19-Jul-2017 08:04 AM
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हमारे देश के निर्माताओं की कल्पना में आजादी का अर्थ स्वराज की प्राप्ति तक ही सीमित नहीं था, उनकी भावना तो सुराज की स्थापना करने की थी। सुराज की स्थापना के लिए आजादी के इन 7 दशकों में केंद्र से लेकर राज्य सरकारों तक ने वादों, घोषणाओं और निर्णयों की भरमार लगा दी है, लेकिन सुराज कहीं नजर नहीं आ रहा है। हालांकि मध्यप्रदेश में पिछले 11 साल से इस दिशा में कई क्रांतिकारी कदम उठाए गए हैं। इसका परिणाम यह हुआ है कि मध्यप्रदेश बीमारू राज्य की श्रेणी से बाहर आकर विकास की दौड़ में शामिल हो गया है, लेकिन अभी विकसित राज्य नहीं बन पाया है। इसके पीछे मुख्य वजह है मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की घोषणाओं और कैबिनेट के फैसलों का धरातल पर ना उतरना। आलम यह है कि प्रदेश में घोषणाओं का अंबार लगा हुआ है, मुख्यमंत्री अपनी हर समीक्षा बैठक में घोषणाओं को अमलीजामा पहनाने के लिए अधिकारियों को हिदायत देते रहते हैं, लेकिन स्थिति जस की तस है। अगर मुख्यमंत्री की अब तक की घोषणाओं और कैबिनेट के फैसलों को अमलीजामा पहना दिया गया होता तो मप्र में सुराज नजर आने लगता।
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अपने अब तक के कार्यकाल में शहर, गांव, गली, मोहल्ला, गरीब, किसान, मजदूर, छात्र, महिलायें, कर्मचारी, जाति, वर्ग, धर्म समुदाय, श्रम वर्ग विशेष की पंचायतों में अनगिनत घोषणाएं की है जो आज भी किसी कद्रदान की राह ताक रही हैं। घोषणाओं पर अमल नहीं होने के कारण प्रदेश में कुपोषण, महिला अत्याचार, शिक्षित बेरोजगार, कर्ज में डूबा किसान, लडख़ड़ाती स्वास्थ्य व्यवस्था, स्कूलों में शिक्षक की कमी, अस्पताल में डॉक्टरों की कमी, सड़कों की दुर्दशा और हर विभाग में चरम पर भ्रष्टाचार देखने को मिल रहा है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या यही है सुराज?
यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि शिव राजÓ के 11 सालों में मध्यप्रदेश की तस्वीर और तकदीर बदली है, लेकिन यहां का जरूरतमंद वर्ग आज भी उपेक्षित है। अगर सरकार की घोषणाओं और फैसलों का क्रियान्वयन समय पर हो जाता तो यह तस्वीर और सुनहरी होती। जिन घोषणाओं के दम पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान लगातार चौथी बार सरकार बनाने का सपना देख रहे हैं उनमें से करीब 3,200 घोषणाओं को कद्रदान की तलाश है। दरअसल, पिछले 11 साल से अधिक समय के कार्यकाल में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अपनी लगभग हर सभा और बैठक में किसी न किसी योजना की घोषणा की है। मुख्यमंत्री ने अपने तीसरे शासनकाल में ही अभी तक करीब 3300 घोषणाएं की हैं। इनमें 1500 से अधिक घोषणाएं लंबित हैं। जानकारी के अनुसार, 11 साल में मुख्यमंत्री ने करीब 13,000 घोषणाएं की है। सूत्र बताते हैं कि 11 साल के दौरान हुई कुल घोषणाओं में 3,200 से अधिक अभी तक लंबित हैं। मुख्यमंत्री, मंत्री और भाजपा संगठन सभी घोषणाओं को पूरा करने के लिए अफसरों पर दबाव बना रहे हैं। विभागों के प्रमुख समीक्षाएं कर रहे हैं जिसमें यह बात सामने आ रही है कि बजट की कमी के कारण मुख्यमंत्री की घोषणाएं धरातल पर उतर नहीं पा रही हैं।
