17-Apr-2017 06:23 AM
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मप्र की कानून और सुरक्षा व्यवस्था की कमान संभालने वाली पुलिस इस कदर काम के बोझ से दबी हुई है कि पुलिसकर्मी मानसिक अवसाद के साथ ही कई बीमारियों से ग्रसित हो रहे हैं। इसका परिणाम यह हो रहा है कि प्रदेश में रोजाना औसतन एक पुलिसकर्मी की मौत बीमारियों की वजह से हो रही है। यह खुलासा पुलिस मुख्यालय की एक रिपोर्ट से हुआ है। दरअसल, 21 अक्टूबर को शौर्य दिवस पर आयोजित कार्यक्रम के दौरान तैयार की गई रिपोर्ट में यह तथ्य सामने आया कि 21 महीनों (1 जनवरी 2014 से 30 सितम्बर 2016) में मप्र पुलिस के 722 जवानों की मौत ड्यूटी के दौरान हो चुकी है। स्थिति ये है कि देशभक्ति-जनसेवा की भावना के साथ काम करने वाली मध्यप्रदेश पुलिस के जवान गंभीर बीमारियों का शिकार हो रहे हैं। इसकी मूल वजह है 14 से 18 घंटे तक की ड्यूटी, अव्यवस्थित दिनचर्या, सुविधाओं का अभाव, राजनीतिक दबाव, काम का तनाव, बेवजह भाग-दौड़, प्रदूषण आदि। एनसीआरबी की रिपोर्ट के अनुसार पिछले 50 साल में करीब 35,000 हजार पुलिसकर्मी अपनी जान गवां चुके हैं। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी पुलिसकर्मियों की मौत पर चिंता जता चुके हैं। जबकि अमेरिका, ब्रिटेन, रूस या अन्य विकसित पश्चिमी देशों में पुलिस पूरी तरह संसाधन युक्त रहती है इस कारण उनकी आकस्मिक मौत न के बराबर होती है।
सरकार की प्राथमिकता में पुलिस नहीं
पुलिस कानून व्यवस्था की पहली दीवार होती है। इसलिए उस पर सबसे अधिक भार होता है। कानून व्यवस्था के साथ ही हड़तालियों, राजनीतिक आयोजनों, धरना-प्रदर्शनों के अलावा आतंकियों, डाकुओं से निपटने की जिम्मेदारी भी पुलिस पर होती है। लेकिन इन सबके बावजूद पुलिस के पास गोली चलाने तक का अधिकार नहीं है। ये सिर्फ गिरफ्तार कर सकते हैं। ऐसे में कई बार पुलिस को नीचा दिखना पड़ता है जिससे वे अवसाद में रहते हैं। दरअसल सरकार की प्राथमिकता में पुलिस है ही नहीं जबकि पुलिस के पास कामों का बोझ सबसे अधिक है। 26/11 का मुंबई पर आतंकी हमला हो या भोपाल जेल ब्रेक पहली शहादत पुलिस को ही देनी पड़ी। आर्मी का एक सिपाही शहीद होता है तो पूरे देश की आंखें नम हो जाती है, लेकिन आंतरिक सुरक्षा की जिम्मेदारी संभालने वाले पुलिसकर्मी की मौत हो जाने की जानकारी भी लोगों तक नहीं पहुंच पाती है। आज देश में जितनी चुनौती आंतरिक शत्रुओं से है उतनी बाहरी से नहीं। फिर भी पुलिस को सशक्त बनाने की दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया जा सका है।
अपराधों पर नियंत्रण के साथ ही पुलिस को नेताओं, अफसरों की चाकरी करनी पड़ती है, साथ ही सरकारें इनका उपयोग राजनीतिक विरोधियों को दबाने में भी करती हैं, लेकिन इन तमाम तरह की चुनौतियों से निपटने के लिए पुलिस के पास आधुनिक संसाधन नहीं हैं।
मूलभूत सुविधाओं का अभाव
