17-Apr-2017 08:44 AM
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इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) इन दिनों इलेक्शन विवाद मशीन बन गई है। उत्तर प्रदेश में भाजपा को मिली ऐतिहासिक जीत के बाद विपक्ष ईवीएम की जगह मतपत्र से चुनाव कराने की मांग कर रहा था कि मप्र की घटना ने आग में घी डाल दिया। मप्र की मुख्य निर्वाचन अधिकारी सलीना सिंह भिंड जिले के अटेर में उपचुनाव की तैयारियों का जायजा लेने पहुंची तो उन्होंने बिना सोचे समझे ईवीएम के मत सत्यापन पर्ची यानी वोटर वेरीफाइड पेपर ऑडिट ट्रेल (वीवीपीएटी) से जुडऩे की जांच शुरू कर दी। जब उन्होंने ईवीएम मीडिया की मौजूदगी में डेमो लिए तो दो अलग-अलग बटन दबाए और दोनों ही बार पर्चियां कमल की निकलीं। जिस वक्त ईवीएम को लेकर पहले से संदेह उठाए गए हों, तब ऐसा होना घोर लापरवाही मानी जाएगी। फिर गड़बड़ी सामने आने के बाद मीडिया को उसकी खबर ना देने को कहना आपत्तिजनक था। इससे शक को और हवा मिली। ये घटना राष्ट्रीय चर्चा का विषय बन गई। कांग्रेस और आम आदमी पार्टी ने तुरंत भारतीय निर्वाचन आयोग के दरवाजे पर दस्तक दे दी।
हालांकि सलीना सिंह ने बाद में स्पष्टीकरण दिया कि ईवीएम में गड़बड़ी इसलिए सामने आई, क्योंकि उसे बिना कैलिब्रेट (पूरी जांच-परख) किए प्रदर्शन के लिए रखा गया और मीडिया से उन्होंने मजाक में समाचार न देने की बात कही थी। स्वागत योग्य यह है कि भिंड के कलेक्टर और एसपी का तबादला फौरन कर दिया गया। साथ ही अटेर और बांधवगढ़ सीटों पर संपन्न हुए उपचुनाव की देखरेख की जिम्मेदारी आंध्र प्रदेश के मुख्य निर्वाचन अधिकारी को सौंपी गई है। इसके अलावा निर्वाचन आयोग ने ईवीएम की जांच के लिए तकनीकी विशेषज्ञों और अधिकारियों की दो टीमें बनाई हैं। इन कदमों से फौरी तौर पर चुनाव प्रक्रिया में भरोसा बहाल हो गया। लेकिन मुद्दा सिर्फ इन दो उपचुनावों का नहीं है। राजनीतिक पार्टियां अपनी हर हार के लिए ईवीएम को दोषी ठहराने लगें, ये बेहद दुर्भाग्यपूर्ण होगा।
ईवीएम में कथित छेड़छाड़ को लेकर विपक्ष जिस तरह हंगामा कर रहा है वह चिंतनीय है। कांग्रेस, सपा और बसपा के सदस्यों ने तो राज्यसभा में जमकर हंगामा किया। विपक्ष के आरोपों को नकारते हुए सरकार ने साफ कर दिया कि चुनाव आयोग स्पष्ट कर चुका है कि ईवीएम से छेड़छाड़ नहीं की जा सकती और अगर किसी को आपत्ति है तो उसे सदन का समय खराब करने के बजाय चुनाव आयोग में जाना चाहिए। भाजपा का जवाब भी तर्क संगत है। ऐसा नहीं है की देश में पहली बार ईवीएम से चुनाव हो रहे हैं। वर्ष 2004 और 2009 में लोकसभा चुनाव तथा बिहार, पंजाब, दिल्ली तथा अन्य राज्यों में विधानसभा चुनावों में ईवीएम का उपयोग हुआ, तब इन पार्टियों ने कोई आपत्ति नहीं जताई थी।
दरअसल, देखा यह गया है कि देश में ईवीएम पर सवाल उठाना विपक्ष की आदत सी बन गया है। वर्ष 2009 में ईवीएम पर खुद भाजपा की ओर से दिग्गज नेता लालकृष्ण आडवाणी और सुब्रमण्यम स्वामी ने भी कई आरोप लगाए थे। हार की हताशा में विरोध तो जारी है मगर कोई दल प्रामाणिक आरोपों के साथ सामने नहीं आया। वर्ष 2013 में इस मसले पर दायर याचिका की सुनवाई पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ईवीएम पर लोगों का भरोसा कायम करने के लिए जरूरी है कि हर वोट के साथ पर्ची निकलने की व्यवस्था हो। इन पर्चियों को मतपेटी में सुरक्षित रखा जाए ताकि जरूरत पडऩे पर दुबारा गिनती हो सके। अब आयोग नए सिरे से मशीनों को फुलप्रूफ बनाने के लिए नयी तकनीक के प्रयोग के लिए प्रक्रिया शुरू कर चुका है। नि:संदेह लोकतंत्र में जनता के भरोसे से कोई समझौता नहीं किया जा सकता। उसे भरोसा होना ही चाहिए कि उसने जिस प्रत्याशी को वोट दिया है, वाकई उसे मिला है। एक संसदीय समिति ने भी मशीन की प्रामाणिकता की जांच का ऐलान किया है। मगर निश्चित रूप से देश का जनमानस बैलेट पेपर आधारित उस व्यवस्था को नहीं स्वीकारेगा जो बूथ छापने-लूटने के दौर में वापसी की बात करता है।
पश्चिमी देशों में बैन
यह कैसी विड़बना है कि जिस ईवीएम को केरल के एक विधानसभा क्षेत्र से 1982 में और वर्ष 2004 के 14वीं लोकसभा से पूरे देश में लोकतंत्र का सबसे बड़ा तकनीकी हथियार बनाया गया आज वह विवादों के घेरे में है। यह भी समझ लेना सही होगा कि दुनिया के विकसित देशों ने ईवीएम को लोकतंत्र का बेहतरीन हथियार नहीं माना है। अमेरिका और जापान जैसे देश इसका प्रयोग करने से कतराते हैं। नीदरलैण्ड ने पारदर्शिता के अभाव में इसे बैन किया हुआ है। आयरलैण्ड ने तो करोड़ों खर्च करने के बाद और तीन साल के रिसर्च के बावजूद सुरक्षा और पारदर्शिता को देखते हुए ईवीएम को प्रतिबंधित कर दिया। जर्मनी ने तो ई-वोटिंग को तो असंवैधानिक तक करार दे दिया है इसकी भी वजह पारदर्शिता ही है। इटली ने भी इसे खारिज किया है। खास यह भी है कि इंग्लैण्ड और फ्रांस ने तो इसका उपयोग ही नहीं किया। ऐसे में दो सवाल उठते हैं एक यह कि भारत में ईवीएम को अपनाने से पहले क्या सभी प्रकार के सुरक्षा उपायों पर विचार किया गया था। दूसरा यह कि यदि यह इतना सुरक्षित है तो दुनिया के अमीर देशों ने इससे मुंह क्यों मोड़ा है?
-सुनील सिंह