22-Jul-2017 07:19 AM
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सियासत की बिसात पर हर पांच साल बाद बुंदेलखंडवासियों को अग्निपरीक्षा के दौर से गुजरना पड़ता है। लेकिन आज तक उन्हें अपना अधिकार नहीं मिल पाया है। दाना-पानी की मुश्किलों के बीच प्राकृतिक आपदा ने उनको टूटने पर मजबूर कर दिया है। पलायन उनकी नियति बनती जा रही है। बैंक और साहूकार के कर्ज तले दबा किसान आत्महत्या कर रहा है, लेकिन बुंदेलखंड को लेकर जो छाती पीटने की तेज आवाजें आ रही हैं। विलाप के सुर सुनाई दे रहे हैं, दरअसल ये उन गिराहों के हैं, जिन्होंने बुंदेलखंड के अकाल को अपने लिए उद्योग बना दिया है। किसानों की चिताओं से इनके घर के चूल्हे दहक रहे हैं। गरीबों-किसानों के लिए दिल्ली-लखनऊ से चला सरकारी इमदाद इनके हिस्से की हरियाली बन रहा है। नेता, अधिकारी, स्वयंसेवी संस्थाएं और कुछ पढ़े-लिखे लोगों का यह गिरोह गिद्ध बनकर पूरे बुंदेलखंड की सूखी काया से खून और मांस नोंच रहा है। तड़पते बुंदेलों की आवाज ना तो दिल्ली सुन पा रही है और ना ही लखनऊ, क्योंकि हिस्सा तो सभी को बंट रहा है।
बुंदेलखंड के बांदा, हमीरपुर, महोबा, चित्रकूट समेत सातों जिलों में ग्रामीणों और किसानों के हालात खराब हैं। दाना-पानी की मुश्किलों के बीच ओलावृष्टि, अकाल और कर्ज ने उनको टूटने पर मजबूर कर दिया है, लेकिन बुंदेलखंड को लेकर विधवा विलाप के जो तेज स्वर सुनाई देते हैं, वो हकीकत में अकाल को उद्योग बना देने वाले उन गिरोहों के हैं, जिन्होंने किसानों की चिताओं से निकलने वाली लपटों को अपने घरों की चूल्हों का आग बना लिया है। पहली नजर में शायद यह समझ में नहीं आए, लेकिन जब आप यायावर की तरह अकेले बुंदेलखंड के चक्कर काटेंगे तो साफ-साफ समझ में आ जाएगा कि यहां की तबाही कुछ गिने चुने लोगों के लिए उद्योग बन गई है। ऐसा उद्योग, जो बिना पूंजी लगाए सरकारी मुलाजिमों के साथ यहां के कुछ पढ़े-लिखे और गैर सरकारी संस्थाओं को चलाने वाले लोगों की तिजोरियां तेजी से भर रहा है। ये गिद्ध किसानों की लाशों का सौदा अपने उद्योग को चलाने वाले रॉ मैटेरियल के रूप में कर रहे हैं। इन लोगों पर दुष्यंत कुमार की यह पंक्तियां - यहां तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियां, मुझे मालूम है पानी कहां ठहरा हुआ होगाÓ- बिल्कुल सटीक बैठती हैं।
दरअसल, बुंदेलखंड को सूखे से ज्यादा तकलीफ सत्ता-सिस्टम के भीतर संवेदानाओं के अकाल ने पहुंचायी है। बुंदेलखंड में सरकारी कुर्सियों को खरीद कर पहुंचने वाले ज्यादातर विभागों के अधिकारी अक्सर दंभी हो जाते हैं। उनका यहां के लोगों, किसानों या ग्रामीणों के साथ ऐसी कोई संवेदना नहीं होती, जिसके जरिए वह बुंदेलखंड की समस्याओं का समाधान करने की मजबूत पहल करें। वे जनसेवा करने नहीं बल्कि नौकरी करने आते हैं और उद्योग से मिले लाभांश को लेकर चले जाते हैं। हां, इस लाभांश का हिस्सा वे अकेले नहीं रखते, इसके परसेंटेज लखनऊ तक बंटते हैं। जाहिर है, बड़ा कारण जनसेवा नहीं बल्कि तबाही से पैदा होने वाला उद्योग है। इस इलाके में बड़े पैमाने पर अशिक्षित किसान, ग्रामीण कुछ पढ़े-लिखे स्वयं सेवियों के हाथों के खिलौने बन गए हैं, जिन्हें यह गिरोह अपने हिसाब से संचालित करता है और ये गरीब समझ नहीं पाते कि उनके जज्बातों की कीमत लगाई जा रही है। उन्हें बेचा जा रहा है। बुंदेलखंड के नाम पर मिलने वाले अरबों के पैकेज को धंधा बना लेने वाले ये लोग नहीं चाहते कि यहां की स्थितियों में कोई सकारात्मक बदलाव हो और यह चलता-फिरता उद्योग उनके हाथों से छिन जाए।
अवैध खनन के कारोबार से जर्जर हुई जमीन
बुंदेलखंड से वैध-अवैध तरीके से अरबों रुपए के बालू और मोरंग का खनन और कारोबार हो रहा है। खनिज विभाग के आंकड़ों को देखें तो बांदा में 190, महोबा में 330, झांसी में 349, चित्रकूट में 141, हमीरपुर में 83, जालौन में 89 तथा ललितपुर में 129 यानी कुल 1311 स्थानों को उत्खनन क्षेत्र घोषित किया गया है। बांदा में 86, महोबा में 327, झांसी में 279, चित्रकूट में 118, हमीरपुर में 78, जालौन में 38 तथा ललितपुर में 98 स्थानों यानी 1024 पर खनन का काम चल रहा है। प्रदेश सरकार को बांदा से 60 करोड़, महोबा से 105 करोड़, झांसी से 70 करोड़, चित्रकूट से 85 करोड़, हमीरपुर से 75 करोड़, जालौन से 65 करोड़ तथा ललितपुर से 50 करोड़ की सालाना आमदनी होती है। जाहिर है, गिने-चुने लोग खनन और खदानों से अरबपति हो रहे हैं तो बुंदेलखंडी अपनी संपदा मजदूर बनकर दूसरों को सौंपने को मजबूर। जिम्मेदार लोग जब इस उद्योग में हिस्सेदार हैं, तो फिर रोक लगाने की उम्मीद किससे की जाए।
-बिन्दु माथुर