16-May-2013 07:49 AM
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कुछ समय पूर्व जब मध्यप्रदेश के कृषि मंत्री रामकृष्ण कुसमारिया ने केंद्र सरकार को जैव प्रौद्योगिकी से संबंधित विधेयक बायो टेक्नोलॉजी, रेग्यूलेटरी अथॉरिटी ऑफ इंडिया (बीआरएआई) को वापस

लेने का अनुरोध करते हुए इस विषय पर व्यापक विचार विमर्श की आवश्यकता प्रकट की तो जैव संवर्धित वस्तुओं का मामला एक बार फिर केंद्र में आ गया। विदेशी कंपनियां भारत में इस विधेयक को पारित कराने के लिए जी तोड़ कोशिश कर रही हैं। कुसमारिया जैसे जागरुक विधायक जो कि कृषक पृष्ठभूमि से हैं। इस बात को भलीभांति जानते हैं कि ये भारत की जैव विविधता और पर्यावरण के लिए बहुत बड़ा खतरा है। कुसमारिया का कहना है कि यह विधेयक जल्दबाजी में लाया गया है और इसमें सभी जगहों से हो रहे विरोध को दरकिनार भी किया गया है। उन्होंने बताया कि भारत सरकार ने लोगों की चिंताओं तथा वैज्ञानिकों द्वारा प्रस्तुत साक्ष्यों का भी संज्ञान लेना जरूरी नहीं समझा और जल्दबाजी में यह विधेयक प्रस्तुत कर दिया। कृषि संबंधी संसदीय समिति की अनुशंसाओं को भी अनदेखा करते हुए यह विधेयक प्रस्तुत किया गया है। कुसमारिया ने इस सिलसिले में पूर्व विज्ञान और तकनीक मंत्री स्वगीय विलासराव देशमुख को भी आगाह किया था, लेकिन उनकी चिंताओं पर तब कोई तवज्जो नहीं दी गई।
कृषि व स्वास्थ्य राज्य का विषय है। इसमें जैव विविधता कानून बनाने के राज्यों के अधिकार को छीना जा रहा है। ऐसे में यह विधेयक जैव विविधता के संरक्षण के विरुद्ध है। प्रस्तावित विधेयक को लेकर कहा गया है कि एग्रीकल्चरल बायोटेक्नोलाजी के बारे में 2004 में गठित टास्क फोर्स ने अपनी रिपोर्ट में एक विश्वसनीय नियामक प्राधिकरण के गठन की सिफारिश की थी। रिपोर्ट में देश की बायोटेक्नोलाजी नियमन नीति को लेकर स्पष्ट तौर पर एक सीमा रेखा खींची थी। इसमें कहा गया था कि पर्यावरण की सुरक्षा, किसानों के हित, परिस्थितिकीय व कृषि प्रणाली में आर्थिक निरंतरता, उपभोक्ताओं के स्वास्थ्य व उनकी पोषकता, देश की बायोसुरक्षा व घरेलू व विदेश व्यापार के संरक्षण को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। प्रस्तावित विधेयक में इसकी अनदेखी की जा रही है। प्रस्तावित विधेयक में कृषि व स्वास्थ्य पर राज्यों के संवैधानिक अधिकार को छीनने की कोशिश की गयी है,जो देश के संघीय ढांचे की व्यवस्था का घोर उल्लंघन है। राज्य सरकारों को राज्य बायोटेक्नोलाजी नियामक सलाहकार समिति में सिर्फ सलाह देने तक ही सीमित रखा गया है।
सफल परिणाम यानी कम लागत पर अधिक उपज वाली इस तकनीक पर देश भर में सवाल उठते रहे हैं। बीटी बैंगन के जबरदस्त विरोध के बावजूद बीज कंपनियों की नई जीन प्रसंस्कृत फसल लाने की योजना पर बस इतना ही असर हुआ कि उच्चतम न्यायालय के हस्तक्षेप से बीटी फसलों के अनुमोदन के लिए एक जिनेटिक इंजीनिअरिंग अप्रूवल कमेटी गठित कर दी गई, जो हर नई किस्म के अनुमोदन से पहले यह सुनिश्चित करती है कि संबंधित किस्म विशेष का खेतों में वास्तविक परीक्षण नियमानुसार हुआ था या नहीं। बीटी मक्का और बीटी टमाटर विकसित हुए अब मोंसांटो माहिको व्यावसायिक उत्पादन के लिए बीटी चावल और बीटी भिंडी लाने की योजना बना रही है। सवाल यह है कि इतना महत्त्वपूर्ण मुद्दा जिसे केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश परमाणु सुरक्षा जितना अहम रणनीतिक मुद्दा कह चुके है, को दो अस्थाई समितियों के हाथ में छोड़ देना सही है? बीटी बैंगन के मामले में साबित हो चुका है कि उसका खेत परीक्षण (फील्ड ट्रायल) सही नहीं हुआ था, कंपनियों द्वारा दिए गए आंकड़ों से पता चला कि देश के 20 फीसदी बैगन पैदा करने वाले उड़ीसा राज्य में तो फील्ड ट्रायल सिरे से हुए ही नहीं। ऐसा घपला और अन्य राज्यों में भी जारी हैं लेकिन केंद्र सरकार आंखें मूंदे हुए हैं।
शोभन बनर्जी