कई महत्वपूर्ण निर्णय अधर में
प्रदेश में विकास की अवधारणा को गति देने के लिए समय-समय पर कैबिनेट में कई महत्वपूर्ण निर्णय किए गए। लेकिन वे निर्णय आज तक अधर में लटके हुए हैं। डबरा एविएशन सिटी एयर कार्गो हब की मंजूरी 30 सित. 2008 को मिली थी, लेकिन यह मामला स्पेशल इकोनॉमिक जोन के विकास के बीच दम तोड़ गया। 9 साल बाद भी एयर कार्गो को लेकर कोई काम नहीं हुआ। इकोनॉमिक जोन जरूर बन रहा, लेकिन यह प्रस्ताव फाइलों में उलझा रहा। ग्वालियर में स्पेशल इकोनॉमिक जोन का विकास हुआ, पर एविएशन सिटी एयर कार्गो हब को भूल गए। इकोनॉमिक जोन को ही पर्याप्त माना। एयर कार्गो की डिमांड नहीं उठी तो अफसरशाही ने भुला दिया। इसी तरह 17 जून 2008 को अवैध कालोनी को नियमित करने के प्रस्ताव को मंजूरी दी गई थी। 9 साल में दो बार प्रयास हुए। कुछ कॉलोनियों को नियमित किया गया। इसके बाद वर्ष-2012 के बाद कोई अपडेट नहीं हुआ। नियमों का सरलीकरण किया गया, पर नियमितीकरण नहीं हुआ। दरअसल राजनीतिक दिक्कत, जटिल नियम व बजट की कमी ने मामला लटक गया। 17 अप्रैल 2008 को सरकारी वेबसाइटों के लिए फैसला हुआ था। जिसके तहत राज्य इलेक्ट्रॉनिक विकास निगम को निगम-मंडल-आयोग व सरकारी साइट का संचालन देना था, 9 साल में कोई कदम नहीं उठा। अभी एनआईसी या विभाग संभाल रहे हैं। दरअसल अफसरशाही ने इसे भुला दिया। निगम-मंडल-संस्थानों ने भी रुचि नहीं ली। वहीं आईटी व जीएडी ने इसका पालन नहीं कराया। इसी तरह लघु उद्योग विभाग का अलग से गठन, रतलाम में नमकीन कलस्टर का निर्माण, रानी दुर्गावति समाधि स्थल का उन्नयन सहित कई फैसले कागजों में दफन है।
रोजगार कैबिनेट का क्या हुआ
युवाओं को रोजगार दिलाने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने स्वतंत्रता दिवस पर रोजगार कैबिनेट बनाने की घोषणा तो कर दी, पर हकीकत यह है कि विस चुनाव से लेकर अब तक हुए रोजगार के कई वादे अधूरे हैं। विधानसभा चुनाव के लिए भाजपा का घोषणा पत्र हो या ग्लोबल इंवेस्टर्स समिट 2014 में रोजगार के अवसर की घोषणाएं, इन पर अमल नहीं हो सका है। मुख्यमंत्री ने लाल परेड ग्राउंड में कहा था कि रोजगार की नई संभावनाएं चिन्हित करने और लोगों को रोजगार उपलब्ध कराने रोजगार कैबिनेट बनाई जाएगी, जो रोजगार संबंधी मामलों पर फैसले लेगी। ज्ञात हो कि कृषि कैबिनेट और पर्यटन कैबिनेट का गठन हो चुका है। कैबिनेट की रूपरेखा तय नहीं है। जबकि प्रदेश में बेरोजगारी सबसे बड़ी समस्या बनी हुई है। इस बारे में पूर्व मुख्य सचिव निर्मला बुच का कहना है कि सरकार में कैबिनेट निर्णय लेने की सर्वोच्च शक्ति है, इसलिए निर्णय का पालन नहीं करने का सवाल ही नहीं उठता। निर्णय पर अमल नहीं होना बेहद ही गंभीर है। इसके लिए अफसरशाही जिम्मेदार है। कहीं अमल में दिक्कत है, तो मामला वापस कैबिनेट में जाना चाहिए। यदि कैबिनेट के निर्णय पर क्रियान्वयन नहीं होता तो फिर सरकार का ही कुछ मतलब नहीं बचता। इसके लिए टाइम-लिमिट तय होना चाहिए। निलंबन और बर्खास्तगी तक होनी चाहिए।
केवल कागजी घोषणाएं
विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह का कहना है कि मप्र में पिछले 13 साल से भाजपा सरकार लोक-लुभावन वादे तो कर रही है, लेकिन उसके इरादे नेक नहीं हैं। वह कहते हैं कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान रोजाना एक से अधिक घोषणाएं करते हैं, लेकिन बाद में वहीं भूल जाते हैं। उन्होंने किसानों के लिए दो सैकड़ा से अधिक घोषणाएं कि होंगी, लेकिन एक का भी लाभ किसानों को नहीं मिला है। इसका परिणाम पिछले दिनों किसानों के आंदोलन में देखने को मिल गया है। उधर आम आदमी पार्टी के प्रदेश संयोजक आलोक अग्रवाल का कहना है कि 13 साल में सरकार ने घोषणाओं के अलावा और काम कोई नहीं किए हैं। प्रदेश में जनता बेहाल है। कुपोषण, भुखमरी लोगों की जान ले रही है। किसान अपनी फसले सड़क पर फेंकने को मजबूर हैं और सरकार उन पर गोलियां बरसा रही है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने खेदी को लाभ का धंधा बनाने के नाम पर अरबों रुपए पानी में बहा दिए हैं। जनता की कमाई लुटाने के बाद भी जब मन नहीं भरा तो आनंद विभाग का गठन कर दिया। उन्हें कौन बताए कि आपके सभी विभागों में भ्रष्टाचार चरम पर है। ऐसे में लोगों में आनंद कहां से आ पाएंगा।
वहीं बसपा के विधायक सत्यप्रकाश सखवार कहते हैं कि सरकार ने तो कैबिनेट की बैठक को मौज-मस्ती का जरिया बना लिया है। कभी किसी पर्यटन स्थल पर तो कभी किसी पहाड़ी पर कैबिनेट बैठक करके जनता के पैसे का दुरुपयोग किया जा रहा है। राजधानी की कैबिनेट बैठक में टिफिन पार्टी हो रही है। ऐसे में किसी को घोषणाओं की फिक्र कहां है। हालांकि संसदीय कार्यमंत्री और मध्य प्रदेश सरकार के प्रवक्ता डॉ. नरोत्तम मिश्रा का कहना है कि कैबिनेट में हर निर्णय का पालन प्रतिवेदन आता है, इसलिए ऐसा नहीं होता कि कैबिनेट के निर्णय का अमल नहीं हो। संबंधित विभाग या बजट के स्तर पर कहीं कोई दिक्कत हो तो अलग बात है। इसमें भी देरी हो सकती है, लेकिन कैबिनेट के निर्णयों का क्रियान्वयन होता है।
विपक्ष के आरोपों और सत्तापक्ष के जवाब के इतर हम देखें तो मुख्यमंत्री द्वारा सीएम हाउस में आयोजित कई पंचायतों में की गई घोषणाएं आज भी अधर में हैं। इसका अंदाजा कामकाजी महिलाओं के लिए बुलाई पंचायत की घोषणाओं को देखकर लगाया जा सकता है। शहरी महिलाओं द्वारा बड़े लोगों के घरों में खाना बनाना, झाडू-पोछा, बर्तन साफ करना, कपड़े धोना और उनके बच्चों को संभालने का काम करती है, यह काम 10 से 12 घंटे तक का होता है और श्रम के एवज में वाजिब दाम भी नहीं मिलता है। इन्हीं परेशानियों को देखते हुए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कामकाजी महिलाओं के लिए 2009 में पंचायत बुला कर विशेष प्रावधान करवाए थे लेकिन अफसर इन योजनाओं को पलीता लगाने से नहीं चूक रहे हैं।
मुख्यमंत्री शहरी घरेलू कामकाजी महिला कल्याण योजना में बीते 8 सालों में न ही नए कार्ड बनाए गए और न ही बने हुए कार्डों का नवीनीकरण किया गया। योजना में 65 हजार 495 पंजीयन हुए लेकिन अब तक सिर्फ 985 प्रसूति सहायता दी गई साथ ही जनश्री बीमा योजना के अंतर्गत सामान्य मृत्यु पर 21 परिजनों को सहायता राशि मिली। अंत्येष्टी सहायता 2010 में करीब 7 से 8 को ही मिली बाद में प्रक्रिया के जटिल होने से महिलाओं ने इसका लाभ लेना ही बंद कर दिया गया। इस तरह अन्य पंचायतों में की गई घोषणाएं कागजों में दफन हो रही हैं। ऐसे में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जिस विकसित मध्यप्रदेश की कल्पना देख रहे हैं वह कैसे साकार होगा?
