02-Aug-2017 09:55 AM
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संसद से 125 करोड़ जनता की आस जुड़ी है। लोगों को उम्मीद रहती है कि संसद में उनकी समस्याओं पर विचार-विमर्श करके हल निकाला जाएगा। लेकिन, 2014 में जब से नरेंद्र मोदी की सरकार सत्ता में आई है, कांग्रेस ने बार-बार संसद की कार्यवाही को बाधित करने का प्रयास किया है। सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के व्यवहार से लगता है कि उसने अब तक सत्ता से हटना स्वीकार नहीं किया है। वो लगातार विध्वंसक राजनीति को बढ़ावा देती आ रही है।
कांग्रेस के 6 सांसदों ने 24 जुलाई को लोकसभा में जिस तरह का बर्ताव किया उसने पूरे लोकतंत्र को शर्मसार किया है। कांग्रेसी सांसद ने लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन की ओर जिस तरह से कागज फाड़कर फेंका उससे देश की आत्मा आहत हुई है। संसदीय नियमों के तहत महाजन ने भले ही कांग्रेसी सांसदों गौरव गोगोई, के सुरेश, अधीर रंजन चौधरी, रंजीत रंजन, सुष्मिता देव और एम के राघवन को पांच दिनों के लिये सदन से निलंबित कर दिया है, लेकिन इतने भर से क्या उनका कलंक धुल जायेगा ?
लोकसभा में हंगामा होना आम बात हो गयी है। पूरे देश का प्रतिनिधित्व करने वाले लोकसभा के सांसदों के हंगामे और सदन में की जा रही अभद्रता एवं अशालीनता से क्या सन्देश जाता है ये तो हम सब जानते ही है लेकिन इसे शायद हमारे माननीय गण समझ नहीं पाते हैं। इस अशोभनीय घटना के ठीक एक दिन पहले राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने नसीहत दी कि हंगामे के कारण सत्तापक्ष से ज्यादा नुकसान विपक्ष का होता है। शायद कांग्रेसी सांसदों ने इस पर गौर नहीं किया। कांग्रेसी सदस्यों के लिए इस तरह के बेवजह हंगामें का कहीं कोई औचित्य नहीं बनता था कि वे लोकसभा अधिकारियों की फाइलों के कागज फाड़कर अध्यक्ष पर फेंकते, क्योंकि वे जिस मसले पर सदन में चर्चा चाह रहे थे उस पर सरकार भी सहमत थी और खुद अध्यक्ष भी। आखिर जब सरकार गौ-रक्षकों की हिंसक भीड़ का निशाना बन रहे दलितों और अल्पसंख्यकों के मसले पर बहस को तैयार थी तब फिर कांग्रेसी सांसदों को अमर्यादित एवं अनुशासनहीन व्यवहार करने और फाइलें फाडऩे की क्या जरूरत थी?
कांग्रेसी सांसद जिस तरह बेवजह तैश में आए और अशोभनीय आचरण की हद पार कर गए उससे तो यही लगता है कि वे पहले से तय करके आए थे कि सदन में हंगामा ही करना है। इस तरह के पूर्वाग्रह लोकतंत्र को कमजोर ही नहीं, बल्कि शर्मिन्दा भी करते हैं। ऐसा लगता है कि आज देश की आजादी मिले सत्तर वर्ष हो चुके हैं, पर उम्र की दृष्टि से आज भी हमारे अनुभव, हमारा लोकतांत्रिक चरित्र बचकाना है। जबकि लोकतांत्रिक आदर्श हमारे शब्दों में ही नहीं उतरना चाहिए, बल्कि राजनीति का अनिवार्य हिस्सा बनना चाहिए था, उन आदर्शों एवं संसदीय मर्यादाओं को सिर्फ कपड़ों की तरह न ओढ़ा जाये अन्यथा फट जाने पर आदर्श भी चिथड़े कहलायेंगे। लोकतांत्रिक जीवन की सार्थकता को जीवंत करना होगा। तभी हम अच्छे-बुरे, उपयोगी-अनुपयोगी का फर्क कर पाएंगे। जनप्रतिनिधि मार्गदर्शक होता है यानि नेता शब्द कितना पवित्र व अर्थपूर्ण