18-May-2013 06:32 AM
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उत्तरप्रदेश को प्रधानमंत्रियों का प्रदेश कहा जाता है। हालाँकि अब प्रधानमंत्री पद पर यूपी का एकाधिकार ख़त्म हो गया है किन्तु 2014 के चुनावी नतीजों के बाद प्रधानमंत्री का चयन फिर यूपी से हो सकता है। क्योंकि इस बार प्रधानमंत्री बनने के ख्वाब देख रहे कई चेहरे या तो यूपी से परम्परागत प्रत्याशी हैं या फिर चुनाव लडऩे की तैयारी में हैं। राहुल गांधी, मुलायम सिंह यादव तो चुनाव लड़ते ही हैं प्रियंका गांधी भी इस बार मुकाबले में सोनिया की गैर मौजूदगी के कारण चुनाव लड़ सकती हैं। उधर वरुण गांधी ने एक रैली के दौरान राजनाथ सिंह की तुलना अटल बिहारी वाजपेयी से कर परोक्ष रूप से राजनाथ की दावेदारी भी प्रधानमंत्री पद पर जता दी है। नरेन्द्र मोदी यदि प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी घोषित होते हैं तो वे भी यूपी से चुनावी मैदान में उतर सकते हैं। इस प्रकार कांग्रेस, भाजपा और तीसरे मोर्चे के संभावित प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी यूपी से चुनावी मैदान में होंगे।
वरुण गांधी को लाकर बीजेपी ने यह संदेश तो दिया ही है कि वह यूपी को ज्यादा अहमियत देने जा रही है। साथ ही, यह भी बताने की कोशिश की है कि बीजेपी अब युवा चेहरों को आगे बढ़ा रही है। वैसे, एक बहुत साफ संदेश यह भी है कि बीजेपी में युवाओं के लिए बहुत सारा स्पेस है। यूपी में कांग्रेस के पास अकेले राहुल गांधी हैं। उन्हीं ने वहां सारा दारोमदमार अपने ऊपर ले रखा है। उनकी काट में वरुण गांधी को खड़ा करके चुनावी मुकाबले को राहुल बनाम वरुण गांधी करने की तैयारी की गई है। जिस तरह से राहुल गांधी में कांग्रेस अपना फायदा देख रही है, उसी तरह से वरुण में बीजेपी अपना फायदा तलाश रही है। वैसे भी, राजनीति में फायदे के अलावा कुछ नहीं देखा जाता। राहुल का ज्यादा ध्यान यूपी पर ही है। उनका ज्यादातर वक्त भी वहीं कटता है। वे वहीं से सफल होना चाहते हैं। वैसे, यह बहुत मुश्किल काम है। दो दो बार वे भद्द पिटवा चुके हैं, फिर भी राहुल गांधी को लगता है कि यूपी से ही कांग्रेस को फिर से देश के नक्शे पर सबसे बड़ा सेंटर बनाया जा सकता है। वरुण गांधी यूपी में लगातार सिमटती जा रही कांग्रेस के लिए एक और आफत के रूप में आ गए हैं। लोग तुलना तो करेंगे ही। अब राहुल गांधी की तुलना यूपी में तो कमसे कम सिर्फ और सिर्फ वरुण गांधी से ही होगी। नरेंद्र मोदी से नहीं होगी। इसके अलावा बीजेपी का यह भी मानना है कि राहुल के मुकाबले वरुण ज्यादा अग्रेसिव हैं। राय बरेली, अमेठी, कन्नौज, मैनपुरी ऐसी लोकसभा सीट हो चली हैं जहां से क्रमश: सोनिया गांधी, राहुल गांधी, डिम्पल यादव और मुलायम सिंह यादव जनप्रतिनिधित्व कर रहे हैं। लेकिन जैसे आसार दिख रहे हैं इन खास लोकसभा सीटों में एक नाम और शुमार होने जा रहा है। वह है- सुल्तानपुर। लखनऊ से लेकर सुल्तानपुर तक जिस तरह की