आज जहां छोटे-छोटे कारपोरेट ऑफिस में भी कर्मचारियों को आकर्षक वेतन के अलावा तमाम तरह की सुविधाएं दी जा रही हैं, वहीं पुलिस के जवान अभावों और अव्यवस्थाओं के बीच काम करने को मजबूर हो रहे हैं। करीब 14 से 18 घंटे भागमभाग ड्यूटी करने वाले पुलिस को मूलभूत सुविधाएं भी नहीं मिल पा रही हैं। पिछले 10 वर्ष में 6 हजार मकान बने, जबकि हर साल 4 हजार पुलिसकर्मियों की भर्ती हुई है। इस कारण पुलिसकर्मियों को भाड़े के मकान में रहना पड़ रहा है। जबकि एक आरक्षक को मकान किराया मात्र 400-800 रुपए मिलते हैं, जबकि राजधानी भोपाल में 4000 रूपए महीने से नीचे का मकान मिलना मुश्किल है। यही नहीं आवागमन से लेकर पड़ताल तक के लिए उन्हें अपने वाहन और पैसे का उपयोग करना पड़ता है। ऐसे में कई बार पुलिस को अनैतिक गतिविधियों में लिप्त होने की खबरें आती हैं। आखिर पुलिस का एक जवान ऐसा कदम क्यों उठा रहा है इसकी पड़ताल कभी नहीं की गई। आलम यह है की आज भी थानों में जुगाड़ की स्टेश्नरी का उपयोग होता है।
सबसे बड़ी बात यह है कि मप्र पुलिस अपनों द्वारा भी प्रताडि़त की जाती है। छोटी-छोटी बात पर पुलिसकर्मियों को प्रताडि़त किया जाता है। इससे वे परेशान रहते हैं। काम के बोझ, पारिवारिक परेशानियों और ऊपर से प्रताडि़त होने के कारण कभी-कभी तो वे इस कदर अवसाद में चले जाते हैं की वे आत्मघाती कदम भी उठा लेते हैं। प्रदेश में 1 जनवरी 2014 से 30 सितम्बर 2016 के बीच 14 पुलिस कर्मियों ने आत्महत्या की है। इनमें से आठ ने फांसी लगाई, तो चार ने खुद को गोली मार ली।
साफ्ट टारगेट पर पुलिस
देश-प्रदेश में पुलिस हमेशा साफ्ट टारगेट पर रहती है। कोई भी घटना-दुर्घटना हो पुलिस निशाने पर आ जाती है। दरअसल, पुलिस को अपनी ड्यूटी निभाने के साथ ही रेत खनन रोकना, अवैध शराब पकडऩा जैसे कामों में भी लगना पड़ता है। जबकि ये काम जिला प्रशासन के होते हैं। लेकिन देखा गया है कि जिला प्रशासन के जिम्मेदार अधिकारी घर पर सोए रहते है और पुलिस छापेमारी करती है। हालात तो इतने बदतर है कि अगर कभी स्थिति बिगड़ती है तो एसडीएम को मनुहार कर बुलाया जाता है क्योंकि लाठी चार्ज या बिगड़े हालात से निपटने के लिए कलेक्टर या एसडीएम का आदेश होना जरूरी होता है। हद तो यह है की ऐसे हालातों में आत्मरक्षा के लिए पुलिस के पास पर्याप्त संसाधन नहीं हैं। नक्सल पीडि़त राज्यों छत्तीसगढ़ और झारखण्ड में तो नक्सली माइंस लगाकर पुलिस को हताहत करते रहते हैं।
पुलिस के लिए सड़के बनी काल
मप्र की सड़कों पर सबसे अधिक दुर्घटनाएं होती हैं। इन दुर्घटनाओं में आमजन ही नहीं पुलिस भी जान गंवा रही है। दरअसल, काम के दबाव में पुलिस जवान भागमभाग में अनियंत्रित यातायात के शिकार हो जाते हैं। कभी ड्यूटी पर जल्दी पहुंचने, कभी थक-हार कर ड्यूटी से लौटने के कारण वे सड़क दुर्घटना के शिकार हो रहे हैं। प्रदेश में 1 जनवरी 2014 से 30 सितम्बर 2016 के बीच 127 पुलिसकर्मी सड़क दुर्घटना में अपनी जान गंवा चूके हैं। सबसे गौर करने वाली बात यह है कि 1990 से पहले किसी आईपीएस की मौत दुर्घटना में नहीं हुई है। बाद के वर्षों में यातायात के बढऩे और अनियंत्रित होने के कारण कुछ आईपीएस अधिकारियों की सड़क दुर्घटना में मौत हुई है।