है पर नेता अभिनेता बन गया। नेतृत्व स्वार्थी एवं सत्तालोलुप बन गया। आज नेता शब्द एक गाली है। जबकि नेता तो पिता का पर्याय था। उसे पिता का किरदार निभाना चाहिए था। पिता केवल वही नहीं होता जो जन्म का हेतु बनता है अपितु वह भी होता है, जो अनुशासन सिखाता है, विकास की राह दिखाता है, आगे बढऩे का मार्गदर्शक बनता है और संस्कारों को पोषित करता है। संसद के पिछले सत्रों पर नजर डाली जाए तो जाहिर है कि सत्ता पक्ष और विपक्ष में समन्वय कहीं नजर ही नहीं आ रहा है। इस टकराव ने संसदीय परम्पराओं की तमाम मर्यादाओं को ध्वस्त कर दिया है। एक-दूसरे को नीचा दिखाने की होड़ ने संसद की गरिमा को तार-तार कर दिया है। ऐसा नहीं कि हंगामा पहले नहीं होता था। होता था लेकिन एक सीमा के भीतर। आसन का सम्मान किया जाता था। स्पीकर सुमित्रा महाजन ने इस अभद्रता पर कहा मैं देखना चाहती हूं कि सांसद कितनी अनुशासनहीनता कर सकते हैं, देश भी इनके बर्ताव को देख रहा है। समूचे देश ने इस कृत्य को देखा।
नैतिक जिम्मेदारियों को समझते हुए इस कुकृत्य के लिए क्षमा प्रार्थी होने की बजाय धरना देना इस कहावत की ओर इशारा करता है-एक तो चोरी ऊपर से सीना जोरी गलती भी आपकी और धरना भी आपका। आज जब इसकी आवश्यकता कहीं अधिक है कि कालेघन, नोटबंदी, जीएसटी, किसानों की समस्याओं, भीड़ की हिंसा समेत अन्य अनेक जो भी गंभीर मसले हैं उन सब पर संसद में सार्थक चर्चा हो तब यह साफ दिख रहा है कि विपक्ष की रुचि सरकार को घेरने के नाम पर हो-हल्ला करते रहने में अधिक है। यह संसद की गरिमा से खिलवाड़ करने और साथ ही अपनी जिम्मेदारी से भागने वाला रवैया है। राजनीतिक दल संसद में हंगामा कर केवल अपनी छवि से ही नहीं खेलते, बल्कि वे आम जनता को भी निराश करते हैं। राजनीति और लोकतंत्र के लिए यह शुभ संकेत नहीं कि संसद और विधानसभाएं धीरे-धीरे हंगामा करने का मंच अधिक बनती जा रही हैं। स्वार्थ के घनघोर बादल छाये हैं, सब अपना बना रहे हैं, सबका कुछ नहीं। और उन्माद की इस प्रक्रिया में आदर्श बनने की पात्रता किसी में नहीं है, इसलिये आदर्श को ही बदल रहे हैं, नये मूल्य गढ़ रहे हैं। नये बनते मूल्य और नये स्वरूप का तथाकथित राजनीतिक चरित्र क्रूर, भ्रष्ट, अमानवीय और जहरीले मार्गों पर पहुंच गया है। पर असलियत से परे हम व्यक्तिगत एवं दलगत स्वार्थों के लिए अभी भी प्रतिदिन मिथÓ निर्माण करते रहते हैं।
यह पहला अवसर नहीं है, जब कांग्रेस ने संसद में चर्चा के मार्ग को छोड़कर हिटलरशाही प्रवृत्ति अपनायी है। 2015 के मानसून सत्र के दौरान भी संसद के अंदर कांग्रेस ने अपनी हिटलरवादी मानसिकता दिखाई थी और लगातार कई दिनों तक लोकसभा में हंगामा किया था। जब कांग्रेसी सांसदों की ओर से बार-बार प्लेकार्ड के साथ नारेबाजी से अध्यक्ष सुमित्रा महाजन तंग आ गईं तो, उन्हें 4 अगस्त, 2016 को 25 कांग्रेसी सांसदों को निलंबित करना पड़ा था। फिर भी कांग्रेस ने अपने तेवर ढीले नहीं किये थे। बाकी बचे कांग्रेसी सांसद, अन्य दलों के सासंदों के साथ, सदन परिसर में ही धरने पर बैठ गये और कई दिनों तक प्रदर्शन किया। हैरानी की बात है कि अपनी करतूतों को देखने के बावजूद पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने तब एक बहुत ही निर्लज्ज बयान दिया।
