19-Jul-2017 08:43 AM
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पद्रह साल बाद एक बार फिर अमरनाथ जाने वाले यात्रियों पर आतंकवाद का कहर टूटा है। आतंकियों ने हमला कर पांच महिलाओं समेत सात व्यक्तियों की हत्या कर दी और दो दर्जन लोगों को घायल कर दिया। श्रद्धालु गुजरात के थे और एक बस में सवार होकर जम्मू लौट रहे थे। इससे पहले आतंकियों ने सन 2000 में पहलगाम में तीस तीर्थयात्रियों की हत्या की थी। पुलिस ने ताजा हमले के पीछे पाकिस्तान से अपनी कारगुजारियां करने वाले लश्कर-ए-तैयबा के आतंकी अबु इस्लाम का हाथ बताया है। अमेरिका और जर्मनी समेत दुनिया के कई देशों ने इस हमले की निंदा की है। घटना की गंभीरता को देखते हुए गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल के साथ स्थिति की समीक्षा के लिए आपात बैठक की। सुरक्षा एजेंसियों ने पहले ही अमरनाथ यात्रियों पर आतंकी खतरे के बारे में आगाह किया था। खुफिया रिपोर्टों के बाद ही सेना, पुलिस और अद्धसैनिक बलों के अस्सी हजार जवानों को तैनात किया गया था।
विडंबना यह है कि हमलावर इतनी कड़ी सुरक्षा व्यवस्था को भेदने में कामयाब हो गए। हालांकि प्रशासन की ओर से कहा गया है कि जिस यात्री बस पर हमला हुआ, वह अमरनाथ यात्रा के जत्थे में शामिल नहीं थी और न ही उसे इस यात्रा के लिए पंजीकृत कराया गया था। अगर ऐसा था भी, तो पुलिस को बचने का कोई बहाना नहीं मिल जाता। अलबत्ता यह जवाबदेही जरूर तय होनी चाहिए कि आखिर छप्पन यात्रियों से भरी बस किसकी इजाजत से वहां तक पहुंची। जैसा कि बस के मालिक ने कहा कि उसने आरटीओ से परमिट लिया था। मगर दिक्कत यह है कि बस जिस व्यक्ति के नाम से पंजीकृत है वह कोई और है, तथा जो संचालन कर रहा है वह कोई और है। पहली नजर में तो यह परिवहन विभाग में पसरे भ्रष्टाचार का भी एक नमूना है। राजमार्ग पर पुलिस की ओर से शाम सात बजे तक ही यात्री-बसों को सुरक्षा दी जाती है। उसके बाद यात्री-बसों को ले जाने की अनुमति नहीं है। यानी बस संचालक ने तीर्थयात्रा के नियमों की अनदेखी की, और रात आठ बजे के बाद वह बस ले जा रहा था।
एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने कहा है कि आतंकियों के निशाने पर पुलिस और सेना के जवान थे, यह यात्री-बस तो दुर्भाग्यवश चपेट में आ गई। हुआ यों कि मोटरसाइकिल पर सवार तीन आतंकियों ने आठ बज कर दस मिनट पर पहले सुरक्षा बलों के बंकर पर हमला किया। जवाबी कार्रवाई हुई, जिसमें कोई घायल नहीं हुआ। इसके बाद आतंकियों ने पुलिस की एक दूसरी टुकड़ी पर गोली चलाई। पुलिस की ओर से फायरिंग हुई तो आतंकी भागने लगे। इसी दौरान बस वहां से गुजरी तो आतंकियों ने बस पर अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी। इस मामले में सबसे बड़ा सवाल बार-बार यही उभर रहा है कि राज्य और केंद्र की तरफ से कई बार यह दावा किया गया कि सुरक्षा के इंतजाम पुख्ता हैं। ऐसे में एक यात्री-बस बिना किसी रोक-टोक के, और वह भी नियम-विरुद्ध, वहां तक पहुंच गई तो इससे यह भी साबित होता है कि पुलिस और प्रशासनिक तंत्र में समन्वय की कमी है, एक विभाग का दूसरे विभाग से अपेक्षित तालमेल नहीं है। अगर यह बस अवैध रूप से दाखिल हुई, तो इसकी जांच कहीं भी क्यों नहीं की गई?
