02-Aug-2017 08:33 AM
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सरदार सरोवर बांध के विस्थापित परिवारों का विस्थापन मप्र सरकार के लिए गले की फांस बन गया है। विस्थापन को लेकर पहले तो सरकार की विधानसभा में फजीहत हुई जब विपक्ष की ओर से स्थगन प्रस्ताव पर चर्चा की मांग को सरकार द्वारा ठुकरा दिया गया और हंगामे की वजह से मानसून सत्र दो दिन पहले ही सिमट गया। फिर सुप्रीम कोर्ट द्वारा दी गई विस्थापन की डेट लाइन 31 जुलाई तक भी विस्थापन नहीं किया जा सका। दरअसल सरकार अभी पूरी तरह विस्थापन की व्यवस्था कर ही नहीं पाई है। अभी तक सरकार विस्थापन की व्यवस्था के जो दावे कर रही थी उसकी पोल खुल गई है। स्थिति यह है कि विस्थापन की अव्यवस्था से नाराज विस्थापित गांव छोडऩे को तैयार नहीं हैं। बांध का पानी डूब प्रभावित घरों की दहलीज तक 20 अगस्त के बाद पहुंचना शुरू होगा। तब तक बांध में पानी 131 मीटर तक पहुंचेगा। सरकार ने दावा किया है कि डूब प्रभावित क्षेत्र में सिर्फ सात हजार परिवार शेष रह गए हैं। जिनमें से दो हजार परिवारों ने अपने मकान पुनर्वास क्षेत्र में बनवा लिए हैं। ऐसे में सिर्फ पांच हजार परिवार ही शेष रह गए हैं।
डूब प्रभावित और सरकार आमने-सामने
उधर, डूब प्रभावित और नर्मदा बचाओ आंदोलन के कार्यकर्ताओं का कहना है की करीब 40,000 विस्थापन की आस में हैं। सरकार के बढ़ते दबाव के कारण 31 जुलाई को डूब प्रभावितों ने स्टेट हाईवे-26 कसरावद पुल पार बोधवाड़ा फाटे पर जाम लगा दिया। वहीं, कसरावद पुल पार चिखल्दा में डूब प्रभावित रास्ता रोककर बैठ गए। इधर, नबआं के आह्वान पर डूब गांवों में एक समय चूल्हा नहीं जला। उधर, चिखल्दा में आमरण अनशन पर बैठीं मेधा पाटकर की तबीयत लगातार बिगड़ रही है। एनवीडीए उपाध्यक्ष रजनीश वैश का कहना है कि अब जो भी डूब क्षेत्र को नहीं छोड़ेगा, वह सुप्रीम कोर्ट की अवमानना में आएगा। मकान बनाने के लिए प्रति परिवार 5.8 लाख रुपए दे रहे हैं। पहली किस्त में 1.4 लाख रुपए दिए जाएंगे। इन्हें समय सीमा में क्षेत्र खाली करने का शपथपत्र देना होगा। 4996 परिवार डूब क्षेत्र में ऐसे हैं, जिनके पास बाहर मकान नहीं हैं। ये अस्थाई टीन शेड में कुछ समय रह सकते हैं, लेकिन उन्हें आवास बनाना होगा।
गुजरात के लिए अपनों की बलि
सरकार अभी किसानों की नाराजगी दूर नहीं कर पायी है। दूसरी तरफ नर्मदा विस्थापितों का मामला सरकार के लिए मुसीबत बनता जा रहा है। जिस नर्मदा नदी को लेकर सरकार ने पौधरोपण जैसे अभियान में दो हजार करोड़ रुपये खर्च किए, अब उसी नर्मदा नदी के विस्थापितों को लेकर सरकार के लिए मुसीबत खड़ी हो रही है। अगर नर्मदा बचाओ आंदोलन की माने तो नर्मदा नदी सरदार सरोवर बांध के कारण डूब में आ रहे करीब 40 हजार परिवार और दो लाख लोगों के कारण सरकार मुसीबत में है। वहीं नर्मदा अंचल के धार, बड़वानी और खरगोन इलाके डूब में आ रहा है और करीब दो लाख लोग बेघर होने की कगार पर हैं। हालांकि सरकार विस्थापितों के लिए हर संभव मदद की बात कर रही है, लेकिन विपक्ष कांग्रेस और आम आदमी पार्टी ने सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। इनका आरोप है की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को खुश करने के लिए प्रदेश सरकार अपनों की बलि देने पर तुली हुई है।
