19-Jul-2017 08:54 AM
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आज देश में भाजपा और नरेंद्र मोदी के बढ़ते कद से पूरा विपक्ष परेशान है। ऐसे में सभी चाहते हैं की इनका पतन हो, लेकिन कैसे? यह किसी को सूझ नहीं रहा है। शायद यही वजह है की मोदी का मुकाबला करने के लिए विपक्ष का जो कुनबा बना है उसके नेताओं में रार हो रही है। हालांकि कुनबे की रार को खत्म करने के लिए विपक्ष ने इस बार बेहतर रणनीति दिखाईं है और महात्मा गांधी के पोते गोपालकृष्ण गांधी विपक्ष की तरफ से उपराष्ट्रपति पद के उम्मीदवार बनाए गए हैं। गोपालकृष्ण गांधी के नाम पर 18 विपक्षी दलों के कुनबे ने मुहर लगाई है। राष्ट्रपति चुनाव में विपक्षी दलों के कुनबे के बिखरने के बाद इस बार कोशिश सबको साथ रखने की थी। गोपालकृष्ण गांधी के नाम को आगे कर इस बार सबको साथ रखने की कही कवायद की गई है।
दरअसल, गोपालकृष्ण गांधी लेफ्ट, टीएमसी के साथ-साथ बाकी विपक्षी दलों की भी पसंद रहे हैं। बंगाल के गवर्नर रह चुके गोपालकृष्ण गांधी लेफ्ट के साथ-साथ ममता बनर्जी की भी पसंद रहे हैं। यहां तक कि जेडीयू ने भी अब गोपाल कृष्ण गांधी के नाम पर अपनी सहमति जता दी है। विपक्ष की बैठक में शिरकत करने जेडीयू के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव गए थे। इसके बाद माना जा रहा है कि सर्वसम्मति से लिए गए इस फैसले के साथ जेडीयू खड़ी रहेगी। भले ही विपक्ष ने उपराष्ट्रपति के लिए उनके नाम का ऐलान किया है। उनके नाम को लेकर चर्चा पहले भी हुई थी। राष्ट्रपति चुनाव के वक्त भी लेफ्ट, टीएमसी, जेडीयू, डीएमके समेत विपक्षी दलों की पसंद गोपालकृष्ण गांधी ही थे। चेन्नई में डीएमके के प्रमुख एम करुणानिधि के जन्मदिन के मौके पर विपक्षी दलों के जमावड़े में इस बाबत चर्चा भी हुई थी। जेडीयू नेता केसी त्यागी ने फस्र्टपोस्ट से बातचीत के दौरान इस बात को कबूल भी किया था कि उस वक्त नीतीश कुमार की मौजूदगी में सभी विपक्षी दलों ने गोपालकृष्ण गांधी के नाम पर सहमति जता दी थी।
बकौल केसी त्यागी अगर उस वक्त ही विपक्ष की तरफ से गोपालकृष्ण गांधी के नाम का ऐलान कर दिया गया होता तो फिर जेडीयू विपक्ष के उम्मीदवार के साथ ही खड़ी होती। लेकिन, ऐसा ना हो सकने के लिए जेडीयू ने सीधे कांग्रेस को जिम्मेदार ठहरा दिया था। जेडीयू को कांग्रेस का ये रुख नागवार गुजरा था। इसके बाद रामनाथ कोविंद के नाम को आगे कर एनडीए ने विपक्षी एकता तार-तार कर दी। नीतीश विपक्ष का साथ छोड़ एनडीए उम्मीदवार रामनाथ कोविंद के साथ खड़े हो गए थे। हालाकि, जेडीयू के अलग रुख के बावजूद जब विपक्षी दलों की बैठक हुई तो उसमें राष्ट्रपति चुनाव को लेकर लेफ्ट ने गोपालकृष्ण गांधी के नाम की भी वकालत की थी। लेकिन, कांग्रेस ने भाजपा के दलित कार्ड का हवाला देकर कांग्रेस की पूर्व सांसद और पूर्व लोकसभा स्पीकर मीरा कुमार को सामने ला दिया। बिहार की बेटी के नाम पर नीतीश को घेरने की कोशिश थी। लेकिन, उनके उपर कोई फर्क नहीं हुआ।
राष्ट्रपति चुनाव में साझा उम्मीदवार के सवाल पर उसमें जैसा बिखराव दिखा, उससे उबरना आसान नहीं था। जदयू द्वारा एनडीए उम्मीदवार रामनाथ कोविंद का समर्थन करने के बाद कांग्रेस से उसकी सार्वजनिक तकरार हुई थी। तब जदयू ने इल्जाम मढ़ा कि कांग्रेस ने अपना प्रत्याशी उतारने की जिद में विपक्षी एकता नहीं बनने दी। कांग्रेस की ये आलोचना भी हुई कि प्रत्याशी चुनने में अग्रिम कदम उठाने के बजाय उसने भाजपा का प्रत्याशी जानने तक इंतजार किया। इस तरह उसने पहल विपक्ष के हाथ से निकल जाने दी। भाजपा ने दलित प्रत्याशी घोषित कर कई विपक्षी दलों का समर्थन हासिल कर लिया। कांग्रेस ने जवाब में मीरा कुमार को उतारा, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी।
वैसे संसद की दलगत सदस्य-संख्या को ध्यान में रखें, तो तमाम विपक्षी एकता के बावजूद गांधी की संभावनाएं धूमिल हैं। उपराष्ट्रपति चुनाव में लोकसभा और राज्यसभा के सदस्य ही वोट डालते हैं। दोनों सदनों को मिलाकर सत्ताधारी एनडीए के पास पर्याप्त बहुमत है। इसलिए जिस तरह मीरा कुमार प्रतीकात्मक लड़ाई लड़ रही हैं, गांधी की स्थिति भी वैसी ही रहने वाली है।
