेते हैं, जो उनकी प्राथमिक जिम्मेदारी है।
हैरत तो यह है कि भारतीय जनता पार्टी जैसे अनुशासित माने जाने वाले दल के सांसद भी अपने आलाकमान के स्पष्ट निर्देशों की अनदेखी कर देते हैं, लेकिन मोदी और शाह ने इसे गंभीरता से लिया है। भाजपा संसदीय बोर्ड की बैठक में नरेंद्र मोदी ने यह महत्वपूर्ण बात कही कि आखिर किसी पार्टी को व्हिप जारी करने की नौबत क्यों आनी चाहिए? ये बात तार्किक है कि सांसदों को खुद सत्र के दिनों में पूरे समय सदन में मौजूद रहना चाहिए। जनता के धन से उन्हें तमाम सुख-सुविधाएं इसीलिए मिलती हैं। दरअसल, सत्र के दिनों में उन्हें सदन में रहने के लिए प्रतिदिन का भत्ता भी मिलता है। ऐसे यह न सिर्फ अपेक्षित, बल्कि अनिवार्य होना चाहिए कि सांसद बिना अपने दल के नेतृत्व की इजाजत के लिए एक घंटा भी सदन की कार्यवाही से गैरहाजिर ना हों। भाजपा सदस्यों को अपने नेता (यानी प्रधानमंत्री मोदी) से सीख लेनी चाहिए, जिनके बारे में बहुचर्चित है कि वे बिना अवकाश लिए लगातार अपना कर्तव्य निभाने में संलग्न रहते हैं। सांसद अगर अपनी तरफ से ये जज्बा नहीं दिखाते, तो भाजपा आलाकमान को इस बारे में सख्त नियम कायदे लागू करने चाहिए।
गैरहाजिरी चिंताजनक
संविधान में संसद की व्यवस्था इसलिए की गई है ताकि यहां जनता के तमाम मुद्दों पर गहन मंथन किया जाए और जनहित पर नीति बनाई जाए। पूरी प्रक्रिया के लिए संसद के कई सत्र चलाए जाते हैं और इसकी कार्यवाही के दौरान सांसदों पर भारी-भरकम धन खर्च किया जाता है। बावजूद इसके पिछले एक दशक से संसद में कार्यवाही के दौरान जनहित के मुद्दों पर शायद ही कभी गंभीर चर्चा होती दिखी हो। ऐसा नहीं है कि संसद की कार्यवाही के समय केवल भाजपा के सांसद ही गैरहाजिर रहते हैं, अन्य दलों के सांसदों में भी यह प्रवृत्ति आम होती जा रही है। चुनाव के दौरान जनता की बात करने वाले जनप्रतिनिधि सदन में पहुंचते ही जनता के हितों को भूल जाते हैं। यही नहीं संसद में विपक्ष चर्चा की बजाए हंगामा करता नजर आता है या सदन का बहिष्कार कर देता है। यह प्रवृत्ति बेहद घातक है। इससे बहुमत प्राप्त दल एकतरफा तरीके से नीति निर्धारित करता है। विधेयक पास कर देता है। मजबूत लोकतंत्र में मजबूत विपक्ष का होना जरूरी है।
सांसदों का गैरहाजिर रहना चिंता का विषय
व्हिप के बावजूद राज्यसभा में भाजपा के कई सांसद गैरहाजिर रहे। सांसदों के इस रवैये पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने अपनी नाराजगी जाहिर की है। यही नहीं इन सांसदों को दोबारा ऐसा नहीं करने की कड़ी चेतावनी दी गई है। इन सबके बीच अहम सवाल यह है कि आखिर जनप्रतिनिधि लोकतंत्र की सबसे बड़ी पंचायत में मौजूद क्यों नहीं होना चाहते हैं? क्या सांसदों की ऐसी गतिविधियां लोकतांत्रिक प्रक्रिया को कमजोर नहीं कर रही हैं? क्या सांसदों को जनता के मुद्दे पर विचार-विमर्श करने की आवश्यकता नहीं महसूस होती है? क्या इससे संसद की मर्यादा भंग नहीं हो रही है? संविधान में संसद की व्यवस्था इसलिए की गई है ताकि यहां जनता के तमाम मुद्दों पर गहन मंथन किया जाए और जनहित पर नीति बनाई जाए। पूरी प्रक्रिया के लिए संसद के कई सत्र चलाए जाते हैं और इसकी कार्यवाही के दौरान सांसदों पर भारी-भरकम धन खर्च किया जाता है। बावजूद इसके पिछले एक दशक से संसद में कार्यवाही के दौरान जनहित के मुद्दों पर शायद ही कभी गंभीर चर्चा होती दिखी हो।
- विकास दुबे