विस्थापन में झोल ही झोल
नर्मदा बचाओ आंदोलन की मेधा पाटेकर के अनुसार शासकीय राजपत्र (25-5-2017) के अनुसार 141 गांव के 18386 परिवारों को गांव छोडऩा होगा। इस सूची में गांव में न रहने वाले, दशकों पहले गांव छोड़कर चले गए और बैकवाटर लेवल बदलकर जिन्हें डूब से बाहर कर दिया गया, उनके नाम सम्मिलित हैं, जबकि सालों से निवासरत घोषित विस्थापितों को छोड़ दिया गया है। हकीकत में 1980 के दशक में सर्वेक्षित 192 गांव और एक नगर में बसे 40,000 (चालीस हजार) परिवार सरदार सरोवर बांध की 139 मीटर ऊंचाई से आज बाढ़ की स्थिति में जी रहे हैं। सरदार सरोवर से एक बूंद पानी का लाभ न होते हुए मात्र गुजरात को पानी की जरूरत मानकर, विकास की परियोजना बनाकर, मप्र के जीते जागते गांवों की आहुति देने में शासन ने झूठे शपथपत्र भी दिए और परियोजना को विकास का सर्वोच्च प्रतीक मानकर देश विदेश में घोषित किया। आज स्थिति यह है कि गुजरात ने नहरों का जाल, 35 वर्षों में न बनाते हुए मात्र गुजरात के बड़े शहर और कंपनियों को अधिकाधिक पानी दान करना तय किया।
आज जबकि मोदी शासन में बांध संबंधी तमाम मुद्दों को विशेषत: सामाजिक, पर्यावरणीय पहलुओं को उनमें त्रुटियां ही नहीं धांधली को भी छिपाने, दुर्लक्षित कर बांध को अंतिम ऊंचाई 139 मीटर तक पहुंचाई, तब लाखों लोगों की बलि देने के लिए शासन की तैयारी और पुलिस बल का सहारा साफ नजर आ रहा है। सर्वोच्च अदालत के फैसले का (8-2-2017) भी सुविधाजनक अर्थ लगाकर कोर्ट द्वारा तय किसानों को नए पैकेज से भी आधे से अधिक लोगों को वंचित रखकर मध्यप्रदेश शासन आगे बढऩा चाहती है। उधर आम आदमी की पार्टी के प्रदेश संयोजक आलोक अग्रवाल का कहना है कि पुनर्वास स्थलों पर स्थायी आवास और मूल गांव से स्थानान्तरण की स्थिति बनाने के बदले अस्थायी निवास के नाम पर करोड़ों रुपए के टीनशेड का निर्माण किया गया है, हजारों लोगों को प्रतिदिन 66 रुपए के हिसाब से चार महीने भोजन खिलाने के करोड़ों के ठेके, रास्ते निर्माण के बदले मात्र कुछ दिन टिकने वाली चुरी डालने पर करोड़ों खर्च कर रहे हैं। किसानों- मजदूरों ही नहीं, डॉक्टर्स, दुकानदार या अन्य कारीगरों को भी भाड़े के मकान में चले जाने या 180 फीट चौड़ी टीन शेड में समाने के लिए कह रहे हैं।
हमने भी कफन ओढ़ लिया है
बड़वानी से कोई 80 किमी दूर ग्राम भादल में नर्मदा का पानी तेजी से आगे बढ़ रहा है। यहां लगभग 30 परिवार अब भी गांव में रहते हैं। यहां नर्मदा के साथ ही पहाड़ी नदियां भी ग्रामीणों के लिए खतरा बन रही है। इससे लोगों के घर टापू बन गए हैं। नर्मदा का जलस्तर जैसे ही 122 मीटर को पार करेगा, वैसे ही भादल पानी के अंदर समा जाएगा। डूब प्रभावितों का कहना था कि जब सरकार हमारी जल हत्या करने पर तुल ही गई है तो हमनें भी अब कफन ओढ़ लिया है। चाहे जल समाधि लेना पड़े, लेकिन बिना संपूर्ण पुनर्वास के हम गांव नहीं खाली करेंगे। बांध पर बने 30 दरवाजे हाल में बंद करने के बाद से इसमें जल का संग्रहण स्तर करीब पौने चार गुना बढ़ गया है, जिससे गुजरात में जल की उपलब्धता की समस्या के काफी हद तक हल होने की उम्मीद है। दूसरी