सांप भी मर जाए लाठी भी न टूटे
17-Apr-2017 07:24 AM 1234779
मध्यप्रदेश सहित देश के लगभग सभी राज्यों के लिए शराब आय का एक बड़ा स्रोत है। इसलिए सरकारें शराबबंदी का फैसला करने से पहले लाख बार सोचती हैं। लेकिन बिहार में शराबबंदी और उत्तरप्रदेश में विधानसभा चुनाव के बाद शराबबंदी की लहर सी चल पड़ी है। ऐसे में मध्यप्रदेश में तो शराब सरकार के गले की हड्डी बन गई है। हालांकि प्रदेश के अधिकारियों ने सुप्रीम कोर्ट की गाइड लाइन का बखुबी पालन किया है और प्रदेश के राजस्व में बढ़ोत्तरी की है। दरअसल, मध्यप्रदेश में आबकारी से बड़ी आय हो सकी क्योंकि मध्यप्रदेश ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश का बखुबी पालन किया और किसी तरह की टकराहट मोल नहीं ली। अन्य राज्य जैसे तमिलनाडु, हरियाणा, पंजाब, केरल, महाराष्ट्र, असम आदि कई राज्यों ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश के विरुद्ध रिव्यू पिटीशन लगाई या फिर सुप्रीम कोर्ट के आदेश की व्याख्या अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी से करवाकर कोई बीच का रास्ता निकाल लिया। मध्यप्रदेश के अधिकारियों के सामने भी यह विकल्प था कि सप्रीम कोर्ट के आदेश के रिव्यू का प्रस्ताव करते अथवा अटॉर्नी जनरल की व्याख्या को स्वीकार करते हुए बार, होटल, रेस्टोरेंट में शराब बिकवाने के लिए रास्ता ढूंढते। लेकिन मध्यप्रदेश के आबकारी अधिकारियों ने इन दोनों ही विकल्पों का उपयोग नहीं किया। यहां के अधिकारियों ने उच्चतम न्यायालय के आदेश का जस का तस पालन करने का मन बना लिया इस कारण से मध्यप्रदेश की आय 12 प्रतिशत की ग्रोथ ले सकी। ज्ञातव्य है कि सुप्रीम कोर्ट ने 15 दिसंबर को आदेश दिया था और मध्यप्रदेश ने एक माह के भीतर ही सुप्रीम कोर्ट के आदेश का क्रियान्वयन कर तदनुरूप नई नीति की घोषणा कर दी जिससे राज्य को ढाई माह का पर्याप्त समय मिल गया। इस कारण राज्य ने शराब की दुकानों की नीलामी के किए 9 राउंड किए इससे अधिकतम प्रतिस्पर्धा मिल सकी। जबकि दूसरे राज्यों में अनिश्चितता का माहौल बना रहा। वहीं सुप्रीम कोर्ट के रिव्यू पिटीशन का आदेश 31 मार्च 2017 को जब आया तो महाराष्ट्र जैसे राज्यों ने 31 मार्च की सुबह लाइसेंस दिया और शाम को दुकानों पर ताला डालना पड़ा। ऐसी स्थिति में जब अन्य राज्यों की आबकारी नीति ढह गई और उनसे प्राप्त होने वाला राजस्व भी बह गया। वहीं उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने साफ-साफ कह दिया कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश का क्रियान्वयन असंभव है। वहीं सुप्रीम कोर्ट के आदेश से कुछ राज्यों ने घबराकर समर्पण कर दिया। छत्तीसगढ़ ने तो दुकानों का सरकारीकरण कर दिया और दुकानों को प्रतिस्थापित करने की बला अपने ऊपर ओढ़ ली। झारखंड ने 1 अगस्त 2017 से शराब दुकानों का सरकारी करण करने की घोषणा कर दी। परंतु मध्यप्रदेश ने न तो आदेश को चुनौती दी और न ही एकदम पीछे हटने का परिचय दिया बल्कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश का प्रथम तह पालन कर सुनिश्चित किया और 31 मार्च 2017 को सुप्रीम कोर्ट के आदेश की सराहना अर्जित कर राजस्व की रक्षा भी कर ली। तब सवाल