02-Aug-2017 09:20 AM
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वर्तमान समय में महाराष्ट्र के हर नागरिक पर 39 हजार 508 रुपये का कर्ज है, जो आने वाले समय में और बढ़ सकता है। राज्य पर इस समय चार लाख 44 हजार करोड़ रुपये का कर्ज है, जबकि हालत यह है कि इस साल के बजट में सरकार ने चार हजार करोड़ का घाटा बताया है।
आंकड़े गवाह हैं कि चाहे शिवसेना-भाजपा की युति सरकार हो या फिर कांग्रेस-एनसीपी की अघाड़ी सरकार हो या फिर अब भाजपा-शिवसेना की फडणवीस सरकार हो हर सरकार के कार्यकाल में राज्य पर कर्ज का बोझ बढ़ता ही गया है। जब पहली बार 1995 में शिवसेना-भाजपा की सरकार बनी थी तो महाराष्ट्र पर 42 हजार 666 करोड़ रुपये का कर्ज था। इसके बाद जब कांग्रेस-एनसीपी की सरकार आई तो कर्ज का यह बोझ बढ़कर 1 लाख 9 हजार 167 करोड़ रुपये हो गया। कर्ज की मूल रकम पर ब्याज जोड़कर यह राशि 1 लाख 19 हजार 425 करोड़ तक पहुंच गई। वर्ष 2014 में जब फिर से भाजपा-शिवसेना की सरकार बनी, तो अब राज्य पर कर्ज का बोझ 4 लाख 44 हजार 71 करोड़ रुपये हो गया है।
वैसे तो हर सरकार यह तर्क देती है कि कर्ज उसे ही मिलता है, जिसमें कर्ज लौटाने की ताकत होती है। यह बात सही भी है। केंद्रीय वित्तीय दिशा निर्देशों के तहत कोई भी राज्य अपनी सकल घरेलू आय के 24 प्रतिशत तक कर्ज ले, तो उसे राज्य की आर्थिक हालत के लिए खतरा नहीं माना जाता। इस नियम के अनुसार महाराष्ट्र की अर्थ व्यवस्था अभी खतरे के दायरे से बाहर है, लेकिन जिस तरह से हालत बदल रहे हैं दबे पांव बढ़ रहे आर्थिक खतरे की तरफ से आंख मूंदकर नहीं रहा जा सकता।
दरअसल जब से केंद्र और राज्य में भाजपा सरकार आई है तब से सुधार कार्यक्रमों और चुनावी वादों को पूरा करने के चक्कर में राज्य की अर्थव्यवस्था पर दबाव बढ़ता जा रहा है। इसके सबसे ज्वलंत उदाहरण हैं 6 हजार 500 करोड़ रुपये की एलबीटी माफी। 700 से 800 करोड़ की टोल माफी। सरकारी कर्मचारियों के लिए 7वें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू करने के लिए 21 हजार करोड़ का बोझ। हाइवे पर शराब बंदी के कारण करीब 7 हजार करोड़ के आबकारी कर का नुकसान। पिछले तीन साल में एक के बाद एक इस तरह के फैसलों से राज्य के खजाने में छेद हो गया है। इन तमाम वित्तीय बोझों के अलावा दो बड़े बोझ और हैं, जिनमें राज्य सरकार के कर्मचारियों के वेतन और पेंशन पर हर साल 95 हजार करोड़ रुपये खर्च होते हैं और सरकार ने जो कर्ज ले रखा है उसका ब्याज ही सालान 25 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा भरना पड़ता है। अब 34 हजार करोड़ की किसान कर्ज माफी का फैसला लेने के बाद राज्य की वित्तीय स्थिरता बनाए रखना सरकार के सामने बड़ी चुनौती है। यह चुनौती इसलिए भी बड़ी है, क्योंकि सरकार की आय लगातार घट रही है। सरकार ने 15 हजार 343 करोड़ उत्पाद शुल्क वसूली का लक्ष्य निर्धारित किया है, लेकिन वसूली केवल 9 हजार 442 करोड़ रुपये की ही हुई है। रोजगार के साथ-साथ स्टैंप ड्यूटी और रजिस्ट्रेशन फीस के रूप में मोटा राजस्व देने वाले गृह निर्माण उद्योग की कमर नोटबंदी ने पहले ही तोड़ रखी थी अब नया रेरा कानून आने से हालत और खराब है। आने वाले दिनों में प्रदेश पर और अधिक कर्ज का बोझ बढ़ेगा।
मुंबई को लगेगा झटका
अगर राज्य का वित्तीय ढांचा चरमराया तो इसका सबसे बड़ा झटका मुंबई को लगेगा, क्योंकि मुंबई में मेट्रो, मोनो, ट्रांस हार्बर लिंक, कोस्टल रोड जैसी परियोजनाएं लटक जाएंगी। उल्लेखनीय है कि केंद्र सरकार की आमदनी में महाराष्ट्र, गुजरात, तमिलनाडु और कर्नाटक का योगदान सबसे ज्यादा है, जबकि उससे सबसे अधिक पैसा उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल और मध्य प्रदेश को मिलता है. महाराष्ट्र अगर केंद्र को 100 रुपये का टैक्स रेवेन्यू देता है, तो उसे 15 रुपये ही वापस मिलते हैं, जबकि बिहार को हर 100 रुपये के योगदान पर 400 रुपये वापस मिलते हैं। दुनिया के किसी भी बड़े मुल्क में ऐसा नहीं होता। मिसाल के लिए, अमेरिका में न्यू जर्सी को हर 100 डॉलर के टैक्स रेवेन्यू पर 60 डॉलर वापस मिलता है। यह अमेरिका के 50 राज्यों में सबसे कम है। वहां न्यू मेक्सिको को हर 100 डॉलर पर 200 डॉलर वापस मिलते हैं, जो सबसे अधिक है। दुनिया के हर बड़े देश में अमीर राज्यों का पैसा गरीब राज्यों को दिया जाता है। इससे गरीब राज्यों का विकास होता है और अमीर राज्यों के साथ खाई पाटने में मदद मिलती है। अर्थशास्त्री इसे कन्वर्जेंसÓ कहते हैं।
-ऋतेन्द्र माथुर