छह साल में बंद की आधी योजनाएं
पुलिस को साधन संपन्न बनाने के लिए 2008 में वर्तमान सरकार ने कई योजनाएं चालू की उनमें से आधी 2016-17 में स्वाहा हो गईं। पहले 4 योजनाओं के लिए 20 करोड़ मिलते थे और बाद में 45 योजनाओं के लिए 1 हजार करोड़ रुपए मिलने लगे, लेकिन अब आधी से अधिक योजनाएं बंद होने के कारण बजट 739 करोड़ रूपए कर दिया गया है। सरकार ने भले ही कुछ योजनाएं बंद कर दी है, लेकिन महत्वपूर्ण तो यह है कि सुप्रीम कोर्ट रोड एक्सिडेंट को लेकर हर माह समीक्षा करती है। वहीं ट्रैफिक मैनेजमेंट, राजमार्गों की सुरक्षा, खेल संचालन, थाना चौकी निर्माण आदि महत्वपूर्ण योजनाएं भी बंद हो गई हंै। जबकि राज्यपाल ने भी अपने अभिभाषण में इन 45 योजनाओं का जिक्र किया था, लेकिन सरकार ने उन्हें नकार दिया गया। सरकार के संकल्प और दृष्टि पत्र में भी
लिखा है कि ये 45 योजनाएं चलेंगी। फिर भी आधी से अधिक योजनाएं बंद कर दी गई हैं। ऐसे में पुलिस की लाचारी कैसे दूर हो पाएगी। हालांकि पुलिस को अत्याधुनिक बनाने के लिए 1 नवंबर 2015 को मुख्यमंत्री शिवराज ङ्क्षसह चौहान ने डायल 100 और सीसीटीवी कैमरे जैसी सहूलियते शुरू की। जो आज 15 राज्यों में मप्र की तर्ज पर ही अपनाई गई हैं। मप्र पुलिस को यह सुविधाएं तो मिली, लेकिन पुलिसकर्मियों पर काम का बोझ अभी भी कम नहीं हुआ है।
आधे पुलिसकर्मी की आंखों में दिक्कत, तो किसी को है बीपी और शुगर
प्रदेश में तैनात आधे से ज्यादा पुलिसकर्मी बीमार हैं। उन्हें किसी न किसी बीमारी ने घेर रखा है। वर्तमान में प्रदेश में करीब सवा लाख पुलिस जवान तैनात हैं। इन पुलिस जवानों के हवाले प्रदेश की कानून और सुरक्षा व्यवस्था है। इनमें से आधे से ज्यादा पुलिस जवानों की आंखें कमजोर हैं। यानी कमजोर आंखों से की जा रही है निगरानी। इसका खुलासा पुलिस मुख्यालय के हेल्थ शिविर में हुआ। पिछले साल के दिसंबर माह में हेल्थ शिविर लगाया गया था। दरअसल, हेल्थ शिविर में पुलिस अधिकारी और कर्मचारियों का स्वास्थ्य परीक्षण किया गया। शिविर में पहुंचे अधिकतर पुलिस जवान किसी न किसी बीमारी से पीडि़त थे। सबसे ज्यादा मामले आंखों की कमजोरी के सामने आए। हेल्थ शिविर का आयोजन डीजीपी ऋषि कुमार शुक्ला ने किया था। शिविर में डॉक्टरों की जांच से पता चला कि 37 प्रतिशत जवान डायबिटीज से जबकि 53 प्रतिशत पुलिस जवान आंखों से जुड़ी बीमारी से पीडि़त हैं। 51 प्रतिशत पुलिस जवान ब्लड प्रेशर के शिकार पाये गये। 18 प्रतिशत पुलिस जवानों को दमा और सांस से संबंधित बीमारी है। 