जम्मू-कश्मीर में हुए किसी आतंकवादी हमले की निंदा घाटी के अलगाववादी नेता भी करें, तो समझा जा सकता है कि वो घटना कितनी जघन्य होगी। दहशतगर्दों ने अनंतनाग के करीब श्रीनगर-जम्मू राजमार्ग पर अमरनाथ तीर्थयात्रियों से भरी बस को निशाना बनाया, यह जानते हुए भी कि उसमें महिलाओं सहित ऐसे निहत्थे लोग सवार थे, जो दुर्गम रास्तों पर भारी कष्ट झेलते हुए अपनी आस्था के सुमन अनोखे शिवलिंग पर चढ़ाकर लौटे थे। इस बर्बरता ने सारे देश को झकझोर दिया है। मगर यहां ये बात अवश्य ध्यान में रखनी चाहिए कि रक्त पिपासु जालिम तत्वों से इससे बेहतर कुछ उम्मीद करना निरर्थक है। इसलिए इस दुख की घड़ी में भी इस घटना से संबंधित दो पहलुओं को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। पहली बात यह कि बस संचालक और उसमें सवार यात्रियों ने अशांत क्षेत्रों में अपनाए जाने वाले सुरक्षा के मानक नियमों का उल्लंघन किया। केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल ने कहा है कि निशाना बनी बस तीर्थयात्रा के कारवां का हिस्सा नहीं थी। यानी इसका पंजीकरण नहीं था। बस में मौजूद यात्रियों ने अमरनाथ यात्रा दो दिन पहले पूरी कर ली थी। उसके बाद श्रीनगर चले गए थे। सोमवार शाम बस बिना पुलिस सुरक्षा के श्रीनगर से जम्मू जा रही थी। यानी बस ने सात बजे शाम के बाद ना चलने के नियम का उल्लंघन किया। इसकी घातक कीमत चुकानी पड़ी। आतंकवाद प्रभावित क्षेत्रों में ऐसी लापरवाहियां अक्सर खतरनाक साबित होती हैं।
बहरहाल, दूसरा पहलू इससे भी ज्यादा गंभीर है। सरकार और सुरक्षा बल सिर्फ यह कहकर अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते कि यात्रियों ने सुरक्षा कायदों की अनदेखी की। क्या ये घटना यह जाहिर नहीं करती कि हिफाजत का ऐसा माहौल बनाने में स्थानीय प्रशासन नाकाम है, जिससे लोग निर्भय और निश्चिंत होकर कश्मीर में घूम सकें? आतंकवादियों और उन्हें पनाह देने वाले लोगों पर शिकंजा कसने में राज्य की महबूबा मुफ्ती सरकार पूरी तरह अप्रभावी साबित हुई है। कश्मीर घाटी में आम हालात क्यों बहाल नहीं हो रहे हैं, देश के लोग यह सवाल केंद्र से पूछेंगे। देशभर के लोगों ने कश्मीर मसले पर केंद्र और राज्य सरकारों के हर कदम का पुरजोर समर्थन किया है। लेकिन अब वे नतीजा चाहते हैं। आखिर आतंकवादियों और अलगाववादियों को सख्ती से कुचलने और सीमापार बैठे उनके आकाओं के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई के लिए देश को कब तक इंतजार करना पड़ेगा? एनडीए सरकार के केंद्र की सत्ता में आने के बाद बेशक आतंकवाद से निपटने के तौर-तरीके बदले हैं। इसकी ही एक मिसाल सेना के एक वाहन में आत्मरक्षा में बांधे गए पत्थरबाज को दस लाख रुपए मुआवजा देने के जम्मू-कश्मीर मानवाधिकार आयोग के निर्देश को केंद्र द्वारा ठुकरा देना है। लेकिन ऐसे इरादों की सार्थकता तभी बेहतर ढंग से सिद्ध होगी, जब जमीनी हालात बदलें। तीर्थयात्रियों पर हुए ताजा हमले के मद्देनजर फिलहाल ऐसे बदलाव का भरोसा नहीं बंधता। यह दुर्भाग्यपूर्ण है।