ओर मध्यप्रदेश विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता अजय सिंह ने आरोप लगाया है कि सरदार सरोवर बांध के फाटकों के बंद होने से 192 गांवों में 40,000 लोग प्रभावित होंगे। इनके पुनर्वास की कोई योजना नहीं है। गुजरात के फायदे के लिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने मामले पर चुप्पी साध रखी है। उन्होंने आगे कहा कि गुजरात में अगले साल चुनाव होना है और वे किसी भी तरह भुज को पानी देना चाहते हैं और इसके लिए मध्यप्रदेश के विस्थापितों की पुर्नवास की चिंता किए बगैर बांध के फाटकों को बंद कर रहे हैं। नर्मदा नदी पर सरदार सरोवर बांध की नींव रखे जाने के 56 साल बाद विवादित बांध के फाटकों को केंद्र सरकार की अनुमति मिलने के बाद 17 जून को गुजरात सरकार ने बंद कर दिया।
क्या है सरदार सरोवर परियोजना
एशिया में सबसे अधिक लोगों को विस्थापन का दंश देने वाले सरदार सरोवर बांध की आधारशिला वर्ष 1961 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु ने रखी थी और मोदी सरकार ने इस परियोजना को पूर्ण मानते हुए इसके 30 द्वारों को बंद करने की अनुमति दी। केंद्र सरकार की अनुमति के बाद 16 जुलाई को सभी गेट बंद कर दिए गए। गेट बंद होते ही मप्र के 4 जिलों बड़वानी, धार, अलीराजपुर और खरगोन के 178 गांवों के करीब 40,000 परिवारों पर पर खतरा मंडराने लगा।
सरदार सरोवर परियोजना सिंचाई, विद्युत और पेयजल के लाभों हेतु एक बहुउद्देशीय परियोजना है, जो चार राज्यों गुजरात, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और राजस्थान द्वारा संयुक्त उपक्रम के रूप में क्रियान्वित की जा रही है। इस परियोजना के अन्तर्गत गुजरात में नर्मदा नदी पर 1,210 मीटर लंबा और 163 मीटर ऊंचाई पर कॉन्क्रीट गुरूत्व बांध का निर्माण किया गया है। इस परियोजना की सक्रिय भंडारन क्षमता 5,800 मिलियन घन मीटर (4.73 मिलियन एकड़ फीट) और इसकी 458 किमी लंबी पक्की नर्मदा मुख्य नहर द्वारा गुजरात में 17.92 लाख हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि पर वार्षिक सिंचाई करने का प्रावधान है। इसके साथ ही राजस्थान को आवंटित 616 मिलियन घन मीटर नर्मदा जल का संवहन, राजस्थान के बाड़मेर और जालोर जिलों की कृषि योग्य कमाण्ड क्षेत्र की 246 लाख हेक्टेयर भूमि पर वार्षिक सिंचाई करने का प्रावधान है। इस परियोजना के नदी तल विद्युत गृह की निर्धारित क्षमता 1,200 मेगावॉट और नहर शीर्ष विद्युत गृह की निर्धारित क्षमता 250 मेगावॉट द्वारा जल विद्युत का उत्पादन किया जाना प्रस्तावित है।
मोदी को फायदा ही फायदा
बांध की ऊंचाई बढऩे से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का राजनीतिक फायदा तीन गुना हो जाएगा। पहला तो यह कि गुजरात में उन्होंने साबित कर दिया कि वे अपने प्रदेश के कितने बड़े हितैषी हैं। खुद नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए लंबे समय से बांध की ऊंचाई बढ़ाने की मांग कर रहे थे। 