24 प्रतिशत पुलिस जवानों में चर्म रोग भी देखने को मिला। हड्डियों की बीमारी से 36 प्रतिशत पुलिस जवान ग्रसित पाये गये। हेल्थ शिविर में आए इन पुलिस कर्मियों को आगे के इलाज के लिए सलाह दी गई। डीजीपी ऋषि कुमार शुक्ला का कहना है कि पुलिसकर्मियों की अनिश्चित ड्यूटी होती है। इस वजह से उनके स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। उनकी आंखों पर भी इसका असर हो रहा है। हमारा प्रयास है कि हमारे सभी साथी अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखें ताकि आंखें खराब होने से पहले ही हम उनकी आंखों का उपचार करवा सकें। मध्यप्रदेश पुलिस को हेल्दी बनाने के लिए योग से लेकर जिम जाकर व्यायाम करने की सलाह दी जा रही है। साथ ही स्वास्थ्य शिविर लगाकर पुलिस जवानों का इलाज भी किया जा रहा है। इतना ही नहीं थाना स्तर पर डॉक्टर सलाह भी दे रहे हैं।
तीन रोगों से लाचार
हैं पुलिस वाले
आपकी सुरक्षा में लगे पुलिस के जवान ही बीमार हैंं। ऐसे में आपकी सुरक्षा कैसे हो पाएगी। बढ़ते काम के बोझ ने मप्र पुलिस की स्फूर्ति को मंद कर दिया है। एक अनुमान के मुताबिक मप्र में तैनात 50 फीसदी से अधिक पुलिसकर्मी किसी न किसी बीमारी से पीडि़त है। प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक सुभाष चंद्र त्रिपाठी कहते हैं कि लगातार काम करने से वे कमजोर होते जा रहे हैं और यही कमजोरी उनको बीमार कर रही है। वह कहते हैं की प्रदेश में मूलभूत सुविधाओं का अभाव तो हैं ही साथ ही पुलिस पर काम का बोझ भी है। उधर जानकारों की मानें तो प्रदेश की पुलिस मुख्यत: अस्थमा, डायबटीज, हाई ब्लड प्रेशर से जूझ रही है। चौराहे पर तैनात रहने वाले ट्रैफिक कर्मी भी बीमार हैं। 40 फीसदी से अधिक ट्रैफिक पुलिस कर्मी सांस की बीमारी से ग्रसित हैं। जो स्वस्थ हैं भी, वे तेजी से इस बीमारी की ओर बढ़ रहे हैं। इसका कारण यह है कि चौराहे पर खड़े रहकर यातायात का संचालन करने के दौरान वाहनों से निकलने वाले धुएं को भी फांकते रहते हैं। पुलिस अस्पताल के एक कर्मचारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि बीमार पुलिसकर्मी को छुट्टी उस स्थिति में मिलती है जब वह बिलकुल भी काम करने के लायक नहीं रहता है और आराम करना जरूरी हो जाता है। चिकित्सकों का कहना है की हर आदमी को आराम की जरूरत पड़ती है। लेकिन प्रदेश के पुलिसकर्मियों के काम करने के घंटे तय नहीं है। ऐसे काम के बोझ से दबे पुलिसकर्मी इन बीमारियों का आसानी से शिकार हो रहे हैं। 24 घंटे में वैसे तो सरकारी नियम के हिसाब से आठ घंटे की नौकरी है लेकिन प्रदेश के पुलिसकर्मियों का ड्यूटी टाइम निश्चित नहीं है। जब जरूरत पड़ी, तब इनको दौड़ लगानी पड़ती है। चाहे दिन हो या रात ये पुलिस वाले सोने के लिए भी तरस जाते हैं। राष्ट्रीय पाक्षिक अक्स ने कुछ पुलिसकर्मियों से बात की तो उन्होंने बताया कि अवकाश लेना है, तो भूल ही जाओ। घर में बेटा या बेटी की शादी है तो चार माह पहले एप्लीकेशन देनी पड़ती है। इसके बाद भी सबूत के तौर पर शादी का कार्ड एप्लीकेशन के साथ लगाना पड़ता है।
कमिश्नर प्रणाली अधर में
