कर्नाटक के नतीजों से कांग्रेस में उत्साह
16-May-2013 06:54 AM 1234780

मध्यप्रदेश कांग्रेस में यद्यपि शीर्ष नेताओं के बीच शीतयुद्ध अभी भी चल रहा है, किंतु हाल ही में कर्नाटक चुनाव में कांग्रेस को मिली जीत ने मध्यप्रदेश में कार्यकर्ताओं को उत्साहित किया है और उन्हें लगने लगा है कि थोड़ी मेहनत करने से सत्ता हाथ में आ सकती है। कर्नाटक में टिकिट वितरण से लेकर चुनावी रणनीति बनाने में राहुल गांधी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। प्रदेश कांग्रेस में यह राय बन रही है कि राहुल का फार्मूला मध्यप्रदेश में भी कामयाब हो सकता है, लेकिन इसके लिए प्रदेश कांग्रेस कमेटी से कहीं ज्यादा सक्रियता अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी को दिखानी होगी पर सवाल यह है कि प्रदेश में बैठे दिग्गज नेता अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की राय को कितना मानेंगे। कर्नाटक में कांग्रेस के पास एंटी इनकमबेन्सी और येदियुरप्पा जैसे कारण थे जिन्होंने जीत में प्रमुख भूमिका निभाई किंतु मध्यप्रदेश में सत्ता विरोधी रुझान भले ही देखा जा रहा हो पर कोई येदियुरप्पा नहीं है जो भाजपा को नुकसान पहुंचा सके। बल्कि इसके विपरीत कांग्रेस में कई येदियुरप्पा हैं जो कांग्रेस की जड़ें खोखली कर रहे हैं। हालांकि ऊपर ही ऊपर वे कांग्रेस को काफी समर्थन देते दिखाई देते हैं। हरबंश सिंह के असामायिक निधन से अब कांग्रेस को बांधने का काम कोई और देखेगा, किंतु वह हरबंश की तरह पूरे मन लगाकर इस काम को अंजाम दे सकेगा इस बात में संदेह ही हैं।
मध्यप्रदेश में कांगे्रस के नेता अपने खासमखास लोगों की सिफारिश करने से भी बच रहे हैं। दिग्विजय सिंह तो पहले ही घोषणा कर चुके हैं कि वे किसी की सिफारिश नहीं करेंगे। दूसरे दिग्गज नेता भी इसी तरह के संकेत दे रहे हैं। हाल ही में केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया ने एक पत्रकार वार्ता में कहा था कि उन्हें किसी पद का लालच नहीं है सिंधिया के इस कथन के पीछे राहुल गांधी के दौरे के समय हुई नारेबाजी भी एक बड़ा कारण है। दिग्विजय सिंह कुछ समय पूर्व छत्तीसगढ़ में यह बोलते सुनाई पड़े थे कि नारेबाजी न हो तो कांग्रेस संगठित हो सकती है। कांग्रेस को संगठित करने की प्रक्रिया में नए चेहरों को अवसर दिए जाने की बात भी उभरकर सामने आई है। वैसे भी जो फार्मूला राहुल के इशारे पर अपनाने की तैयारी की जा रही है। यदि वह फार्मूला लागू किया गया तो पिछली बार जिन प्रत्याशियों को टिकिट मिला था उनमें से लगभग 40 प्रतिशत प्रत्याशी टिकिट पाने में शायद ही कामयाब हो पाए। बुंदेलखंड और मालवा में मिली बढ़त ने भी कांग्रेस के कार्यकर्ताओं और नेताओं का उत्साह बढ़ाया है। किंतु कांतिलाल भूरिया के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती कांग्रेस को संगठित करने की है। नवंबर माह में कांग्रेस ने घोषणा की थी कि समन्वय समिति की बैठक प्रतिमाह आयोजित की जाएगी, लेकिन छह माह बीतने के बाद भी अभी तक समन्वय समिति की बैठक नहीं हुई है। लगता है यह नेता समन्वय समिति को ही भुला चुके हैं।
समन्वय समिति में पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह, केंद्रीय मंत्री कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया के अलावा अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया, सुरेश पचौरी, अरुण यादव, असलम शेर खां, नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह, एनपी प्रजापति, गंगाबाई उरेती, महेंद्र सिंह कालूखेड़ा जैसे दिग्गज नेता शामिल हैं। राहुल गांधी खुद इन्हें कई बार एक साथ लाने की कोशिश कर चुके हैं पर इन नेताओं को एकत्र करना एक दुरूह और दुष्कर कार्य होता जा रहा है। खास बात यह है कि आलाकमान की सख्ती का भी इन पर कोई असर नहीं होता। प्रदेश प्रभारी बीके हरिप्रसाद शुरू में तो सक्रिय दिखाई दिए थे, लेकिन उन्होंने भी अब हार मान ली है। हरिप्रसाद को शायद अब और ज्यादा तवज्जो न मिले। क्योंकि प्रदेश के नेता उन्हें प्रदेश में बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं। हालांकि यह भी कहा जा रहा है कि हरबंश सिंह के निधन के बाद फिलहाल हरिप्रसाद एकदम से नहीं हटाए जाएंगे। प्रदेश में उनकी भूमिका बनी रहेगी। इसका एक उदाहरण उस समय भी देखने में आया था जब कांग्रेस के प्रदेश प्रभारी हरिप्रसाद और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया के खिलाफ बोलने वाले दो पदाधिकारियों को प्रदेश कांग्रेस अनुशासन समिति ने नोटिस थमा दिया था। इनमें पूर्व गृह राज्यमंत्री सत्यदेव कटारे भी शामिल हैं। कटारे ने ग्वालियर में एक बैठक के दौरान यह कह दिया था कि भूरिया को कांग्रेस के संविधान का ज्ञान नहीं है। वहीं हरिप्रसाद के खिलाफ भी भगवान सिंह तोमर ने गलत बयानी करते हुए उन पर गुटबाजी का आरोप लगाया था। गुटबाजी की समस्या के कारण ही कांग्रेस में चुनाव की सक्रियता नहीं दिख रही है। हालांकि जिस तरह का माहौल प्रदेश भाजपा सरकार के खिलाफ बनता जा रहा है उससे कांग्रेस को लाभ मिलना तय है। कांग्रेस के एक महत्वपूर्ण नेता ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि प्रदेश कांग्रेस में कुछ नेता परोक्ष रूप से भाजपा को सहयोग कर रहे हैं। इसी कारण प्रदेश में कांग्रेस मजबूत होते हुए भी अपेक्षित लाभ नहीं उठा पा रही है। इस बीच दिग्विजय सिंह की सक्रियता से नई सुगबुगाहटें जन्म लेने लगी हैं।
खबर हैं कि वे चुनाव से पहले मुख्यमंत्री का विवाद सुलझाने के लिए जी तोड़ कोशिश कर रहे हैं। हाल ही में उन्होंने एक सभा में कहा भी था कि मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री के रूप में कांग्रेस की तरफ से ज्योतिरादित्य सिंधिया की संभावना सबसे प्रबल है।

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