दस माह से नहीं उठा फावड़ा
02-May-2017 07:17 AM 1234780
दरअसल, मप्र में मरनेगा योजना में जमकर फर्जीवाड़ा हुआ है। केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार, इस योजना के तहत बनाए गए 21 लाख 62 हजार 300 लोगों के फर्जी कार्ड एक साल के अंदर रद्द किए गए हैं। गलत आवंटन के लाखों मामले हैं। वहीं सरकार जरूरतमंदों को काम भी उपलब्ध नहीं करा पा रही है। वैसे तो बुंदेलखंड क्षेत्र में मजदूरों का सबसे अधिक पलायन होता है, लेकिन मनरेगा के तहत काम करने वाले मजदूरों का छतरपुर जिले में सबसे अधिक पलायन हुआ है। बसों तथा ट्रकों में श्रमिकों की टोलिया कूच कर चुकी है। ये सिलसिला बीते दो माह से लगातार जारी है। छतरपुर में मनरेगा के तहत मशीनों से काम किया जा रहा है। इस कारण मजदूर दिल्ली, पंजाब, मुंबई की ओर रूख कर रहे हैं। मजदूरों का कहना है कि यदि गांव में ही रोजगार मिल जाता तो आज बाहर जाने की जरूरत नहीं पड़ती। कई गांवों में तो लोगों के खाने की भी पर्याप्त व्यवस्था नहीं हो रही है। ग्राम पंचायत द्वारा मजदूरी नहीं दिलाई जा रही है। इसलिए मजदूर ठेकेदार से बात कर बाहर निकलने की तैयारी में है। मनरेगा श्रमिकों की परेशानी यह है कि यहां भुगतान की स्थिति खराब हो जाती है। भुगतान रुक जाता है तो पता नहीं कब मिले। इसलिए वे अन्य जगह काम करना ज्यादा सही समझते हैं। पिछले वर्ष मनरेगा का काम लगभग सभी पंचायतों में बंद रहा इसके चलते यहां से श्रमिक मध्य प्रदेश के बड़े शहरों सहित उत्तर भारत में पंजाब और हरियाणा तथा दक्षिण भारत के लिए पलायन कर गए। प्रदेश में मनरेगा के कार्यों में कमी आने का एक कारण सरपंचों का इसमें रुचि न लेना भी है। सरपंचों की भूमिका योजना में कम कर दी गई है। अब हितग्राही मूलक योजनाओं जैसे कपिल धारा कूप सहित अन्य योजनाओं में हितग्राही के खाते में रुपए आ रहे हैं। वहीं मजदूरी में प्रशासन द्वारा कार्य का मूल्यांकन उसमें लगने वाले श्रम के आधार पर किया जा रहा है। इससे मजदूरों की संख्या भी किसी कार्य के लिए निर्धारित हैं। तालाब, शांति धाम, खेल मैदान के लिए राशि फिक्स कर दी गई है। इससे मजदूरों के साथ पंचायतों का भी रुझान योजना के प्रति कम हुआ है। यदि ऐसा ही चलता रहा तो आने वाले समय में जिले में जॉब कार्ड धारियों की संख्या में बढ़ोतरी होगी। इसलिए इसे रोका जाना चाहिए। स्थिति यह है कि मप्र में मनेरगा के तहत वर्ष 2016-17 में एक प्रतिशत से भी कम परिवारों को 100 दिन का रोजगार मिला। जिन्हें रोजगार मिल भी रहा है उनके दिन भी साल दर साल कम हो रहे है। वर्ष 2015-16 में जहां प्रदेश में कार्य का औसत दिवस 46 था तो वहीं वर्ष 2016-17 में यह 38 दिन तक सिमट गया। कम दिनों के काम के अलावा सरकार जरूरतमंदों को काम भी नहीं दे पा रही है। वर्ष 2015-16 में 30 लाख 24 हजार परिवारों ने मनरेगा के तहत काम मांगा लेकिन सरकार 27 लाख परिवारों को ही काम दे पाई। इधर वर्ष 2016-17 में काम मांगने वालों की संख्या में और इजाफा हुआ और यह संख्या 32 लाख 61 हजार तक पहुंची लेकिन सरकार पहले से भी कम 25 लाख लोगों को ही रोजगार मुहैय्या करवा सकी। ये आंकड़े जाहिर करते है कि मनरेगा के काम में गिरावट आई है और मनरेगा के प्रति श्रमिकों का मोह भंग भी हुआ है। जाहिर है ये श्रमिक गांव छोड़ कर काम के सिलसिले में पलायन कर रहे है और मनरेगा अपने उद्देश्य में फेल होती नजर आ रही है। अब कागजों पर नहीं खोदे जा सकेंगे तालाब अब सिर्फ कागज पर ही तालाब नहीं खोदे जाएंगे बल्कि किसी खास क्षेत्र में मनरेगा के तहत क्या काम हुआ है, उसकी लागत और काम पूरा होने के बाद उसका स्वरूप क्या है इन सबको आप जियोटैग के जरिए देख सकते हैं। इसरो और एनआरएससी की मदद से अब आम लोग भी मनरेगा के कार्यों की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। मनरेगा के जरिए ग्रामीण इलाकों में तालाब खुदवाने से लेकर सड़क बनवाने तक तमाम काम कराए जाते हैं, इन पर करोड़ों रुपये की लागत भी आती है, बावजूद इसके कई बार वो तालाब जमीन पर नहीं दिखते थे, मनरेगा में फर्जीवाड़े से कागजों में ही काम कराया जा रहा था लेकिन अब ऐसा नहीं हो सकेगा, कौन सा तालाब कब बनकर तैयार हुआ या किस पर काम हुआ, इसकी पूरी जानकारी ऑनलाइन होगी। -जबलपुर से सिद्धार्थ पाण्डे
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