यह उठ रहा है कि उत्कर्ष के शिखर पर मध्यप्रदेश अपने आपको ले गया और उस मीनार को खुद ही अपनी तरफ से जमींदोज करने की कोशिश क्यों हो रही है। कहा जा रहा है कि विरोध होने पर दुकानों को हटा दो। कांग्रेस और तमाम राजनेता इसको भुनाने की कोशिश में लग गए हैं। कई जगह तो संवाददाता इस आधार पर शराब ठेकेदारों का भयादोहन करते देखें गए वहीं कुछ चतुर ठेकेदारों ने प्रतिस्पर्धा में आकर दुकाने अच्छे राजस्व के वादे के साथ उठा ली थी वे अपनी दुकाने लौटाने के लिए खुद ही अपने विरुद्ध विरोध प्रदर्शन करा रहे हैं, तो कुछ जगह पर ठेकेदारों की आपसी रंजिश इस मौके का पूरा फायदा उठा रही है। यानी विपक्ष, छुटभैया नेता, शराब व्यवसायी, मीडियाकर्मी सभी इस विराध को हवा देकर अपना उल्लू सीधा करने में लगे हुए हैं। कुछ ठेकेदारों ने बातचीत में बताया कि पहली बार ऐसा लग रहा है कि हमने सरकार के द्वारा विज्ञापित किसी टेंडर में भाग न लेकर बल्कि अपराध में हिस्सा लिया हो। वहीं कलेक्टरों ने मुख्यमंत्री के इस उवाच के बाद आबकारी अधिकारियों की मदद करने से हाथ उठा लिया है और पुलिस मनमाने तरीके से दुकानों को बंद करने पर उतर आई है वह भी वह दुकानें जो शासकीय मापदंडों के अनुरूप हैं। मुख्यमंत्री का एक वाक्य जहां विरोध हो वहां से दुकानें हटा दें, पूरे प्रदेश में विरोध की हवा फैल रही है। पहले जहां  33 जगह शराब दुकानों का विरोध हो रहा था वहीं अब 300 जगह धरना, प्रदर्शन आंदोलन होने लगे। ज्ञातव्य है कि मध्यप्रदेश में 3,683 शराब की दुकाने हैं। सरकार ने मुख्यमंत्री के निर्देशानुसार, नर्मदा किनारे की  66 दुकानों को बंद कर दिया है। इससे राज्य को 200 करोड़ की राजस्व हानि हुई है। वहीं 1427 दुकानों को सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का पालन करते हुए आबकारी विभाग ने नेशनल हाईवे और स्टेट हाईवे से 500 मीटर से भी दूर करवा दिया है। इन दुकानों से राज्य को 43 प्रतिशत आय होती थी। लेकिन विभाग ने इन दुकानों के विस्थापन के बाद भी आय को बरकरार रखा है। यानी आबकारी विभाग के अफसर सारे कायदे-कानूनों और निर्देशों का पालन करके सरकार की आय को बढ़ा रहे हैं वहीं दूसरी तरफ प्रायोजित विरोध की स्थिति में कोई उनका साथ देने को तैयार नहीं है। विभाग के अफसर यह सारे उपक्रम सरकार के खजान को भरने के लिए कर रहे हैं। दरअसल शराब का विरोध करने वालों का प्रदेश में एक कॉकस बना हुआ है। वे हर साल शराब की नई दुकानों का विरोध करते हैं ताकि उनकी राजनीतिक रोटी सिकती रहे। यह विरोध केवल दिखावे का होता है। प्रदेश में शराबबंदी की हवा सत्तारूढ़ दल के नेताओं के साथ विपक्ष के कुछ नेता भी दे रहे हैं। अपने-अपने क्षेत्र में खुल रही नई दुकानों को वहां से हटाने के लिए महिलाओं को मोहरा बनाया जा रहा है। स्थिति इतनी विकट है कि कहीं पर तोडफ़ोड़ तो कहीं पर आगजनी, तो कहीं पर मारपीट की जा रही है, लेकिन इन सबके बावजूद शराब की दुकानों पर कतार कम नहीं हो रही है। ऐसे में सवाल यह भी उठता है कि क्या शराबबंदी से प्रदेश में शराबखोरी रुक जाएगी। अगर प्रदेश में शराबबंदी कर भी दी जाती है तो शराबखोरी रुकने वाली नहीं। इससे अपराध की नई-नई तकनीकें विकसित होंगी, शराब की