02-Aug-2017 09:12 AM
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बीते दिनों केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय से मांग की कि जम्मू-कश्मीर को मिले विशेष दर्जे पर पुनर्विचार किया जाए। मुख्य न्यायाधीश जस्टिस खेहर की अध्यक्षता वाली एक पीठ में अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल का कहना था कि यह बेहद संवेदनशील और संवैधानिक मामला है जिस पर व्यापक चर्चा की जरूरत है।Ó केके वेणुगोपाल ने यह टिप्पणी एक जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान की। यह याचिका दिल्ली स्थित वी द सिटिजंसÓ नाम की एक गैर-सरकारी संस्था ने दाखिल की है। इस याचिका में संविधान के अनुच्छेद 35ए और अनुच्छेद 370 को यह कहते हुए चुनौती दी गई है कि इन प्रावधानों के चलते जम्मू-कश्मीर सरकार राज्य के कई लोगों को उनके मौलिक अधिकारों तक से वंचित कर रही है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस याचिका पर सुनवाई के लिए तीन जजों की एक पीठ गठित करने की बात कही है जो छह हफ्तों के बाद इस पर सुनवाई शुरू करेगी।
जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में अनुच्छेद 370 पर तो अक्सर सवाल उठाए जाते हैं लेकिन अनुच्छेद 35ए शायद ही कभी चर्चा का विषय बनता है। इसका मुख्य कारण है कि लोगों को इस अनुच्छेद की जानकारी ही नहीं है। यह अनुच्छेद जम्मू-कश्मीर विधानसभा को कई तरह के विशेषाधिकार तो देता है लेकिन इसके चलते वहां के लाखों लोग हाशिए पर भी धकेल दिए गए हैं। अनुच्छेद 35ए और इसके प्रभावों को शुरुआत से समझते हैं। 1947 में हुए बंटवारे के दौरान लाखों लोग शरणार्थी बनकर भारत आए थे। देश भर के जिन भी राज्यों में ये लोग बसे, आज वहीं के स्थायी निवासी कहलाने लगे हैं। लेकिन जम्मू-कश्मीर में स्थिति ऐसी नहीं है। यहां आज भी कई दशक पहले बसे लोगों की चौथी-पांचवीं पीढ़ी शरणार्थी ही कहलाती है और तमाम मौलिक अधिकारों से वंचित है। एक आंकड़े के अनुसार, 1947 में 5764 परिवार पश्चिमी पकिस्तान से आकर जम्मू में बसे थे। इन हिंदू परिवारों में लगभग 80 प्रतिशत दलित थे। यशपाल भारती भी ऐसे ही एक परिवार से हैं। वे बताते हैं, हमारे दादा बंटवारे के दौरान यहां आए थे। आज हमारी चौथी पीढ़ी यहां रह रही है। लेकिन आज भी हमें न तो यहां होने वाले चुनावों में वोट डालने का अधिकार है, न सरकारी नौकरी पाने का और न ही सरकारी कॉलेजों में दाखिले का।Ó
यह स्थिति सिर्फ पश्चिमी पकिस्तान से आए इन हजारों परिवारों की ही नहीं बल्कि लाखों अन्य लोगों की भी है। इनमें गोरखा समुदाय के लोग भी शामिल हैं जो बीते कई सालों से जम्मू-कश्मीर में रह रहे हैं, लेकिन सबसे बुरी स्थिति वाल्मीकि समुदाय के उन लोगों की है जो 1957 में यहां आकर बस गए थे। उस समय इस समुदाय के करीब 200 परिवारों को पंजाब से जम्मू-कश्मीर बुलाया गया था। कैबिनेट के एक फैसले के अनुसार इन्हें विशेष तौर से सफाई कर्मचारी के तौर पर नियुक्त करने के लिए यहां लाया गया था। बीते 60 सालों से ये लोग यहां सफाई का काम कर रहे हैं लेकिन इन्हें आज भी जम्मू-कश्मीर का स्थायी निवासी नहीं माना जाता। ऐसे ही एक वाल्मीकि परिवार के सदस्य मंगत राम बताते हैं, हमारे बच्चों को सरकारी संस्थानों में दाखिला नहीं दिया जाता। किसी तरह अगर कोई बच्चा किसी निजी संस्थान या बाहर से पढ़ भी जाए तो यहां उन्हें सिर्फ सफाई कर्मचारी की ही नौकरी मिल सकती है।Ó यशपाल भारती और मंगत राम जैसे जम्मू-कश्मीर में रहने वाले लाखों लोग भारत के नागरिक तो हैं लेकिन जम्मू-कश्मीर राज्य इन्हें अपना नागरिक नहीं मानता। लिहाजा ये लोग लोकसभा चुनाव में तो वोट डाल सकते हैं लेकिन जम्मू-कश्मीर में पंचायत से लेकर विधानसभा तक किसी भी चुनाव में भाग लेने का अधिकार इन्हें नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता जगदीप धनकड़ बताते हैं, ये लोग भारत के प्रधानमंत्री तो बन सकते हैं लेकिन जिस राज्य में ये कई दशकों से रह रहे हैं वहां के ग्राम प्रधान भी नहीं बन सकते और इनकी यह स्थिति उस संवैधानिक धोखे के कारण हुई है जिसे हम अनुच्छेद 35ए के नाम से जानते हैं।Ó
संविधान और अनुच्छेद 35 ए
अनुच्छेद 35ए की संवैधानिक स्थिति क्या है? यह अनुच्छेद भारतीय संविधान का हिस्सा है या नहीं? क्या राष्ट्रपति के एक आदेश से इस अनुच्छेद को संविधान में जोड़ देना अनुच्छेद 370 का दुरूपयोग करना है? इन्हीं तमाम सवालों को लेकर वी द सिटिजंसÓ ने सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिका दाखिल की है। वैसे अनुच्छेद 35ए से जुड़े कुछ सवाल और भी हैं। यदि अनुच्छेद 35ए असंवैधानिक है तो सर्वोच्च न्यायालय ने 1954 के बाद से आज तक कभी भी इसकी संवैधानिकता पर बहस क्यों नहीं की? यदि यह भी मान लिया जाए कि 1954 में नेहरु सरकार ने राजनीतिक कारणों से इस अनुच्छेद को संविधान में शामिल किया था तो फिर किसी भी गैर-कांग्रेसी सरकार ने इसे आज तक समाप्त क्यों नहीं किया? इस मामले को उठाने वाले लोग मानते हैं कि ज्यादातर सरकारों को इसके बारे में पता ही नहीं था शायद इसलिए ऐसा नहीं किया गया होगा। अनुच्छेद 35ए की सही-सही जानकारी आज कई दिग्गज अधिवक्ताओं को भी नहीं है।
-अक्स ब्यूरो