मध्यप्रदेश में कमिश्नर प्रणाली लागू करने की बात खूब चलती है, लेकिन लागू नहीं हो पा रही है। इस कारण प्रदेश में अपराध लगातार बढ़ रहे हैं। देश के जिन 60 शहरों में कमिश्नर प्रणाली है उनमें से 20 शहरों में अपराध कम हुए हैं। जबकि मध्यप्रदेश के इंदौर, भोपाल और ग्वालियर अपराध के मामले में देश में अव्वल हैं। इसी तरह कोच्चि और भिलाई में भी कमिश्नर प्रणाली नहीं है। वहां भी अपराध अधिक हो रहे हैं। यानी जिन शहरों में पुलिस कमिश्नर प्रणाली है वहां अपराध पर अंकुश लगा हुआ है। फिर सवाल उठता है कि आखिरकार मप्र में पुलिस कमिश्नर प्रणाली लागू करने में क्या हर्ज है। हालांकि प्रदेश में कमिश्नर प्रणाली लागू करने के लिए सबसे पहले 1980 में तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने कहा था। फिर दिग्विजय सिंह ने अपने कार्यकाल में कमिश्नर प्रणाली लागू करने की बात कही थी, लेकिन वे भी चलते बने। वर्तमान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी 2012 में कमिश्नर प्रणाली लागू करने की बात कही थी। आज करीब पांच साल बाद भी बात आगे नहीं बढ़ सकी। यही नहीं प्रदेश में आज तक पुलिस एक्ट नहीं बन पाया, जबकि 2006 में सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस एक्ट बनाने के लिए कहा था। लेकिन संतोषजनक बात यह है कि तमाम तरह की समस्याओं और असुविधाओं के बाद भी मध्यप्रदेश पुलिस पिछले पांच साल से कानून व्यवस्था बनाए रखने में चौथे स्थान पर रही।
सरकारी अस्पतालों में आज भी नियमित डॉक्टर नहीं
एक तरफ पुलिस के जवान बीमार हो रहे हैं दूसरी तरफ पुलिस विभाग के 60 से ज्यादा सरकारी अस्पतालों में आज भी नियमित डॉक्टर नहीं हैं। कई अस्पताल तो लगभग खंडहर में ही तब्दील हो गए हैं। इनमें गृहमंत्री भूपेंद्र सिंह के जिले सागर स्थित पुलिस अस्पताल भी शामिल है, जहां दो साल में 17 मौतें हुईं हैं। रिपोर्ट के अनुसार 595 पुलिसकर्मी बीमारी के चलते कालकवलित हुए हैं। वहीं सबसे ज्यादा मौतें दिल का दौरा पडऩे से हुई। सामान्य बीमारियों में समय रहते इलाज शुरू न होने से भी 67 मौत हुईं। ब्रेन हेमरेज से 17, लकवे से 9, पीलिया के चलते 46, ब्लड प्रेशर बढऩे से 2, डायबिटीज से किडनी खराब होने के कारण सात और टीबी से 17 मौतें हुई। भोपाल पुलिस रेडियो में पदस्थ पांच पुलिसकर्मियों की मौत वर्ष 2016 जनवरी से अगस्त के बीच हुई। इनमें निरीक्षक रेडियो राजीव शर्मा की मौत लीवर खराब होने से तो सहायक उपनिरीक्षक रमेशचंद्र कटोच का हार्ट अटैक के चलते निधन हो गया। उप निरीक्षक रंगलाल उइके की मौत की वजह सामने नहीं आई, तो दो अन्य की मौत का कारण कैंसर बना। देखा जाए तो अक्टूबर 2015 से सितंबर 2016 के बीच ही राजधानी में 30 पुलिसकर्मियों की मौत हुई, जो प्रदेश में सबसे ज्यादा थी। ये आंकड़े इस बात का संकेत है की पुलिस कर्मियों का रूटीन चेकबप भी नहीं हो पा रहा है। गृहमंत्री भूपेंद्र सिंह इस संबंध में कहते हैं कि यह चिंता का विषय है इस संबंध में विभाग से बात करके अस्पतालों में डॉक्टरों की व्यवस्था जल्द कराई जाएगी। विभाग इस कोशिश में लगा है कि पुलिस को तमाम तरह की सुविधाएं मुहैया कराई जाए।