तस्करी बढ़ेगी, नशाखोरी के लिए अन्य नशीले पदार्थों का उपयोग बढ़ेगा। ऐसे में सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि क्या शराबबंदी से प्रदेश की जनता नशे से मुक्त हो पाएगी। अभी हाल ही में जिस बिहार में शराबबंदी की गई है वहां की रिपोर्ट बताती है कि शराबबंदी के बाद से वहां नशीले पदार्थों की तस्करी बढ़ गई है। पड़ोसी राज्यों से शराब का अवैध कारोबार धड़ल्ले से चल रहा है, गांव-गांव में कच्ची शराब बनाई जा रही है। फिर ऐसी शराबबंदी किस काम की। नशीले पदार्थों तथा शराब के अवैध कारोबार से बिहार को न केवल राजस्व हानि हो रही है बल्कि जान-माल का खतरा भी बना हुआ है। ऐसे में मध्यप्रदेश सरकार को भी शराबबंदी से पहले हजार बार सोचना होगा कि क्या शराबबंदी से प्रदेश अपराध मुक्त हो जाएगा, क्या प्रदेश में नशाखोरी रुक पाएगी? सरकार को यह भी तहकीकात करनी चाहिए कि प्रदेश में शराब का विरोध करने वाले लोग कौन हैं। उन नशीले पदार्थों की बात कोई नहीं कर रहा है जो सरकार को आमदनी भी नहीं देता और जिसका नशा युवा पीढ़ी को बर्बाद कर रहा है। हुक्का लाऊंज में युवा पीढ़ी अपने फेंफड़े बर्बाद कर रही है। गांजा, स्मैक , ब्राऊन शुगर, अफीम, चरस के  सेवन से नौजवानों के साथ बच्चे कई तरह के नशे कर रहे हैं लेकिन उनकी ओर सरकार का कोई ध्यान नहीं है। यदि प्रदेश में सरकार अपने स्तर पर शराबबंदी करती है तो यह मंसूबा 8000 करोड़ रूपए की चपत के साथ पूरा होगा। लाख टके का सवाल तो यह है कि 8000 करोड़ की भरपाई सरकार किसकी जेब से करेगी? अगर शराबबंदी वाले देशों की सूची पर निगाह दौड़ाई जाए तो सऊदी अरब, ईरान, कुवैत, यमन, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान जैसे कई इस्लामिक देशों में शराबबंदी हैं क्योंकि इस्लाम में शराब पर पाबंदी है। ब्रूनेई, मलेशिया, मालदीव जैसे देशों में मुसलमानों को शराब पर पाबंदी है लेकिन गैर मुस्लिम को शराब खरीदने और पीने की इजाजत है। अमेरिका जैसे देश में 1920 में शराब पर पाबंदी लगाई गई थी जिसे 1930 में समाप्त कराया। अमेरिका में शराबंबदी के चलते अवैध शराब बिकवाने वाले माफिया पनपे और उन्होंने जमकर चांदी काटी। अमेरिका से सटे मेक्सिको, कनाडा और कैरेबियन जैसे  देशों ने भी इस पाबंदी का जमकर फायदा उठाया।  अमेरिकन शराब पीने वहां जाते थे तो इन देशों की डिस्टलरियों से शराब अवैध तरीके से संगठित गिरोहों ने जमकर बिकवाई। यदि भारत की बात करें तो महात्मा गांधी के प्रदेश गुजरात में सबसे पहले शराबबंदी लागू की गई। उसके बाद आंध्र प्रदेश में एनटी रामाराव ने शराबबंदी लागू की जिसे बाद में वापस लेना पड़ा। इसके पहले मद्रास में भी कुछ समय के लिए शराबबंदी हुई। हरियाणा सरकार ने 1996 में शराबबंदी लागू की लेकिन 1998 में इसे उठा लिया गया। अमेरिका से लेकर भारत के इन राज्यों में शराबबंदी वापस लेने के पीछे वजह यही थी कि सरकार को शराब से आय तो बंद हो गई लेकिन  शराब माफियाओं की चांदी हो गई। ऐसे में अगर मप्र में शराबबंदी होती है तो यहां माफिया राज कायम होगा। क्या मुख्यमंत्री चाहेंगे कि यहां एक नए तरह का माफिया पनपे। -भोपाल से रजनीकांत पारे
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