इसलिए खत्म नहीं होती नक्सली हिंसा
02-May-2017 07:35 AM 1234805
ब कहां पहले सी सामाजिक असमानता और जमींदारी रही, अब तो आदिवासी मुख्यधारा से जुड़ कर सुविधाजनक जिंदगी जी रहे हैं, उनके बच्चे पढऩे स्कूल जाने लगे हैं, आदिवासियों के हाथ में अब तीर कमान नहीं बल्कि सेलफोन हैं और तो और अब उनका पहले जैसा शोषण भी नहीं होता, जैसी बातें करने वाले लोग कभी बस्तर गए हों ऐसा लगता नहीं, इसलिए उन्हें अपनी यह गलतफहमी दूर करने एक दफा बस्तर जरूर जाना चाहिए, वहां के जंगलों में बसे इन आदिवासियों की जिंदगी को नजदीक से देखना चाहिए तब शायद उन्हें समझ आए कि सब कुछ ज्यों का त्यों है और जो बदलाव आए बताए जाते हैं उनकी छोटी सी झलक धमतरी नाम के कस्बे तक ही ढूंढने पर ही दिखती है। बीती 24 अप्रेल को सुकमा के नक्सली हमले में फिर एक बार सीपीआरएफ के 25 जवान मारे गए तो एक बात और प्रमुखता से कही गई कि अब तो नक्सली वसूली करने लगे हैं और नक्सलवाद कोई मुहिम नहीं, बल्कि एक धंधा बन चुका है, इसलिए सरकार को देर न करते हुये तुरंत वैसी सर्जिकल स्ट्राइक करनी चाहिए जैसी 18 सितंबर 2016 को जम्मू कश्मीर के उरी में सैनिक कैंप पर हुये आतंकी हमले में 20 सैनिकों के शहीद होने के बाद की थी। इस मुहिम में आतंकी ठिकानों पर सैन्य हमला करके उन्हें धव्स्त कर दिया गया था। यह सुझाव या आइडिया नहीं बल्कि माओवादियों के खिलाफ एक स्वभाविक आक्रोश भर है जिसे पेश करने वाले लोग न तो नक्सली इतिहास से वाकिफ लगते हैं और जैसा कि ऊपर बताया गया कि न ही आदिवासियों की शाश्वत बदहाली से परिचित हैं। इसमें उनकी कोई खास गलती भी नहीं क्योंकि यही लोग महसूसते भी हैं कि अगर माओवादियों को खत्म करना इतना आसान काम होता तो वह  कभी का हो चुका होता। तो फिर दिक्कत क्या है और क्यों सरकार और उसका भीमकाय दिखने वाला तंत्र नक्सलियों के सामने कमजोर पड़ जाता है। इस सवाल का जबाब बेहद साफ है कि नक्सली आंदोलन सिर्फ इसलिए वजूद में है कि उसकी जरूरत अभी खत्म नहीं हुई है। यहां मकसद नक्सली हिंसा का समर्थन करना नहीं, बल्कि बहुत साफ तौर पर यह बताना और जताना है कि छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित इलाकों खासतौर से बस्तर में आदिवासी अब भी शोषण का शिकार हैं और सरकार या सेना पर कतई भरोसा नहीं करते, जो हर कभी उन्हें नक्सलियों के मुखबिर होने के इल्जाम में या फिर किसी भी आदिवासी को नक्सली करार देकर ऐसी यातना देती है कि उन्हें इस कहर से बचने नक्सलियों की शरण लेने में ही भलाई लगती है। भोपाल और रायपुर के कुछ आदिवासी युवाओं से बात करने पर पता चलता है कि अब स्थानीय पुलिस वालों की भूमिका मूक दर्शक की सी रह गई है, जो नक्सलियों के बारे में काफी कुछ जानते हैं और मुमकिन है उनकी मदद भी करते हों, क्योंकि माओवादी उन्हें नहीं मारते, उनके निशाने पर सीआरएफ जैसी केंद्रीय एजेंसियां ही रहती हैं, जिन्हे हर आदिवासी नक्सली नजर आता है और वे हर कभी हर कहीं जमीदारों जैसा जुल्म उन पर करते हैं और आदिवासी औरतों को बेइज्जत करने से भी नहीं चूकते, उलट इसके अपनी रेड कारीडोर में समांतर सरकार चला रहे माओवादी घूसखोर मुलाजिमों से आदिवासियों को बचाते हैं, इसलिए वे आदिवासियों को ज्यादा विश्वसनीय लगते हैं, अगर न लगते होते तो उन्हे खत्म करने के लिए सरकार को न तो जगह-जगह मिलिट्री केंप लगाना पड़ते और न ही खरबों रुपये नक्सली उन्मूलन अभियान पर फूंकना पड़ते, जिसका कोई सार्थक परिणाम आज तक नहीं निकला है। सरकारी की टरकाऊ नीतियां खतरनाक केन्द्र सरकार हो या राज्य सरकार उनकी नक्सल उन्मूलन की नीतियां केवल टरकाऊ हैं। दावे तो बड़े-बड़े किए जाते हैं, लेकिन मैदानी हकीकत कुछ और है। केंद्र सरकार का ढुलमुल और टरकाऊ रवैया भी नक्सली समस्या का कम जिम्मेदार नहीं जो हर बड़े हमले के बाद शहीद हुये जवानों को कुछ लाख रुपये की इमदाद देता है, सख्ती का दम भरता है और फिर बात आई गई हो जाती है। सुकमा हमले के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जवानों की शहादत बेकार न जाने देने की बात कर उन पर गर्व किया, तो गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने इसे चुनौती के रूप में स्वीकारा, जबकि मोदी सरकार के कार्यकाल में माओवादियों द्वारा किया गया यह तीसरा बड़ा हमला है। जाने क्यों सरकार अपनी ये कमजोरियां मानने और दूर करने को तैयार नहीं कि उसका खुफिया तंत्र लापरवाह, भष्ट और अव्वल दर्जे का निकम्मा है। सीपीआरएफ जैसी एजेंसियां चयनित स्थानों पर डेरा डाले वक्त गुजारती रहती हैं उन्हें नक्सली गतिविधियों के बारे में कोई जानकारी नहीं रहती ऐसे में क्या खाकर इस चुनौती से निबटा जाएगा यह राम जाने। सुकमा हमले के बारे में जवान कह रहे हैं कि कोई 300 माओवादियों ने आदिवासियों को आगे रखा, जिससे वे मुंह तोड़ जबाब नहीं दे पाये, इसके बाद भी कई नक्सलियों को उन्होंने मार गिराया। -टीपी सिंह के साथ संजय शुक्ला
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