02-Aug-2017 09:49 AM
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गुजरात में विपरीत परिस्थितियों में कांग्रेस का झंडा बुलंद करने वाले वरिष्ठ नेता शंकर सिंह वाघेला ने कांग्रेस छोड़ दी है। अपने जन्मदिन के मौके पर उन्होंने कांग्रेस को रिटर्न गिफ्ट में अपना इस्तीफा दे दिया। कांग्रेस के लिए ये झटके पर झटका है और दोनों ही झटके उसे शंकर सिंह वाघेला से मिले हैं। दरअसल राष्ट्रपति चुनाव में गुजरात में हुई क्रॉस वोटिंग के लिए कांग्रेस आलाकमान की नजर में वाघेला ही मुजरिम हैं। पार्टी से काफी समय से नाराज चल रहे वाघेला के ही इशारे पर कांग्रेस और एनसीपी के 11 विधायकों ने क्रॉस वोटिंग की थी। इससे यह साफ हो गया की वाघेला यानी बापू कांग्रेस के लिए हानिकारक हो गए हैं। अब वाघेला के इस्तीफे के बाद प्रदेश में वापसी का ख्वाब देख रही कांग्रेस को जोर का झटका लगा है।
राष्ट्रीय पाक्षिक अक्स ने अपने जून प्रथम अंक में वाघेला के कांग्रेस छोडऩे की संभावना जता दी थी। दरअसल, वाघेला ने कांग्रेस से मोहभंग को लेकर कई बार अपनी स्थिति बदली है लेकिन एक बात पक्की है कि यह कांग्रेस के लिए ज्यादा चिंता की बात है। सभी पार्टियों से घूम फिर कर वाघेला हो सकता है कि भाजपा का दामन थाम लें या फिर राष्ट्रवादी कांग्रेस के साथ अब गठबंधन करें। यह गठबंधन आने वाले चुनाव में भाजपा से ज्यादा कांग्रेस के वोट बैंक में सेंध लगा सकता है। गुजरात चुनाव से पहले कांग्रेस और शंकर सिंह वाघेला का तलाक आगामी गुजरात चुनाव के परिणाम को साफ कर रहा है। वाघेला को हमेशा इस बात का मलाल रहा कि जनसंघ से होने की वजह से कांग्रेस ने कभी उन्हें कांग्रेसी माना ही नहीं।
वाघेला ने महज 16 साल की उम्र में ही आरएसएस ज्वाइन की थी ओर 1970 से वो जनसंघ के साथ जुड़े। जनसंघ के जरिए गुजरात में भाजपा की नींव रखने वाले नेताओं में से हैं वाघेला। जो कि 1996 तक भाजपा के साथ रहे। वाघेला हमेशा कहते हैं कि संघ में काम करते हुए कभी उन्होंने किसी पद का मोह नहीं रखा। हालांकि मैंने अपनी जिंदगी में सभी तरह के पद के पावर देखे हैं। 1996 में राष्ट्रीय जनता पार्टी के जरिये वाघेला पहली बार मुख्यमंत्री बने, एक साल तक मुख्यमंत्री रहने के बाद 1997 में वे कांग्रेस से जुड़ गए। जिसके बाद से गुजरात में कभी कांग्रेस सत्ता पर काबिज नहीं हो पायी। 2004 से लेकर 2009 तक जब केन्द्र में मनमोहन सिंह कि सरकार बनी, तब वे बतौर कपड़ा मंत्री रहे। हालांकि 2009 के चुनाव में बापू लोकसभा चुनाव गोधरा की सीट से हारने के बाद 2012 में वाघेला ने कपंडवज सीट से चुनाव जीत गुजरात कांग्रेस में विधानसभा में विपक्ष के नेता बने। शंकरसिंह वाघेला ओर नरेन्द्र मोदी दोनों की कार्यशैली में काफी समानता है, दोनों का ही ये स्वाभाव रहा है कि जो साथ नहीं वो हमेशा उनके सामने रहते हैं, मतलब निशाने पर रहते हैं। दोनों कि महत्वकांक्षा आसमान पर रहती हैं। दोनों कोई भी निर्णय करने में काफी तेज हैं। दोनों ही दोस्ती ओर दुश्मनी बखूबी निभाते हैं। नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनकर दिल्ली जाने के बाद वाघेला के सामने कोई नहीं है। ना भाजपा में, और ना कांग्रेस में।