2006 में उन्होंने 51 घंटे का उपवास भी रखा था। प्रधानमंत्री बनते ही सबसे पहले उन्होंने गुजरात के हित में फैसला लेते हुए सरदार सरोवर बांध में 17 मीटर ऊंचे दरवाजे लगाने की अनुमति दे दी। इससे गुजरात में उनका कद और बढ़ गया। गुजरात में भाजपा और कांग्रेस दोनों ही खुलकर उनके निर्णय का स्वागत कर रही हैं। सरदार सरोवर बांध के द्वारा उन्होंने महाराष्ट्र और राजस्थान को साधने की भी कोशिश की है। महाराष्ट्र में कुछ समय बाद विधानसभा चुनाव होने हैं। सरदार सरोवर परियोजना से महाराष्ट्र को भी फायदा होना है। यहां पैदा होने वाली 1,450 मेगावॉट बिजली में से 27 फीसदी बिजली महाराष्ट्र को मिलेगी। महाराष्ट्र के पहाड़ी इलाकों की 37 हजार पांच सौ हैक्टेयर भूमि को सिंचाई के लिए जल उपलब्ध हो जाएगा। बांध की ऊंचाई बढऩे से राजस्थान को अच्छे दबाव से पानी मिल सकेगा, इससे वहां के रेगिस्तानी जिले बाड़मेर और जालौर की दो लाख 46 हजार हैक्टेयर भूमि की सिंचाई हो सकेगी। इसके अलावा राजस्थान के तीन शहरों और 1336 गांवों के चार करोड़ लोगों को पेयजल भी उपलब्ध हो सकेगा। अपने इस फैसले से मोदी गुजरात, राजस्थान और महाराष्ट्र में हीरो के रूप में उभरेंगे।
50 प्रतिशत हट चुके वर्तमान में
एनवीडीए का दावा है कि डूब प्रभावित तेजी से अपना विस्थापन कर रहे है। चारों जिलों में बचे परिवारों में से 50 प्रतिशत विस्थापित किए जा चुके हैं। बांधस्थल के एक्जीक्यूटिव इंजीनियर बीएन पटेल बताते हैं अगस्त माह में इसे धीरे-धीरे 130 मीटर तक भर देंगे। इससे ज्यादा पानी आने पर बांध के 30 गेट खोल दिए जाएंगे। इससे मध्यप्रदेश के डूब इलाकों में 2013 के बाढ़ में जो स्थिति बनी थी वो नजारा बन सकता है। सितंबर महीने में इसे पूरी क्षमता (138.68 मीटर) से भरने की कोशिश करेंगे। वे कहते हैं इस बांध से हम सिर्फ गुजरात के 15 जिलों के 3112 गांवों में सिंचाई का पानी ही नहीं पहुंचा रहे हैं बल्कि राजस्थान के दो गांव जैसोर और बाड़मेर जैसे सूखाग्रस्त इलाकों में पानी पहुंचा दिया, जहां कहीं से भी पानी नहीं पहुंच सकता था।
नया नहीं है विवाद
नर्मदा नदी पर सरदार सरोवर बांध परियोजना की अधिकारिक घोषणा 1960 में हुई थी और 1961 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इसकी आधारशिला रखी। तभी से यह परियोजना विवादों में फंसी हुई है। शुरुआती कई सालों तक तो परियोजना से जुड़े हुए तीनों राज्यों (मध्य प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र) में जल बंटवारे को लेकर आपसी सहमति नहीं बन पाने से परियोजना अटकी रही। 1979 में यह मामला नर्मदा जल विवाद प्राधिकरण में पहुंचा जहां तीनों राज्यों में सहमति बनी और 1990 के दशक में विश्व बैंक ने परियोजना के लिए ऋण देने का फैसला लिया। लेकिन डूब प्रभावित लोगों ने नर्मदा बचाओं आंदोलन के तहत परियोजना का विरोध करना शुरू कर दिया। 1991-1994 में पहली बार विश्व बैंक ने किसी परियोजना की समीक्षा करने के लिए अपनी एक उच्च स्तरीय समिति बनाई। जिसने अपनी पड़ताल में यह पाया कि परियोजना से होने वाली पर्यावरणीय क्षति की पूर्ति नहीं की जा सकती इसलिए उसने परियोजना को वित्त उपलब्ध कराने से इनकार कर दिया। इधर नर्मदा बचाओ आंदोलन के समर्थकों ने सुप्रीम कोर्ट में निर्माण रोकने के लिए जनहित याचिका लगा दी। वर्ष 2000 में सुप्रीम कोर्ट ने इस पर फैसला देते हुए कहा कि बांध उतना ही बनाया जाना चाहिए, जहां तक लोगों का पुर्नस्थापन और पुनर्वास हो चुका है।
