22-Jul-2017 07:23 AM
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लोकतांत्रिक और संवैधानिक व्यवस्था में सबसे प्रतिष्ठित पद राष्ट्रपति का है। महामहिम के चुनाव को लेकर आजकल राजनीति गरम है। जिस राष्ट्रपति भवन के मुगल गार्डन में हजारों किस्म और रंगों के फूल खिलते हैं। वह गरिमामय पद जात-पात के कीचड़ में उलझ गया है। राजनीति में दलितवाद को लेकर बेहद उदारता दिखाई जा रही है। दलित शब्द बेहद लोकप्रिय हो चला है। राजनीतिक दल इस पर जरूरत से अधिक सहानुभूति उड़ेल रहे हैं। राजनीति में इस शब्द की महत्ता को देखकर हमें समुद्र मंथन का दृष्टांत सामने दिखता है। दलित शब्द मथानी हो चला है। जबकि कोविंद और मीरा कुमार उस मथानी की डोर बने हैं, कांग्रेस और भाजपा पूरी ताकद से इसे अपनी तरफ खींचने में लगे हैं।
रामनाथ कोविंद हों या फिर मीरा कुमार, दोनों की योग्यता पर सवाल नहीं उठाए जा सकते हैं। राष्ट्रपति उम्मीदवार के लिए भाजपा और कांग्रेस की तरफ से घोषित दोनों उम्मीदवारों पर कभी राजनीतिक कदाचार का आरोप नहीं लगा है। इसमें कोई दो राय नहीं कि दोनों व्यक्तित्व महामहिम की पद और गरिमा के बिल्कुल योग्य हैं। इनकी दक्षता, शिष्टता, योग्यता पर किसी प्रकार की अंगूली नहीं उठाई जा सकती है। लेकिन फिर भी एक सवाल कचोटता है। वो ये कि इस पद पर घोषित उम्मीदवार सर्व सम्मति से होना चाहिए था लेकिन ऐसा न होना किसी दुर्भाग्य से कम नहीं है। जहां तक दलित और अल्पसंख्यक का सवाल है तो इसके पहले भी संबंधित जाति से लोग इस पर आसीन हो चुके हैं। सत्ता और प्रतिपक्ष के पास यह अच्छा मौका था, लेकिन फिलहाल आम सहमति नहीं बन सकी। निश्चित तौर पर दलित, पिछड़ों और समाज के सबसे निचले पायदान के लोगों का सामाजिक उत्थान होना चाहिए। उन्हें समाज में बराबरी का सम्मान मिलना चाहिए। ऐसे लोगों का आर्थिक सामाजिक विकास होना चाहिए। लेकिन राजनीति में जाति, धर्म, भाषा, संप्रदाय
की मनिया कब तक जपी जाती रहेगी, सवाल यह है।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में राष्ट्रपति पद की अपनी गरिमा है। यह संवैधानिक और सम्मानित पद है, जाति, धर्म की गंदी राजनीति में महामहिम को घसीटना गरिमा से भौंड़ा मजाक है। उम्मीदवार किसी जाति, धर्म, रंग का हो उससे क्या फर्क पडऩे वाला है। राष्ट्रपति पद पर कोविंद का चुनाव हो या फिर मीरा कुमार का, देश की व्यवस्था में भला क्या परिवर्तन होने वाला है। महामहिम की कुर्सी पर विराजमान होने वाला व्यक्ति भारतीय गणराज्य एवं संप्रभु राष्ट्र का राष्ट्राध्यक्ष होता है। संवैधानिक व्यवस्था में उसका उतना ही सम्मान और अधिकार संरक्षित होगा जितना इस परंपरा के दूसरे व्यक्तियों का रहा है। दलित शब्द जुडऩे मात्र से उस पद की गरिमा नहीं बढ़ जाएगी।
राष्ट्रपति के संवैधानिक अधिकारों में कोई बदलाव नहीं आएगा। राष्ट्रपति को असीमित अधिकार नहीं मिल जाएंगे। संसद को जो विशेषाधिकार है वह राष्ट्रपति को नहीं है। महामहिम दलितों के लिए कोई अलग से कानून नहीं बन पाएंगे। महामहिम जैसे सम्मानित पद के लिए रामनाथ कोविंद एवं मीरा कुमार का नाम ही स्वयं में पर्याप्त है, उस पर जाति की चाश्नी चढ़ाना क्यों आवश्यक है। क्या कलावती और दलितों के यहां भोजन करने से उनके हालातों में सुधार आएगा। राजनीति का मकसद सिर्फ साम्राज्य विस्तार में हैं। वह अपने हित के अनुसार शब्दों का मायाजाल गढ़ती और उसी के अनुसार प्रयोग करती है। उसे वोट बैंक की राजनीति अधिक पसंद है। जिसकी वजह है राजनीति में जाति, धर्म, भाषा सबसे प्रिय विषय है। लेकिन समय-समय पर यह मंत्र उसके लिए अमृत का काम करता है, लेकिन भारत के राष्ट्रपति के लिए जाति का खेल ठीक नहीं है। दरअसल वोट बैंक की राजनीति ने सारे आचार-विचार जमीन में गाड़ दिये है। अब अपनी जीत के लिए पार्टियां राजनीति की चौसर पर जातियों का खेल खेलती हैं।
2019 के लिए चाल
भाजपा ने 2019 को देखते हुए दलित वोटों को पार्टी के पक्ष में लामबंद करने के लिए यह चाल चली है। भाजपा इससे जहां मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस और दूसरों के मुंह बंद करने में कामयाब रही है वहीं हाल के सालों में कुछ राज्यों में होने वाले चुनाव में दलित वोट बैंक उसके निशाने पर हैं। कोविंद मूलत: उत्तर प्रदेश के कानपुर के परौंख गांव से आते हैं। यूपी दलित मतों के लिहाज से लोकसभा चुनाव में अहम भूमिका निभा सकता है। ऐसी स्थिति में रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाना भाजपा की सोची समझी रणनीति है। ऐसे में कोविंद के मुकाबले मीरा कुमार को उतारना कांग्रेस और प्रतिपक्ष की मजबूरी बन गयी थी। हालांकि चुनाव नजीते जो भी हों, लेकिन कोविंद के सामने मीरा कुमार हर स्थिति में फिट बैठती हैं। भाजपा के लिए पहली बार अपनी राजनीति साधने का मौका मिला, भला उस स्थिति में वह अपने सियासी दांव से कैसे पीछे रह सकती। दूसरी बात कांग्रेस पतन की तरफ बढ़ रही है। भाजपा इसी जरिए कांग्रेस मुक्त भारत, अभियान को आगे जारी रखना चाहती है।
-नवीन रघुवंशी