राजनीतिक सरगर्मियां हैं उससे एक ओर जहां सुल्तानपुर से वरुण गांधी के चुनाव लडऩे के आसार प्रबल होते जा रहे हैं वहीं अब ऐसी खबरें भी आ रही हैं कि प्रियंका गांधी सुल्तानपुर की सुल्तान बनने के लिए वरुण गांधी को टक्कर दे सकती हैं। सुल्तापुर संसदीय सीट पर कांग्रेस का कब्जा है और दस जनपथ के वफादार संजय सिंह वहां के सांसद हैं लेकिन सच्चाई यह भी है कि 2009 के लोकसभा चुनाव से पूर्व और 1984 के बाद से कांग्रेस यहां कभी जीत हासिल नहीं कर सकी थी। इसका कारण था सुल्तापुरवासियों की गांधी परिवार से नाराजगी। सब कुछ ठीक-ठाक रहा तो भाजपा के फायर ब्रांड नेता और वर्तमान में पीलीभीत से सांसद युवा वरूण गांधी 2014 के लोकसभा चुनाव में यहां से प्रत्याशी हो सकते हैं। इस चर्चा को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता है कि कुछ कांग्रेसी यूपी फतह करने के लिये सोनिया गांधी और राहुल गांधी के बाद प्रियंका गांधी को भी चुनाव राजनीति में उतारने को बेताब हैं और सुल्तानपुर से प्रियंका गांधी को चुनाव लड़ाने की संभावनाएं तलाश रहे हैं। सुल्तानपुर से प्रियंका को चुनाव लड़ाने की संभावनाएं इसलिये भी ज्यादा बढ़ जाती हैं क्योंकि राहुल गांधी का जादू यूपी में चल नहीं रहा है। संकट की इस घड़ी से उबारने के लिये कांग्रेसियों को प्रियंका तुरूप का पत्ता नजर आ रही हैं। बहरहाल, बात वरूण के सुल्तानपुर से चुनाव लडऩे की कि जाये तो संघ को भी इसमें कोई दिक्कत नजर नहीं आ रही है। इसे इत्तेफाक ही कहा जायेगा कि जिस संजय गांधी को इमरजेंसी के बाद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) ने अपने करीब नहीं फटकने दिया था, उन्हीं के पुत्र वरूण गांधी पर संघ खूब प्रेम लुटा रहा है।
वरुण गांधी को सक्रिय करने के पीछे एक रणनीति यह भी है कि इससे गांधी परिवार के सदस्यों के बीच ही जनता की तुलना शुरू हो जाएगी और मोदी बनाम राहुल का युद्ध फिलहाल उत्तरप्रदेश में देखने को नहीं मिलेगा। मोदी को प्रोजेक्ट करने से एनडीए का जो हश्र होने वाला है उसे लेकर भारतीय जनता पार्टी की चिंता गहरी होती जा रही है। हिमाचल, उत्तराखंड, झारखंड और अब कर्नाटक जैसे राज्य भाजपा के हाथ से निकल गए हैं। झारखंड को इस सूची में इसलिए शामिल किया गया है क्योंकि झारखंड में भाजपा नीत सरकार पुन: बनने के आसार कम ही हैं। देखा जाए तो भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने पिछले पांच वर्षों में पाया बहुत कम है खोया बहुत ज्यादा है। उसके विपरीत कांग्रेस ने उत्तराखंड, हिमाचल और कर्नाटक जैसे राज्यों को जीतकर अपनी मजबूती का परिचय दिया है, लेकिन भाजपा और कांग्रेस की दुर्गति जिस तरह से उत्तरप्रदेश में देखने को मिली है उसके चलते चुनावी परिदृश्य को बदलना पड़ेगा और इसी कारण उत्तरप्रदेश में भाजपा-कांग्रेस राष्ट्रीय मुद्दों को केंद्र में रखकर चुनावी समर में कूदना चाह रहे हैं।
