सत्ता लाल बत्ती की मोहताज नहीं
02-May-2017 07:33 AM 1234850
कहा जा रहा है अब भारत में वीआईपी कल्चर खत्म हो जाएगा, केंद्रीय सरकार के एक निर्णय के बाद। इसके मुताबिक अब राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के अलावा और कोई अपनी गाड़ी पर लाल, नीली या पीली बत्ती नहीं लगा सकेगा। इस कदम की चौतरफा तारीफ हो रही है। क्यों न हो? वीआईपी जिस तरह भारत की सभी भाषाओं का अपना शब्द बन गया था, उसी से समझा जा सकता है कि उसकी जकड़ भारतीय सामाजिक दिमाग पर कितनी जबरदस्त होगी! गांव हो या शहर, पढ़ लिखकर अगर बेटे ने द्वार पर लाल बत्ती वाली गाड़ी न लगवाई तो फिर सारा कुछ अकारथ समझो! ऐसे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वीवीआईपी कल्चर खत्म करने के लिए लाल बत्ती की छुट्टी भले ही कर दी है पर क्या इससे नेताओं और नौकरशाहों पर जो लाल रंग चढ़ा है वो भी उतर जाएगा? ये लाल रंग कोई मामूली गुलाल नहीं, ये तो आडंबर, अहंकार और रौब का पक्का रंग है। वीआईपी शब्द अंग्रेजी का है जो आधुनिक शिक्षा और ज्ञान से जुड़ा है, लेकिन इसकी संस्कृति का एक सिरा सामंती दिमाग से जुड़ता है। समाज में कुछ लोग मात्र सांकेतिक नहीं वास्तविक रूप से भी सुविधाप्राप्त और विशेषाधिकारयुक्त होंगे, यह मान कर चला जाता है। साधारण जन और विशिष्ट जन की श्रेणियां बंटी हुई हैं और उन पर सवाल नहीं उठा सकते। विशिष्टता आप ओहदे से हासिल कर सकते हैं या धन के बल पर! कहा जाता है कि ईश्वर के आगे सब बराबर हैं, क्या राजा क्या रंक! लेकिन हमारे यहां ईश्वर के स्वनियुक्त प्रतिनिधि ऐसा नहीं मानते। कामख्या देवी हों या महाकाल मंदिर, अगर आप ओहदेदार हैं या पैसे वाले हैं तो देवी या भगवान के दर्शन आपको बिना पसीने के और कुर्ता कुचलवाए मिल सकेंगे। लेकिन अगर आप बदनसीब हैं तो फिर इन खुदा के बंदों को अध्यात्म लाभ करके सरसराती लाल बत्ती वाली गाड़ी में अपने आगे से निकल जाते देखते रह जाएंगे और अपने भाग्य को कोसते। वीआईपी संस्कृति का अर्थ है विशेषाधिकार और छूट। सड़क पर आपको पहले निकलने का रास्ता दिया जाएगा और दुनियावी कानूनों से भी आप आजाद होंगे। भारतीय जनतंत्र की विडम्बना यह है कि यह आजादी सबसे पहले खुद जन प्रतिनिधियों ने ले ली। अभी हाल में एक सांसद ने एक एयरलाइंस कंपनी के कर्मचारी पर सरेआम हमला किया लेकिन संसद ने अपने सदस्य को यों वापस लिया मानो किसी बच्चे ने कोई चूक की हो। बल्कि चूक का जिक्र भी कहां! और लोकसभा की अध्यक्ष जो भगवंत मान के संसद की सिर्फ तस्वीर ले लेने और उनके मदिरापान से इतनी क्षुब्ध थीं, इस मसले पर लगभग खामोश बनी रहीं! सड़क को सत्ता की लाल खनक से मुक्त कराने की पहल पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को साधुवाद! यदि बतौर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ऐसे ही और सत्ता का अंहकार खत्म कराए, राजा और प्रजा, नेता और जनता, अफसर