वाघेला के कांग्रेस छोडऩे से कांग्रेस को बड़ा झटका लगेगा। पिछले 25 साल से सत्ता के बहार कांग्रेस को इस बार उम्मीद थी कि नरेन्द्र मोदी ओर अमित शाह की गैर मौजूदगी इस बार कांग्रेस को बड़ा फायदा करवा सकती है, साथ ही गुजरात में आज कि विजय रुपानी की सरकार भी ज्यादा कुछ नहीं कर पा रही है, ऐसे में शंकरसिंह वाघेला कांग्रेस के लिये एक बड़ी उम्मीद के तौर पर थे। वाघेला को लोक नेता माना जाता है, गुजरात में ना सिर्फ एक समाज या जाति पर उनका प्रभुत्व है बल्कि गुजरात कि ज्यादातर जाति ओर समाज उनके साथ जुड़े हुए हैं ओर सोशल फेब्रिक भी अच्छी तरह जानते हैं। शंकरसिंह वाघेला अपनी भाषा, लहजा ओर भाषण के जरिये भीड़ जुटाने में माहिर माने जाते हैं, कांग्रेस में वाघेला कि तुलना में ऐसा कोई बड़ा नेता नहीं है। जनसंघ और आरएसएस में होने की वजह से प्रधानमंत्री मोदी ओर अमित शाह के काम करने के तरीकों से अच्छी तरह वाकिफ थे। भाजपा की रणनीति जो समझ कर उसके खिलाफ तुरंत कार्यवाई करते थे। जो कि कांग्रेस के लिये एक बड़ा नुकसान है। वाघेला के साथ-साथ उनके 11 से ज्यादा विधायक समर्थक भी हैं, जो शंकरसिंह वाघेला के कहने पर कांग्रेस छोड़ सकते हैं। ऐसे में कांग्रेस के लिये ये भी एक बड़ा झटका है। क्योंकि कांग्रेस पहले ही मौजूदा सभी विधायकों को चुनाव में टिकट देने का ऐलान कर चुकी है।
कांग्रेस को सबसे बड़ा नुकसान 8 अगस्त को राज्यसभा में होगा। वाघेला अपने समर्थक विधायक के साथ कांग्रेस छोड़ देंगे तो कांग्रेस को गुजरात की राज्यसभा सीट से हाथ धोना पड़ेगा और ये सीट इसलिये भी अहम है क्योंकि इस राज्यसभा की सीट पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के सलाहकार अहमद पटेल चुनाव लड़ते हैं। जाहिर तौर पर गुजरात में कांग्रेस 15 साल से सत्ता का वनवास झेल रही है। कांग्रेस के पास वाघेला के रूप में ही एकमात्र चेहरा ऐसा था जो कि भाजपा को टक्कर देने का दम रखता है। वाघेला गुजरात के कद्दावर नेताओं में से एक माने जाते हैं। उनकी शख्सियत के कई रंग हैं। वो न सिर्फ पीएम मोदी के अच्छे मित्र रहे हैं बल्कि दोनों के बीच सियासी प्रतिद्वंद्विता भी बराबरी की रही है।
हालांकि पीएम मोदी उनका बड़ा सम्मान करते हैं। सियासी तौर पर वाघेला का गुजरात में अपना जनाधार है। गुजरात विधानसभा में वो नेता प्रतिपक्ष हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में जहां कांग्रेस के कई दिग्गज चुनाव में चित्त हो गए तो वहीं वाघेला अपने दम पर जीत कर आए। वाघेला की कांग्रेस में मौजूदगी भर ही भाजपा के लिए मुश्किल का काम करती आई है। इसके बावजूद अगर कांग्रेस वाघेला को पार्टी से बाहर करने का फैसला करती है तो उसके लिए गुजरात चुनाव में बड़ी मुश्किल पैदा होने वाली है।
गुजरात के सियासी घटनाक्रम ने एक बार फिर से कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता पर सवाल खड़े कर दिए हैं। क्योंकि एक ही दिन कांग्रेस के लिए दो झटके लगे। एक तरफ वाघेला पर बवाल से कांग्रेस परेशान थी तब तक पार्टी की वरिष्ठ नेता और कांग्रेस महासचिव अंबिका सोनी ने सभी पदों से इस्तीफा दे दिया। अंबिका सोनी ने हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के प्रभारी के पद से अपना इस्तीफा सौंप दिया। उनके