40 हजार परिवारों का जीवन संकट में
नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता मेधा पाटकर ने आरोप लगाया है कि मध्यप्रदेश सरदार सरोवर बांध के मामले में गुजरात की राजनीतिक गुलामी कर रहा है। गुजरात को फायदा पहुंचाने के लिए 40 हजार परिवारों का जीवन संकट में डाल दिया है। मेधा ने कहा कि बिना पुनर्वास स्थल का पूर्ण विकास हुए ये परिवार वहां जाने को राजी नहीं हैं। यदि बिना पुनर्वास बांध में पानी छोड़ा जाता है तो इन 40 हजार परिवारों की जलहत्या हो जाएगी। बांध के गेट 16 जून को बंद किए थे, तब 55 फीट ऊंचाई के गेट बंद हुए थे। यह निर्णय गलत आंकड़ों पर लिया गया था। मध्यप्रदेश के 192 गांव व नगर प्रभावित क्षेत्र में हैं। पाटकर ने कहा कि प्रदेश सरकार की नर्मदा के किनारे 1600 करोड़ खर्च करके पौधरोपण की योजना है, लेकिन इसके डूब प्रभावितों को पुनर्वास उपलब्ध नहीं कराया है। अफसर डूब प्रभावितों को दबाव बनाकर भगाने की कोशिश कर रहे हैं। अधिकारी दबाव डालकर वचन-पत्र भराने की कोशिश कर रहे हैं। सुप्रीमकोर्ट के निर्देशों का आज तक पालन नहीं हुआ है। पुनर्वास स्थल पर काम बाकी है। वहां निर्माण कामों में भी भ्रष्टाचार हो रहा है। झा आयोग की रिपोर्ट में भी पुनर्वास स्थल पर भ्रष्टाचार बताया है। गुजरात किसानों के पहले कॉरपोरेट को लाभ देने की नीति पर चल रहा है और मप्र भी अनुसरण कर रहा है। यह राजनीतिक गुलामी दर्शाता है। नर्मदा की बूंद-बूंद पर मप्र का हक है।
17 साल, 16
हजार फरमान
मध्य प्रदेश में सरदार सरोवर बांध के डूब प्रभावितों के लिए 16 हजार से अधिक फैसले हुए हैं। विडंबना यह है कि सरकार इनमें से 7 हजार फैसले मानने को तैयार नहीं है। प्रदेश में नर्मदा घाटी का प्रभावित इलाका डूबने के साथ ही न्याय की आस में ये आदेश भी इसी डूब में समाहित होने के कगार पर हैं। सरदार सरोवर बांध के कारण डूब और विस्थापन की त्रासदी झेल रहे नर्मदा घाटी के हजारों वाशिंदों के लंबे संघर्ष के बाद सरकार ने मुआवजे और पुनर्वास की उनकी जायज मांगों को रखने का मंच दिया। नाम दिया शिकायत निवारण प्राधिकरण (जीआरए)। इसके आंकड़ों के मुताबिक, वर्ष 2000 से 2017 तक जीआरए के पास डूब प्रभावितों के 25 हजार 91 मामले दर्ज किए गए। इनमें से अब तक 16 हजार 265 प्रकरणों का निराकरण किया गया। जीआरए के पास अब भी 8 हजार 826 मामले लंबित हैं। पर ताज्जुब की बात यह है कि सरकार ने जीआरए के कई आदेशों के पालन से मुंह मोड़ लिया। नर्मदा बचाओ आंदोलन और इससे जुड़े कार्यकर्ताओं ने सभी डूब प्रभावित गांवों का सर्वे किया है। इसमें सामने आया है कि जीआरए के 7 हजार से अधिक आदेशों को सरकार कोई तवज्जो नहीं दे रही। इनमें जमीन की हकदार महिला खातेदार, वयस्क पुत्र और डूब प्रभावित गांवों की पुनर्बसाहटों में अपनी जमीन गंवा चुके लोग शामिल हैं। जीआरए के कई आदेशों के खिलाफ तो नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण (एनवीडीए) ने हाईकोर्ट में सैकड़ों याचिकाएं लगा रखी हैं। इससे जाहिर होता है कि सरकार जीआरए के आदेशों के बावजूद हजारों भूमिहीन, सीमांत किसान, मजदूरों और पात्र महिलाओं को डूब प्रभावित मानने को तैयार नहीं है।