02-Aug-2017 09:23 AM
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हाल ही में मप्र के सीहोर जिले में एक किसान द्वारा अपने घर की दो महिलाओं को बैल की जगह लगाकर खेत जोतने का मामला सामने आया है। इस तस्वीर को देखकर हर तरफ हाहाकार मच गया। प्रदेश में गरीबी और महिलाओं की दुर्दशा पर चर्चा होने लगी। पर इन्हीं दिनों आई विश्व बैंक की इंडिया डेवलेपमेंट रिपोर्ट में कहा गया है कि कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी के मोर्चे पर भारत आज भी बहुत पीछे है। एक सौ इकतीस देशों की इस सूची में हमारा देश एक सौ बीसवें स्थान पर है। विश्व बैंक की यह रिपोर्ट बताती है कि मौजूदा वित्त वर्ष में हमारे देश की आर्थिक वृद्धि दर 7.2 फीसदी रह सकती है। ऐसे में कार्यबल में आधी आबादी की भागीदारी बढ़ाई जाए, तो इस दर में और इजाफा हो सकता है।
लेकिन जिस देश में महिलाओं के श्रम को लेकर इतना बड़ा विवाद खड़ा हो जाता है उस देश में महिला श्रम कैसे बढ़ सकता है। जबकि अनुमान है कि कार्यबल में महिलाओं की हिस्सेदारी बढऩे पर यह वृद्धि दर दहाई के अंक तक जा सकती है। आंकड़े बताते हैं कि भारत में 2005 के बाद से श्रमशक्ति में महिलाओं की भागीदारी घटती जा रही है। यह वाकई विचारणीय है, क्योंकि महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित किए बगैर देश में विकास प्रक्रिया को गति देना मुश्किल है। दरअसल, महिलाएं हमारे समाज का वह बड़ा वर्ग हैं, जो क्षमता और योग्यता तो रखती हैं, पर कई कारणों से पीछे छूट रही हैं। नौकरी में लैंगिक भेदभाव, पारिवारिक जिम्मेदारियां, कार्यस्थल पर असुरक्षा और वरीयता पाने में भी मिलने वाला दोयम दर्जा, कुछ ऐसे कारण हैं, जो कार्यबल में महिलाओं की हिस्सेदारी उस गति से नहीं बढऩे दे रहे, जितनी तेजी से लड़कियों की शिक्षा का आंकड़ा बढ़ा है।
विचारणीय है कि बीते कुछ बरसों में महिला साक्षरता के आंकड़े ही नहीं बदले हैं, उच्च शिक्षा में भी स्त्रियों का ग्राफ चढ़ा है, जिसके चलते कुछ हद तक शिक्षित और आत्मनिर्भर महिलाओं के बढ़ते आंकड़ों ने देश की अर्थव्यवस्था में अपनी भूमिका और भागीदारी सुनिश्चित की है। मगर ये आंकड़े संतोषजनक नहीं कहे जा सकते। एक समय था जब लैंगिक पूर्वाग्रहों के चलते बेटियों की शिक्षा में निवेश नहीं किया जाता था। उनके करिअर को लेकर भी अभिभावकों में इतनी सजगता और जागरूकता नहीं थी। लेकिन अब हालात काफी हद तक बदल गए हैं। 2011 की जनगणना के ताजा आंकड़े बताते हैं कि 2001 से 2011 के दौरान देश में महिलाओं की शिक्षा का स्तर एक सौ सोलह फीसदी बढ़ा है, जो कि एक बड़े बदलाव को रेखांकित करता है। तकनीकी शिक्षा में भी महिलाओं का दखल बढ़ा है। वर्तमान में उच्च शिक्षित हो या अशिक्षित, महानगरों से लेकर गावों तक परिवार का दायित्व संभालने के साथ-साथ अधिकतर महिलाएं अर्थोपार्जन के लिए काम भी कर रही हैं। जहां एक ओर शिक्षित महिलाओं की बड़ी संख्या कॉल सेंटर, आतिथ्य सत्कार क्षेत्र, नागरिक उड्डयन, चिकित्सा सेवा, वस्त्र उद्योग और मीडिया क्षेत्र में काम कर रही हैं, वहीं कम पढ़ी-लिखी और अशिक्षित महिलाओं का बड़ा प्रतिशत कल-कारखानों में कार्यरत है।
आज भारत की अर्थव्यवस्था विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, जिसमें आधी आबादी की भागीदारी की उपेक्षा नहीं की जा सकती। ऐसे में यह सोचने वाली बात है कि लड़कियों के कामकाजी होने के मोर्चे पर हम पीछे क्यों हैं? इसकी मूल वजह महिलाओं की सुरक्षा से जुड़ी चिंता है। आज हमारे परिवेश में जो हालात हैं, उनमें दफ्तर हो या यातायात के साधन, महिलाएं दिन में भी खुद को सुरक्षित महसूस नहीं करतीं। महिलाएं दिन हो या रात सार्वजनिक स्थल पर असुरक्षा और भय से घिरी रहती हैं। ऐसे में लोग अपने घर की महिलाओं को काम पर भेजने से पहले सौ बार सोचने को मजबूर होते हैं।
आधी आबादी अभी भी असुरक्षा के घेरे में
किसी भी देश में कामकाजी महिलाओं की बढ़ती संख्या कई मायनों में बदलाव की द्योतक होती है। लेकिन आज भी विकसित देशों की तरह भारत की श्रमशक्ति में आधी आबादी की भागीदारी अनिवार्य नहीं है। ऐसे कई सामाजिक, पारिवारिक और परिवेशगत कारक हैं, जो तय करते हैं कि काबिल और क्षमतावान महिला भी कार्यबल का हिस्सा बन पाएगी या नहीं। आज भी असुरक्षा और बुनियादी सुविधाओं का अभाव एक बड़ा कारण है, जिसके चलते महिलाएं नौकरी नहीं कर पातीं। हालांकि मौजूदा दौर में हर तरह के व्यावसायिक संगठन स्त्री श्रमशक्ति के मायने समझ रहे हैं। इस बात की स्वीकार्यता भी बढ़ी है कि महिलाएं न केवल कई काम एक साथ करने में माहिर होती हैं, बल्कि अपनी जिम्मेदारी को पूरी तन्मयता से निभाती हैं। लेकिन यह भी सच है कि कई मामले आज भी उन्हें दोयम दर्जे पर ही रखे जाते है। देश के सर्वांगीण विकास के लिए श्रमशक्ति में महिलाओं की भागीदारी बढऩा जरूरी है। साथ ही यह भी आवश्यक है कि उन्हें हर क्षेत्र में सुरक्षा और सम्मान के साथ काम करने का अवसर मिले।
-ज्योत्सना अनूप यादव