और आमजन का फर्क खत्म करें तो यह उन तमाम कामों से बड़ा काम होगा जिनके पिछले तीन साल में वे नारे लगवा रहे है। इसलिए कि आजाद भारत की समस्या उसका सिस्टम है। वह सिस्टम जो हाकिम की हुकुमत की लाल स्याही है। वही उसे लालबत्ती मुहैया कराता है। यदि ऐसा न होता तो न तो भारत में भ्रष्टाचार होता और न ही भारत पिछड़ा हुआ रहता। पंडित जवाहरलाल नेहरू से लेकर नरेंद्र मोदी सभी की राज प्रवृतियों का मूल संकट हम हिंदूओं की यह तासीर है कि हम राजा को भगवान का अवतार मानते हंै। राजा, नृप होने का मतलब विशेष है, पूजनीय है! तब उसकी आरती उतारेंगे, पालकी सजाएंगे और लालबत्ती दिखाते हुए उसे सड़क पार करवाएंगे। मुझे किसी भी रिफरेंस में यह पढऩे को नहीं मिला कि औपनिवेशिक काल में चर्चिल लंदन की सड़कों में लालबत्ती में घूमते थे। अंग्रेज भारत में भले तुर्रिदार लाल टोपीमय दरबानों, लालबत्ती में भारत में घूमते रहे हों, लेकिन सच्चे लोकतंत्र वाले फ्रांस, अमेरिका, ब्रिटेन के पुराने कथानक के सिनेमाई दृश्यों में भी यह देखने को नहीं मिला कि अब्राहम लिंकन की बग्गी की लालटेन लाल शीशा लिए हुए थी या जेएफ कैनेडी के काफिले की कारों पर लाल बत्ती लगी हो। हां, इमरजेंसी की नीली लाइट दिखती है लेकिन लाल कालीन की तर्ज पर लाल बत्ती से हुकूमत की पहचान भारतीय उपमहाद्वीप का शायद इसलिए खास रूप बना क्योंकि सत्ता हमारी भगवान है। ये भगवान करोड़ों की संख्या में है। यदि सवा सौ करोड़ लोग हंै तो वे मूर्तियों में बसे 32 करोड़ देवी -देवताओं से ही नहीं बल्कि सत्ता के मंदिरों में बैठे जिंदा देवताओं से भी नियंत्रित हंै। जवाहरलाल नेहरू भगवान थे। इंदिरा गांधी देवी थी तो आज के भक्तों में नरेंद्र मोदी भगवान विष्णु के अवतार से कम नहीं हैं। उनकी रची सृष्टि में फिर मुख्यमंत्री, मंत्री, सासंद, विधायक, सचिव, कलेक्टर, एसपी अपने-अपने अनुपात के वे अवतारी रूप पाए हुए है जिनके आगे जीवन जीने के लिए मिन्नत करनी ही होगी। कभी नेहरू-इंदिरा की भक्ति में लोग जिया करते थे और आज नरेंद्र मोदी-अमित शाह के आगे भक्तों का हुजूम है। मतलब सत्ता तंत्र के अधिष्ठाता के आगे। लोकतंत्र अलापता है कि वह जनता के लिए है। नहीं, वह सत्ता के लिए है। प्रधानमंत्री या कलेक्टर का यह कहना प्रपंची है कि वह जनसेवक है। इसलिए कि अपना लोकतंत्र मूलत: अंग्रेजों के सिस्टम का फैलाव है। गुलामों पर राज करने की जो व्यवस्था अंग्रेजों ने गढ़ी थी वह जस की तस हमारे संविधान निर्माताओं ने न केवल अपनाई बल्कि विदेशों से तमाम तरह के टेंपलेट ले कर उससे अपने को पूरी तरह माईबाप बनवा दिया। इस देश में सब सरकार करती है यानि सब भगवानजी करते है। हम-आप यानि जनता की जिंदगी में मतलब इस बात का है कि हाकिमों से काम कराने में हम समर्थ है या नहीं? जनता भले वोट देती है, जनादेश से सत्तारोहण होता है मगर सत्ता का रोहण। सत्ता यानि सिस्टम स्थाई है। अर्थ सत्ता का, सिस्टम