मगर वर्तमान संदर्भ में ऐसी प्रतीकात्मक राजनीति की भी अहमियत है। जब विपक्ष बेहद लचर अवस्था में हो और उसकी भूमिका सत्तापक्ष के कदमों पर प्रतिक्रिया जताने भर की रह गई हो, तब 18 पार्टियों के एक मकसद के लिए इक_ा होने का दूरगामी महत्व हो सकता है, बशर्ते पहल करने की इच्छाशक्ति उनमें आगे भी बनी रहे। यह तभी संभव है, जब सचमुच इन दलों में समान उद्देश्य भावना हो। इसके लिए उन्हें तुच्छ स्वार्थों से उबरना होगा। फिलहाल, एक गैर-राजनीतिक व्यक्ति के नाम पर सहमत होकर उन्होंने अपने समर्थकों में आस जगाई है। लेकिन ये उम्मीद क्षणिक भी हो सकती है। बिहार में महागठबंधन जैसे संकट में है तथा कई दूसरे राज्यों में इन पार्टियों के बीच आपसी अंतर्विरोध जितने तीखे हैं, उसके मद्देनजर राष्ट्रीय स्तर पर एकजुट एवं सशक्त विपक्ष का उभरना आसान नहीं है। चेहरा तथा विश्वसनीय राजनीतिक कथानक पेश करने की समस्या अलग है। जब तक ऐसा नहीं होता, विपक्ष के लिए नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा को चुनौती देना टेढ़ी खीर बना रहेगा। फिलहाल, यही कहा जा सकता है कि विपक्ष ने एक
सार्थक कोशिश की है। विपक्ष की इस
कोशिश का भाजपा कैसा जवाब देगी, यह देखने लायक होगा।
खतरों के खिलाड़ी हैं नीतीश कुमार
विपक्ष ने जैसे-तैसे नीतीश कुमार को अपने कच्चे धागे में बांध तो लिया है, लेकिन खतरों के खिलाड़ी नीतीश कभी भी कोई बड़ा फैसला ले सकते हैं। 2014 में एनडीए से अलग होने के नीतीश कुमार के फैसले में बड़ा रिस्क था। राष्ट्रीय स्तर पर अपनी राजनीतिक भूमिका तलाशने में नीतीश ने ये रिस्क लिया। बिहार में महादलित के नए फॉर्मूले के साथ सोशल इंजीनियरिंग करके वो एक नया प्रयोग कर रहे थे। लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव के नतीजों ने उनके फॉर्मूले को फेल कर दिया। 2009 में 20 सीटें लेकर आने वाली जेडीयू 2014 में सिर्फ 2 सीटों पर सिमट गई। इस हार के बाद नीतीश कुमार के लिए नई राजनीतिक संभावनाएं तलाशनी जरूरी हो गई। 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में उन्होंने एक और बड़ा रिस्क लिया। लालू विरोध की जिस राजनीति के बूते उन्होंने बिहार की सत्ता पाई थी बदली परिस्थितियों में उन्हीं के साथ दोस्ती कबूल करनी पड़ी। आरजेडी से दोस्ती का रिस्क लेना इस बार कामयाब रहा। आगे नीतीश कोई और कदम उठा सकते हैं। अगर नीतीश अब भाजपा के साथ जाते हैं तो सीधे-सीधे उनके वोट बैंक में सेंध होगी। नीतीश का अपना कद कमजोर होगा। क्योंकि जिन लोगों ने मोदी के चेहरे को तिलांजलि देकर बिहार विधानसभा चुनावों में नीतीश को वोट किया था वो अगले चुनावों में भाजपा और मोदी की ओर झुकेंगे। नीतीश कुमार के लिए ये अपना जनाधार खोने जैसा होगा।
गांधी की उम्मीदवारी के मायने
अब उपराष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी के वक्त विपक्ष की तरफ से और खासतौर से कांग्रेस की तरफ से गलती सुधारने की कोशिश हो रही है। इस बार एनडीए के उम्मीदवार के नाम का ऐलान करने से पहले ही विपक्ष ने गोपालकृष्ण गांधी के नाम का ऐलान कर दिया है। कांग्रेस राष्ट्रपति पद के लिए नीतीश की पसंद गोपालकृष्ण गांधी को अब उपराष्ट्रपति के पद के दावेदार के तौर पर सामने ला दिया है। लेकिन, संदेश सिर्फ इतना भर नहीं है। इस बार विपक्ष के भीतर की खींचतान में भी गैर-कांग्रेसी विपक्षी दलों ने बाजी मार ली है। गोपालकृष्ण गांधी लेफ्ट, टीएमसी और जेडीयू की पसंद हैं। लिहाजा राष्ट्रपति चुनाव की तरह इस बार कांग्रेस की पसंद को बाकी विपक्षी दलों पर नहीं थोपा जा सका है। विपक्षी दल भी इस बात को समझते हैं कि संख्या बल उनके पास नहीं है। उपराष्ट्रपति चुनाव में उनकी लड़ाई महज औपचारिकता के लिए है। लेकिन, इसमें संकेत सख्त है। बीजेपी को चुनौती देने की कोशिश है और इस चुनौती के लिए महात्मा गांधी के पोते को सामने लाकर सांकेतिक बढ़त बनाने की कवायद हुई है। लेकिन, अब बीजेपी के दांव का सबको इंतजार होगा। कहीं इस बार भी मोदी-शाह की गुगली विपक्षी कुनबे की एकजुटता को धराशायी ना कर दे।
- अजयधीर