बिना चाह की राह
02-Aug-2017 08:37 AM 1234782
वेंकैया नायडू देश के अगले उपराष्ट्रपति होंगे अब इसमें कोई शक नहीं है। लेकिन भाजपा में भी बहुत कम लोग ही जानते हैं कि वे फिलहाल उपराष्ट्रपति नहीं बनना चाहते थे। सुनी-सुनाई से कुछ ज्यादा है कि जब पहली बार अमित शाह ने वेंकैया नायडू के सामने उपराष्ट्रपति बनने की बात छेड़ी तो उन्होंने साफ कहा कि वे पांच साल और सक्रिय राजनीति में रहना चाहते हैं, उनकी उम्र अभी सत्तर भी नहीं हुई है। लेकिन प्रधानमंत्री के आग्रह को वे टाल नहीं पाए। संसदीय बोर्ड की बैठक में भी बोर्ड के सदस्यों को बताया कि फिलहाल उनका मन सक्रिय राजनीति में बने रहने का था, लेकिन पार्टी का फैसला उन्होंने हमेशा माना है। नामांकन भरने के बाद भी उन्होंने कहा कि वे अभी पार्टी की ही सेवा करना चाहते थे। उनका मकसद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 2019 में फिर चुनाव जिताने का था, लेकिन जब पार्टी ने उन्हें उपराष्ट्रपति बनाने का फैसला किया तो वो पार्टी के फैसले का सम्मान करते हैं। अब सवाल है कि अगर वेंकैया नायडू फिलहाल उपराष्ट्रपति नहीं बनना चाहते थे तो भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने उन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर क्यों किया! सुनी-सुनाई है कि उत्तर प्रदेश के दलित नेता रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाते वक्त ही तय हो गया था कि इस बार उपराष्ट्रपति किसी दक्षिण भारत के भाजपा नेता को ही बनाया जाएगा। इसके साथ ही आरएसएस की भी एक शर्त थी-वह संघ का स्वयंसेवक जरूर हो। वेंकैया नायडू इन दोनों कसौटियों पर सबसे ज्यादा फिट बैठते थे। वे बचपन से ही संघ के कार्यालय में पले-पढ़े, भाजपा ने हमेशा उन्हें दक्षिण भारत के सबसे जाने-पहचाने चेहरे की तरह प्रोजेक्ट किया। इसके अलावा वरिष्ठ नेताओं में वेंकैया इकलौते हैं जिन्होंने नरेंद्र मोदी की प्रशंसा में कई जुमले गढ़े और उनके साथ-साथ अमित शाह का भी भरोसा जीता। ये बात बहुत कम लोगों को ही याद होगी कि जब वेंकैया नायडू भाजपा के अध्यक्ष थे तब कुछ महीनों के लिए नरेंद्र मोदी उनकी टीम में महासचिव थे। वक्त बदला और वेंकैया को मोदी की टीम में मंत्री बनना पड़ा। वैसे ये जानना कम दिलचस्प नहीं है कि 2014 के आम चुनाव से पहले जब भारतीय जनता पार्टी के अंदर नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए जाने का जो तीन बड़े नेता विरोध कर रहे थे, उनमें वेंकैया नायडू भी एक थे। जाहिर है कि ये विरोध एक तरह से लालकृष्ण आडवाणी के समर्थन के लिए ही था, लेकिन इसी दौरान संघ के नेताओं से हुई कुछ मुलाकातों में वेंकैया नायडू ने नरेंद्र मोदी के प्रति बढ़ते समर्थन को भांप लिया और उनकी वफादारी देखते-देखते नरेंद्र मोदी के साथ हो गई। उनकी वफादारी पर नरेंद्र मोदी का भरोसा जमने की एक पुख्ता वजह भी मौजूद रही है। गोवा में अप्रैल, 2002 में भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक को मोदी इतनी जल्दी नहीं भूले होंगे। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के सामने ये वेंकैया नायडू थे जिन्होंने दमदार अंदाज में मोदी का पक्ष रखा था। हालांकि तब वेंकैया नायडू ने जो किया था वो लाल कृष्ण आडवाणी की रणनीति के तहत ही किया था। लेकिन बाद में नरेंद्र मोदी के प्रति वफादारी निभाने में भी उनसे चूक नहीं हुई। देश का उपराष्ट्रपति राज्यसभा का सभापति भी होता है। उत्तर प्रदेश चुनाव जीतने के बाद भी भाजपा का राज्यसभा में बहुमत नहीं है। वेंकैया करीब बीस साल तक राज्यसभा के सांसद रहे हैं। तीन बार कर्नाटक से और इस बार उन्हें राजस्थान से राज्यसभा का सदस्य बनाया गया था। मोदी और शाह की नजर में वेंकैया से ज्यादा उपयुक्त व्यक्ति कोई और नहीं था जो दक्षिण भारत का हो, संघ से जुड़ा रहा हो, भरोसेमंद हो और राज्यसभा में विपक्ष के दबदबे का तोड़ भी निकाल सके। शायद इसलिए भी प्रधानमंत्री ने ट्विटर पर लिखा था - देश का उपराष्ट्रपति बनने के लिए वेंकैया नायडू सबसे उपयुक्त व्यक्ति हैं। सुनी-सुनाई ही है कि पार्टी के शीर्ष नेतृत्व से वेंकैया को ये भरोसा भी मिला है कि अगर 2019 में भाजपा की सरकार दोबारा बनी तो वेंकैया को उपराष्ट्रपति के बाद देश का राष्ट्रपति भी बनाया जा सकता है। रायसीना में राम भारत को अपना नया राष्ट्रपति मिल गया है। वैसे राष्ट्रपति चुनाव की प्रक्रिया शुरू होने के साथ ही ये साफ हो गया था कि अगले पांच वर्ष के लिए राष्ट्रपति भवन में रामनाथ कोविंद ही विराजमान होंगे। दरअसल, इस हकीकत से विपक्ष और विपक्षी उम्मीदवार मीरा कुमार भी वाकिफ थे। तभी उन्होंने राष्ट्रपति चुनाव को वैचारिक संघर्ष का रूप देने की कोशिश की। उन्होंने इस चुनाव को भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा के विरोधी दलों की गोलबंदी का मौका बनाने का प्रयास किया। लेकिन परिणाम से स्पष्ट है, इसमें उन्हें सफलता नहीं मिली। उल्टे उनके अंदर की कमजोरियां उभरकर सामने आ गईं। नीतीश कुमार तो आरंभ में ही विपक्षी जमावड़े से छिटक गए। अब सामने आए मतदान का संकेत है कि कई राज्यों में विपक्ष अपने सभी सदस्यों को साथ नहीं रख पाया। वहां कोविंद को भाजपा की ताकत से ज्यादा वोट मिले। दरअसल, कोविंद को प्रत्याशी बनाकर भाजपा नेतृत्व ने विपक्षी एकता या 2019 के आम चुनाव के लिए भाजपा विरोधी राष्ट्रव्यापी महागठबंधन बनने की संभावनाओं की हवा निकाल दी। -ऋतेन्द्र माथुर
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