इस्तीफे ने कांग्रेस के भीतर की खींचतान को सतह पर ला दिया है। माना जा रहा है अंबिका सोनी पार्टी में अपनी उपेक्षा से नाराज चल रही थीं। पिछले साल असम विधानसभा चुनाव से ठीक पहले कुछ इसी तरह के हालात थे जब असम कांग्रेस में नंबर दो की हैसियत रखने वाले हेमंत विश्वशर्मा नाराज बताए जा रहे थे। लेकिन, उस वक्त भी राहुल गांधी ने राजनीतिक अपरिपक्वता का परिचय देते हुए वक्त रहते डैमेज कंट्रोल नहीं किया। नाराज विश्वशर्मा कांग्रेस का हाथ छोड़ बीजेपी में शामिल हो गए थे। जनाधार वाले विश्वशर्मा के जाने का असर असम चुनाव में देखने को मिला, लेकिन लगता है कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी अपनी गलतियों से सबक लेने के बजाए गलती पर गलती करते जा रहे हैं। उनकी यही गलती गुजरात विधानसभा चुनाव से पहले पार्टी की लड़ाई को कमजोर कर देगी।
गुजरात में सबसे करिश्माई नेता
कोई निष्ठावान असली कांग्रेसी नेता भी इससे इंकार नहीं कर सकता कि वाघेला गुजरात में उनके सबसे करिश्माई नेता थे जिनके पास बड़ा जन समर्थन और पहचान थी। जनसंघ, राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ, जनता पार्टी, भाजपा, उनकी अपनी पार्टी राष्ट्रीय जनता पार्टी हो या फिर कांग्रेस, वाघेला ने हमेशा अपनी पार्टी और सांगठनिक ढांचे को दरकिनार कर फैसले लिए हैं। आपातकाल के दौरान वाघेला ने गुजरात में जनता पार्टी का दामना थामा और उसका नेतृत्व किया था। उस दौरान उन्होंने इंदिरा हटाओ, देश बचाओ का नारा जमकर बुलंद किया था। जनसंघ और भाजपा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता पर सवाल नहीं खड़े किए जा सकते थे। अस्सी के दशक में जब भाजपा का निर्माण हुआ तो वो गुजरात में भाजपा के संस्थापक सदस्यों में एक थे। वो और नरेंद्र मोदी गुजरात के दूर-दराज इलाकों में मोटरसाइकिल से जाया करते थे। जब भाजपा ने देश में अपनी पहली दो सीटें पाई थीं तब उसमें से एक मेहसाणा की सीट थी और दूसरी सीट आंध्र प्रदेश की हनामकोंडा थी। भाजपा ने तब शंकर सिंह वाघेला को राज्यसभा की सदस्यता देकर उन्हें सम्मानित किया था। वाघेला को गुजरात में लोग बापु भी कहते हैं।
सीएम बनने के लिए महत्वकांक्षा
1995 से पहले उन्होंने भाजपा के लिए गुजरात में जी-तोड़ मेहनत की है। गुजरात भारत में पहला ऐसा राज्य बना जहां भाजपा ने अपने दम पर सरकार बनाई। हालांकि जल्दी ही भाजपा के थिंक टैंक ने फैसला लिया कि अगर कोई पटेल मुख्यमंत्री होता है तो वो भाजपा के लिए राजनीतिक रूप से ज्यादा फायदेमंद होगा। इसकी वजह यह थी कि चुनाव में पटेलों ने भाजपा का भरपूर साथ दिया था। नरेंद्र मोदी उस वक्त गुजरात भाजपा के महासचिव थे और उन्हें भी लगा कि केशुभाई पटेल, शंकर सिंह वाघेला की तुलना में मुख्यमंत्री पद के लिए अधिक जिम्मेवार और फिट होंगे। क्योंकि शंकर सिंह वाघेला अपनी महत्वकांक्षा और व्यक्तिवादिता के लिए जाने जाते थे। शंकर सिंह वाघेला के गुजरात के मुख्यमंत्री बनने का सपना टूट चुका था। छह महीने बाद जब केशुभाई पटेल अमरीका के आधिकारिक दौरे पर गए तब शंकर सिंह वाघेला ने सरकार को अस्थिर करने का प्रयास किया। उन्होंने दावा किया कि 121 विधायकों में से 110 विधायक केशुभाई से नाखुश हैं।
- विकास दुबे