प्रदेश में अब तक नहीं बना मध्यम वर्ग आयोग
14 दिसंबर 2013 को राजधानी के जम्बूरी मैदान में तीसरी बार प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के तुरंत बाद शिवराज सिंह चौहान ने अपनी चार घोषणाओं को अमलीजामा पहनाने के लिए मंच पर ही फाइलों में हस्ताक्षर किए थे। इनमें से एक फाइल मध्यम वर्ग आयोग के गठन से भी संबंधित थी। लेकिन ये आयोग अब तक वजूद में नहीं आ पाया है। कई बार प्रस्ताव बना, सुधरा और मुख्यमंत्री सचिवालय तक गया पर नतीजा सिफर ही रहा। स्थिति ये है कि सामान्य प्रशासन विभाग और सामाजिक न्याय विभाग को पता ही नहीं है कि आयोग बना या नहीं। जबकि, मुख्यमंत्री ने चर्चा में कहा कि हमने आयोग के गठन की कार्रवाई कर दी है। 21 जनवरी 2014 को आयोग के गठन का प्रस्ताव सामाजिक न्याय विभाग के जरिए विभागीय मंत्री गोपाल भार्गव के पास पहुंचा। उन्होंने 28 फरवरी 2014 को फाइल जरूरी कार्रवाई के लिए अपर मुख्य सचिव को भेज दी। 10 जून को दोबारा फाइल मंत्री के पास भेजी और उन्होंने 18 जून को फिर अपर मुख्य सचिव को भेज दी। तब से अब तक ये फाइल नहीं लौटी। 4 जनवरी 2016 को मुख्यमंत्री ने सामाजिक न्याय विभाग की समीक्षा बैठक में एक बार फिर अधिकारियों को निर्देश दिए कि आयोग के गठन की कार्रवाई जल्द पूरी करने के निर्देश दिए। बैठक में मंत्री गोपाल भार्गव और तत्कालीन आयुक्त सामाजिक न्याय डॉ. मनोहर अगनानी भी मौजूद थे। उधर, सामाजिक न्याय विभाग ने मध्यम वर्ग आयोग के लिए अलग से बजट का प्रावधान कर दिया है। इसके लिए मात्र तीन हजार रुपए रखे गए हैं। विभाग ने आयोग के नाम से 7435 नंबर से बजट हेड (मद) भी खोला है।
कैबिनेट के फैसले अधर में लटके
सरकार में निर्णय की ताकत कैबिनेट के पास है, पर उसके फैसलों पर सुस्ती हावी है। कैबिनेट के कई फैसले सरकार लागू नहीं करा सकी। अमल पर समयसीमा तक तय नहीं हुई। जनता परेशान रही और अफसरशाही मस्त। सबसे बड़ा मामला किसानों से जुड़ा है। आत्महत्या के
मामले सामने आते रहे, लेकिन साहूकारी कानून नहीं बन सका। युवा आयोग का गठन भी राजनीतिक रस्साकशी की भेंट चढ़ गया। तकनीकी पेचीदगी भी कम हावी नहीं रही।
राज्य युवा आयोग, मंजूरी - 17 जनवरी 2012 : पांच साल बीते, पर कोई काम नहीं हुआ। अध्यक्ष पद के लिए भाजयुमो के कई नेता लॉबिंग करते रहे। मामला इसी लॉबिंग में अब तक उलझकर रह गया। भाजयुमो व भाजपा के कई नेता अध्यक्ष बनने के लिए लॉबिंग में जुटे। दबाव बना तो प्रशासनिक काम ठंडे बस्ते में चला गया।
गरीबों को स्मार्ट कार्ड, मंजूरी - 09 मई 2011 : मंजूरी मिलने के बाद भी मामला फाइलों में दबा रहा। गरीबों को समग्र योजना के तहत पंजीयन करके यूनिक आईडी नंबर दिए गए। आधार कार्ड बना, लेकिन जिस स्मार्टकार्ड को मंजूरी दी थी, वह ठंडे बस्ते में रहा। स्मार्ट कार्ड बनने की बात आई तो निजी कंपनियों को ठेका दिलाने पर विवाद गहराया। अफसरों के हित टकराए तो मामला अटक गया। बाद में अफसर बदले तो स्मार्ट की जगह समग्र कार्ड आ गया।
साहूकारी कानून, मंजूरी - 21 जून 2011 : पांच साल पहले कानून का प्रारूप जारी हुआ, लेकिन उसके बाद कोई कदम नहीं उठा। नियम व दिशा-निर्देश जारी नहीं हो पाए। सरकार की मंशा पूरी नहीं हुई। व्यवहारिक दिक्कतों के कारण मामला फाइलों में दब गया। किसानों के कर्ज, साहूकारों की मॉनीटरिंग और डाटा संग्रहण नहीं हो पाया। नतीजतन अफसरशाही ने इसे भुला दिया।