उधर भाजपा की फायर ब्रांड नेत्री उमा भारती ने भी उत्तरप्रदेश में अपनी सक्रियता बढ़ा दी है। उमा भारती ने आरोप लगाया है कि आतंकवादियों को संरक्षण देने के मामले में उत्तर प्रदेश सरकार पाकिस्तान से भी आगे निकल गई है। उमा भारती ने समाजवादी पार्टी सरकार की आतंकवाद के आरोपियों के विरुद्ध लगे आरोप को वापस लेने की पहल को खतरनाक बताया है और कहा है कि इसके भयानक परिणाम हो सकते हैं।
प्रशंसा की राजनीति यूपी में
उत्तरप्रदेश में प्रशंसा की राजनीति चल रही है और इस राजनीति के अग्रज है मुलायम सिंह यादव जो कि चुन-चुनकर विभिन्न राजनीतिज्ञों की प्रशंसा कर रहे हैं। हाल ही में उन्होंने आडवाणी की प्रशंसा की थी। प्रशंसा का यह दायरा अब और बढ़ गया है और इसमें जातिवाद भी शामिल कर लिया गया है। कई जातिवादी नेताओं को या जातियों के पुरोधाओं को तलाशकर मुलायम सिंह यादव उनकी खुली प्रशंसा कर रहे हैं। इसका एक मकसद हर जाति के बीच अपनी पकड़ मजबूत करना है। मुस्लिमों को रिझाने के लिए जहां मुकदमे वापस लेने की राजनीति की जा रही है वहीं सपा इस इंतजार में है कि जैसे ही राजा भैया सीबीआई के चंगुल से मुक्त होंगे उनका पुनर्वास कर दिया जाएगा ताकि ठाकुर वोटों पर भाजपा की नजर न पड़े। हाल ही में स्थानीय निकाय के चुनाव में ठाकुर और ब्राह्मणों ने भाजपा के पक्ष में जमकर मतदान किया था इसी कारण समाजवादी पार्टी के कान खड़े हो गए। हालांकि सपा और बसपा ने चुनावों में भाग नहीं लिया था। बहरहाल वरिष्ठ भाजपा नेता आडवाणी की मुक्त कंठ से तारीफ कर उन्होंने जो संकेत दिए, उसका एक परिणाम प्रदेश भाजपा की चित्रकूट बैठक में आडवाणी द्वारा डॉ. राम मनोहर लोहिया की उतनी ही रहस्यमय और खुलेआम प्रशंसा के रूप में सामने आया। हालांकि इसके आधार पर किसी उभरते राजनीतिक समीकरण का अनुमान लगाना जल्दबाजी हो सकती है, मगर इससे यह अंदाजा तो जरूर लगा कि मुलायम सिंह सवर्ण एवं भाजपा समर्थक तबकों में अपनी स्वीकार्यता बनाने की कोशिश में हैं। कोई सत्ताधारी पार्टी अपने कार्यों से समाज के विभिन्न- यहां तक कि प्रतिस्पर्धी तबकों में भी सद्भाव पैदा कर सकती है। मगर लगभग तमाम मोर्चों पर नाकाम दिखती एक सरकार के संरक्षक नेता जब प्रतिस्पर्धी सामाजिक समूहों की भावनाओं को उकेरने में जुटें तो उससे कैसी बेतुकी बातें सामने आ सकती हैं, यह गौरतलब है। सीधे जातियों को गोलबंद करने की रणनीति पर पहले खुलेआम सिर्फ मायावती चलती थीं। लेकिन अब सपा उनका अनुकरण कर रही है। लखनऊ में उसने प्रबुद्ध वर्ग सम्मेलन के नाम ब्राह्मणों को लुभाने की कोशिश की। ब्राह्मणों के प्रशस्ति गान में मुलायम सिंह ये कहने की हद तक चले गए कि मंगल पांडे ने समाजवाद को आगे बढ़ाया! मुलायम अच्छी तरह जानते हैं कि समाजवाद से मंगल पाण्डे का कुछ लेना-देना नहीं था, लेकिन मुलायम को मालूम है कि ऐसा कहकर वे एक तीर से कई निशाने साध सकते हैं इसीलिए उन्होंने ऐसा बयान दिया। अब देखना यह है कि मुलायम का बयान सही दिशा में काम करता है या नहीं।
ज्योत्सना अनूप यादव