कश्मीर के बारे में एक और तथ्य प्रचारित किया जाता है कि वहां हालिया महीनों में हुई हिंसक घटनाओं के पीछे पाकिस्तान है। यह सत्य है, किंतु पूर्ण-सत्य नहीं। हां, यह सच है कि पाकिस्तान कश्मीर में अशांति में ही अपना हित देखता है और आतंकियों की जब-तब घुसपैठ भी कराता रहता है, लेकिन हम इस तथ्य से भी इनकार नहीं कर सकते कि हालिया दौर में वहां बुरहान वानी (जो पिछले साल सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ में मारा गया) जैसे दिग्भ्रमित आक्रोशित युवा भी आतंकी मुहिम चला रहे हैं। इन कश्मीरी युवाओं को लगता है कि भारत में उनके लिए कोई जगह नहीं क्योंकि उन्हें जॉब नहीं मिलता और यदि वे देश के किसी और हिस्से में पढ़ाई-लिखाई या कारोबार के सिलसिले में जाते हैं तो उन्हें वहां से खदेड़ दिया जाता है। मसलन, उत्तराखंड के एक हिल स्टेशन मसूरी में स्थानीय दुकानदार संघ ने कश्मीरियों को वर्ष 2018 तक अपना बोरिया-बिस्तर समेटकर वहां से चले जाने का अल्टीमेटम दिया है। यदि ऐसा ही चलता रहा तो कश्मीरियों में अलगाव का भाव और बढ़ेगा और फिर हमारे पास हिंसा को शांत करने की एक ही रणनीति बचेगी- सैन्य शक्ति का सतत
इस्तेमाल, जैसा कि इसराइल वेस्ट बैंक या गाजा पट्टी में फलस्तीनियों के खिलाफ करता है। लेकिन एक बहुलतावादी और बहुदलीय लोकतंत्र में ऐसी रणनीति के भी अपने जोखिम हैं। क्या हम वाकई कश्मीर की समस्या का समाधान चाहते हैं और यदि हां तो हमारी रणनीति क्या होनी चाहिए? हम यह मानते हैं कि कश्मीर में जारी ज्यादातर समस्याओं का कारण पाकिस्तान है।
आतंक पर प्रहार का सही समय
सेना और सुरक्षा बलों ने बड़े पैमाने पर आतंकवाद विरोधी अभियान चलाया है। उनका उद्देश्य लश्कर-ए-तैयबा के आतंकवादी इस्माइल को बेअसर करना था। इस्माइल लश्कर-ए-तैयबा के आतंकवादी बशीर लश्करी की हत्या के जवाब में घाटी में आतंकवादी हमले का नेतृत्व कर रहा है। आतंकवादियों पर सुर्खियों में रहने के लिए हाई प्रोफाइल हमलें करने का दबाव लगातार बढ़ रहा है। आतंकवादियों और पत्थर फेंकने वाले युवाओं के पीठ पर कुछ बौद्धिक लोगों का हाथ है। इनमें से कुछ ने तथाकथित आजादी की लड़ाई के नाम पर आतंकवादी हमलों को सही साबित करने की कोशिश की है और कुछ ने पत्थर फेंकने वाले युवकों का साथ विरोध के नाम पर दिया है। सुरक्षा बलों का मानना है कि पत्थर फेंकने वाले युवकों पर छर्रों के इस्तेमाल पर रोक और मेजर लेतुल गोगोई द्वारा चुनाव आयोग के अधिकारियों की रक्षा करने के मकसद से एक कथित पत्थरबाज को जीप की बोनट पर बांधने की घटना के बाद हुए हल्ला हंगामें के बाद उनके मनोबल में गिरावट आई है। अत: यह समय आतंक पर प्रहार के लिए एकदम सही है।
अनंतनाग हमले का मास्टरमाइंड सुरक्षा बलों के टारगेट पर
अमरनाथ यात्रियों की बस पर हुए आतंकी हमले के मास्टरमांइड माने जा रहे आतंकी इस्माइल को ढूंढने के लिए सुरक्षा एजेंसियों ने एक बड़ा सर्च अभियान शुरू किया है। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार इस्माइल को ढूंढने के लिए विशेष तौर पर दक्षिणी कश्मीर में सक्रिय अभियान चलाया जा रहा है। सेना के अधिकारियों का कहना है कि अनंतनाग में हुआ यह हमला सुरक्षाबलों द्वारा इस महीने की शुरुआत में मुठभेड में मारे गए बशीर लश्करी सहित अन्य आतंकवादियों की मौत का बदला मालूम होता है। अधिकारियों का कहना है कि कुछ माह से आतंकियों के खिलाफ चलाए जा रहे अभियान से आतंकी बौखलाए हुए हैं। इस्माइल कई सालों से कश्मीर में सक्रिय है और करीब एक साल पहले दक्षिण कश्मीर को उसने अपना ठिकाना बनाया था। हालांकि आतंकी संगठन लश्कर ए तैयबा ने अमरनाथ यात्रियों पर हमले की जिम्मेदारी नहीं ली है।
- सुनील सिंह