मोदी सरकार पर लगातार विपक्ष की आवाज दबाने का आरोप लगाने वाले राहुल गांधी ने, 27 सितंबर, 2013 को तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उनकी सरकार को सरेआम बेइज्जत कर दिया था। दरअसल उस दिन तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अमेरिका दौरे पर थे। तभी राहुल गांधी, दिल्ली प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अजय माकन के साथ प्रेस क्लब पहुंचे और मनमोहन सरकार द्वारा लाये गये अध्यादेश की प्रतियों को फाड़कर हवा में उड़ा दिया। जबकि दुनिया जानती है कि मनमोहन सिंह सिर्फ प्रधानमंत्री की औपचारिकताएं निभा रहे थे और राहुल और उनकी मां सोनिया के इशारे के बिना सरकार में एक पत्ता भी हिलना नामुमकिन था। संसद के पिछले सत्रों पर नजर डाली जाए तो जाहिर है कि सत्ता पक्ष और विपक्ष में समन्वय कहीं नजर ही नहीं आ रहा। इस टकराव ने संसदीय परम्पराओं की तमाम मर्यादाओं को ध्वस्त कर दिया है।
मीरा कुमार ने कांग्रेसी सांसदों को मार्शल से निकलवाया था
इससे पहले भी कांग्रेसी सांसदों ने तेलंगाना के मुद्दे पर 03 सितंबर, 2013 को भी लोकसभा में जबरदस्त हंगामा किया था। हंगामा इतना अधिक बढ़ चुका था कि लोकसभा अध्यक्ष मीराकुमार को सभी पांच आरोपी सांसदों को सत्र के शेष दिनों के लिये निलंबित करना पड़ गया। लेकिन वो सांसद तब भी मानने के लिये तैयान नहीं हुए और आसन के पास धरना देकर बैठ गये। अंत में मीरा कुमार को मार्शल बुलवाकर सबको सदन से बाहर करना पड़ा। तथ्य ये है कि कांग्रेसी सांसदों की नागवार हरकतों के लिये अब तक लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने वैसा कोई कठोर निर्णय नहीं लिया है, जो पिछले कार्यकाल में स्पीकर मीरा कुमार को करना पड़ा था। अगर कांग्रेस तब भी विपक्ष की आवाज दबाने का राप अलापती है, तो वो उसकी सियासी मजबूरी हो सकती है। लेकिन देश की 125 करोड़ जनता इतनी अबोध नहीं है।
अलोकतांत्रिक व्यवहारों का लंबा इतिहास
जैसा राजा होता है, वैसी ही प्रजा होती है। राहुल जिस परिवारवाद के प्रभाव में राजशाही मानसिकता वाला व्यवहार करते हैं, उनके इशारे और उनके संरक्षण में उनकी पार्टी के सांसद भी वही करतूतें दोहराते हैं। यही कारण है कि आज ही नहीं, यूपीए सरकार के दौरान भी कांग्रेसी सांसद अनुशासन को ठेंगा दिखाते रहे हैं। एक घटना 13 फरवरी, 2104 की है जब लोकसभा में तत्कालीन गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे तेलंगाना राज्य के गठन का बिल पेश कर रहे थे। उसी समय कांग्रेसी सांसद और तेलंगाना के कुछ सांसदों ने एक- दूसरे से मारपीट करने लगे। मामला यहीं शांत नहीं हुआ। तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष मीराकुमार की मेज पर रखा कांच का ग्लास भी तोड़ दिया गया और माइक पर भी प्रहार कर दिया गया। हद तो तब हो गई जब हाथापाई और गुत्थम-गुत्था के बीच कांग्रेसी सांसद एल राजगोपाल ने सांसदों के ऊपर काली मिर्च का स्प्रे छिड़क दिया। तब जाकर लोकसभा अध्यक्ष को आरोपी सांसदों को निलंबित करना पड़ा।
-दिल्ली से रेणु आगाल