56 करोड़ की मशीनों का किराया 168 करोड़
मुख्यमंत्री की मंशानुसार प्रदेश में कंट्रोल दुकानों पर गड़बड़ी रोकने के लिए पाइंट ऑफ सेल (पीओएस) मशीनें लगवाई गईं। लेकिन उसमें भी भ्रष्टाचार हो गया। पूरे प्रदेश की 22403 कंट्रोल दुकानों पर मौजूद ये मशीनें 5 साल के लिए शासन ने दो निजी कम्पनियों से किराए पर ली हैं। एक मशीन का सालाना किराया 14940 होता है और 5 साल के ठेके में एक मशीन का किराया 74700 रुपए चुकाया जाएगा, जबकि एक पीओएस मशीन ही अधिकतम 25 हजार रुपए में आ जाती है। अब शिवराज सरकार 5 साल में किराए पर ली गई इन पीओएस मशीनों के एवज में 168 करोड़ रुपए से अधिक का भुगतान करेगी। अगर इन मशीनों को खरीद लिया जाता तो मात्र 56 करोड़ रुपए की राशि ही खर्च करना पड़ती और मशीनें भी सरकार की हो जातीं। कंट्रोल दुकानदार की गलती से अगर मशीन खराब हुई तो उसके सुधार का चार्ज, यानी खर्चा भी वह खुद भरेगा। 100 करोड़ रुपए से ज्यादा का यह खेल खाद्य विभाग के आला अफसरों ने कर दिखाया। जबकि यह मामला पूर्व में विधानसभा में भी उठ चुका है। खाद्य विभाग ने इन पीओएस मशीनों को यह कहते हुए लगवाया कि इससे कंट्रोल दुकानों पर होने वाली गड़बडिय़ां रुक जाएंगी और किस उपभोक्ता को राशन दिया, इसका भी रिकॉर्ड रहेगा। हालांकि उपभोक्ताओं की शिकायत रही है कि ये मशीनें बराबर काम नहीं करतीं। कई जगह नेटवर्क उपलब्ध नहीं रहता तो कभी तकनीकी खराबी आ जाती है। बहरहाल मशीनें लगवाने का निर्णय तो ठीक है, मगर आश्चर्यजनक रूप से 25-26 हजार रुपए की आने वाली पीओएस मशीनेंभी शासन ने बजाय खरीदने के किराए पर लगवा लीं। इस संदर्भ में कांग्रेस विधायक जयवर्धन सिंह का कहना है कि सरकार सुशासन के नाम पर जनता को चपत लगाने में लगी हुई है। मैंने विधानसभा में इस मामले को उठाया, लेकिन सरकार आज तक किसी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर सकी।
कागजों में दौड़ रहे मिशन
हनुवंतिया में हुई कैबिनेट बैठक में निमाड़ विकास प्राधिकरण के गठन और कई नए मिशन बनाने का निर्णय लिया गया था। जो नए मिशन घोषित किए गए थे उनमें सूक्ष्म सिंचाई, कृषि वानिकी, युवा सशक्तिकरण, स्वास्थ्य और आवास मिशन शामिल हैं। सूक्ष्म सिंचाई मिशन में जल संसाधन, नर्मदा घाटी विकास और कृषि तथा उद्यानिकी विभागों की मदद से सूक्ष्म सिंचाई परियोजनाओं को प्रोत्साहित कर सिंचाई रकबा बढ़ाना था, जिस पर काम नहीं हो पाया है। इसी तरह कृषि वानिकी मिशन में कृषि, उद्यानिकी और वन विभाग के सहयोग से कृषकों की आय को दोगुनी करने के लिए कृषि वानिकी को बढ़ावा देना था जिसकी पोल किसान आन्दोलन ने खोलकर रख दी। युवा सशक्तिकरण मिशन के जरिये युवाओं का कौशल विकास कर रोजगार से जोडऩे के प्रयास के लिए उच्च शिक्षा, तकनीकी शिक्षा, वाणिज्य-उद्योग और रोजगार, सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग तथा पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग को जिम्मेदारी सौंपी गई पर रोजगार और कौशल नहीं मिला। स्वास्थ्य मिशन में अगले पांच वर्ष में शिशु एवं मातृ मृत्यु दर को आधा करने का प्रयास कागजों में हो रहा है। आवास मिशन में तय किया गया कि वर्ष 2022 तक ग्रामीण विकास, नगरीय विकास, आवास तथा राजस्व विभाग सभी आवासहीन को रियायती दर पर भू-खण्ड एवं आवास उपलब्ध कराएंगे और ये विभाग आपस में तालमेल ही नहीं बैठा पा रहे।