का है। उसमें रचे-बसे अंहकार यानि लालबत्ती का है। लालबत्ती, लाल कलम ही तय कराती है कि सड़क पर सबका समान अधिकार नहीं है। नागरिक को, जनता को उसके आगे से हटना होगा। चौंकना होगा। डरना होगा। जान बचा कर भागना होगा। लालबत्ती का अर्थ है भारत सरकार। आपने गौर किया होगा, जो सरकारी मुलाजिम होते है या हाकिम की जो क्लास है वह किस घमंड से कार की नंबर पट्टी पर अपने को भारत सरकार बताती घूमती है! विदेश में ऐसी कोई कार प्लेट नहीं दिखती है। वहां पता नहीं पड़ता कि कौन पीएम, कौन मंत्री या कौन कलेक्टर है। लंदन, अमेरिका में कभी पीएम, मंत्री, कलेक्टर की खनक सुनाई ही नहीं देती है और अपने यहां? यहां उनके रसूख का हर कोई भुक्त भोगी है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या यह सब मोटर एक्ट में संशोधन से खत्म होगी? कार की बत्ती खत्म हो जाए पर सिस्टम तो वहीं रहना है। इसलिए भारत राष्ट्र-राज्य में सड़के कभी लालबत्ती मुक्त नहीं हो सकती। सड़क पर मंत्री-संतरी नए तरीके से सत्ता खनकाएंगे। सो मोदीजी, देश यदि बदलना है तो उस सिस्टम को बदलिए जो माईबाप है। उसकी लाल स्याही, कलम को खत्म कीजिए तभी सच्चा जनतंत्र खिलेगा! वीआईपी कल्चर पूरी तरह समाप्त हो लाल बत्ती वाली गाडिय़ों पर रोक लगाने से वीआईपी कल्चर पर रोक लगाने की दिशा में कदम आगे बढ़ा है, लेकिन बात सिर्फ लाल बत्ती तक ही सीमित नहीं रहनी चाहिए। दिल्ली और राज्यों की राजधानियों मेंं मंत्रियों-अधिकारियों के बड़े-बड़े बंगले, सुविधाओं के नाम पर करोड़ों रुपए का खर्चा भी वीआईपी संस्कृति का ही हिस्सा है। मप्र की बात करें तो यहां करीब आधा दर्जन जिलों में कलेक्टर निवास 10 एकड़ के भू-भाग में फैले हुए हैं। वहां खेती बाड़ी भी होती है। इतने बड़े भू-भाग के रखरखाव के लिए बड़ा बजट खर्च किया जाता है। उस पर तमाम कारिंदों की तैनाती वीआईपी संस्कृति का ही तो हिस्सा है। सरकार वाकई वीआईपी संस्कृति समाप्त करना चाहती है तो उसे और कड़े फैसले लेने होंगे। बंगले तथा अन्य सुविधाओं पर रोक के साथ सरकारी बैठकों-सेमीनारों पर होने वाले खर्चों पर भी लगाम लगानी होगी। पांच सितारा होटलों में होने वाली सरकारी बैठकों पर होने वाला खर्च आखिर भुगतना तो आम जनता को ही पड़ता है। संसद और विधानसभा की समितियों के दौरों पर खर्च होने वाली राशि जोड़ी जाए तो आंखें फटी की फटी रह जाएंगी। हर साल ऐसे अनगिनत दौरे होते हैं जिनमें सांसद-विधायक परिवार समेत दौरों के नाम पर भ्रमण करते हैं। पांच सितारा होटलों में ठहरने और घूमने-फिरने के नाम पर बड़ी राशि खर्च होती है। इन पर भी अंकुश लगाना चाहिए। केवल गाड़ी पर लालबत्ती न लगाने से वीआईपी संस्कृति खत्म होने वाली नहीं है। वीआईपी संस्कृति शासन प्रशासन में इस कदर पैठ बना चुकी है कि इसके निवारण के लिए सरकार को कई कठोर कदम उठाने होंगे। -विशाल गर्ग
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