01-Apr-2017 09:42 AM
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विवर वृन्द का यह दोहा ....
करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत-जात के, सिल पर परत निशान।।
यह दोहा हर स्कूलों में दोहराया जाता है, हर उपदेश में प्रस्तुत किया जाता है, ताकि इससे प्रेरणा ली जा सके, लेकिन मध्यप्रदेश की स्कूली शिक्षा में इसका असर कहीं नजर नहीं आता है। मध्यप्रदेश में स्कूली शिक्षा को बेहतर बनाने के लिए पिछले एक दशक में जितनी योजनाओं को शुरू किया गया है, जितना प्रयोग किया गया है, जितना बजट दिया गया है उतना शायद ही किसी अन्य राज्य में हुआ होगा। लेकिन इन सबके बावजूद प्रदेश में स्कूली शिक्षा दिन पर दिन बदत्तर होती जा रही है। इसकी सबसे बड़ी वजह है सरकारी स्कूलों की शिक्षण व्यवस्था की बदहाली और निजी स्कूलों के प्रति लोगों की बढ़ती विश्वसनीयता। आज स्थिति यह है कि सरकार के तमाम सुविधाओं के दावे के बाद भी सरकारी स्कूल खाली होते जा रहे हैं, जबकि शिक्षा की महंगी दुकान बने निजी स्कूलों में डोनेशन और महंगी फीस के बाद भी एडमिशन को लेकर मारामारी है। एक तरफ बुनियादी सुविधाओं के अभाव के कारण सरकारी स्कूलों में बुलाने पर भी बच्चे पढऩे नहीं जाते हैं और दूसरी तरफ निजी स्कूलों में बेहतर पढ़ाई के नाम पर शोषण किया जा रहा है। इसका परिणाम यह हो गया है कि शिक्षा खुद सिसक रही है। क्योंकि आज उसका भी बंटवारा अमीरी और गरीबी में हो गया है। यानी अमीरी या अच्छी शिक्षा की आस में एक वर्ग निजी स्कूलों में अपने बच्चों को सालाना लाखों रूपए की फीस देकर पढ़ा रहा है तो दूसरी तरफ गरीब तबका भावहीन, शिक्षकहीन सरकारी स्कूलों में अपने बच्चे को पढ़ाने पर मजबूर है। ऐसे में सबको समान शिक्षा की कल्पना कैसे की जा सकती है।
पिछले एक दशक में मध्यप्रदेश विकास के पैमाने पर भले ही बीमारू राज्य की श्रेणी से बाहर निकलकर विकसित राज्य बन गया है, लेकिन शिक्षा के मामले में आज भी बीमारू की श्रेणी में है। मध्यप्रदेश में स्कूल शिक्षा का स्तर क्या है इसका खुलासा एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट (एएसईआर) में हुआ है। रिपोर्ट के अनुसार, मध्यप्रदेश में कक्षा 5 के केवल 34.1 फीसदी बच्चे ही कक्षा दो के पाठ ठीक से पढ़ सकते हैं। विभिन्न सामाजिक और गैर सरकारी संगठनों द्वारा जारी रिपोर्ट में भी मध्यप्रदेश की शिक्षा व्यवस्था को सबसे बदहाल बताया गया है। आलम यह है कि देश में बिहार, उत्तर प्रदेश और राजस्थान से ही मध्य प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था बेहतर है यानी वह शिक्षा के मामले में नीचे से चौथे स्थान पर है।
भारी बजट के बाद भी नहीं सुधरी स्थिति
ऐसा नहीं है कि राज्य सरकार बच्चों की पढ़ाई को लेकर गंभीर नहीं है। इन सबके बावजूद प्रदेश सरकार द्वारा बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए स्कूल शिक्षा विभाग के बजट में बारहवीं पंचवर्षीय योजना के प्रारंभिक वर्ष 2012-13 की तुलना में वर्ष 2017-18 के बजट में 114 प्रतिशत से अधिक का इजाफा किया गया है। साल 2011-12 में स्कूल शिक्षा का बजट 10 हजार 43 करोड़ था। वहीं साल 2015-16 में ये 15 हजार 749 करोड़ तक पहुंचा। इस वर्ष 2017-18 में विभाग के कुल बजट में 19 हजार 872 करोड़ 89 लाख का प्रावधान किया गया है। लेकिन नतीजा कुछ खास असर दिखाने वाला साबित नहीं हुआ। सरकारी स्कूलों की हालात खस्ता है, परीक्षा फल हर साल गिरता जा रहा है। शिक्षा का स्तर तमाम कोशिशों के बाद भी नहीं बदल रहा है, लिहाजा हर साल करोड़ों के हिसाब से खर्च होने वाली इस राशि का इस्तेमाल कैसे किया जा रहा है, इस पर भी सवाल खड़ा होता है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या केवल बजट से ही शिक्षा व्यवस्था दुरूस्त हो सकती है। सरकार हर साल स्कूली शिक्षा को बेहतर बनाने के लिए बड़ा बजट देती है, लेकिन बदहाली भी उतनी ही बड़ी होती जा रही है।
मप्र के बच्चे पढ़ाई में सबसे कमजोर
लगातार गिर रहे सरकारी स्कूलों के रिजल्ट को उठाने की कोशिश कर रही मध्य प्रदेश सरकार के लिए मुश्किलें और बढ़ गई हैं। नेशनल काउन्सिल ऑफ एजुकेशनल रिसर्च एंड ट्रेनिंग (एनसीईआरटी) की रिपोर्ट के मुताबिक मध्य प्रदेश के बच्चे, देश भर में सबसे कमजोर हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, मध्य प्रदेश के स्कूलों में छात्र-छात्राएं हर विषय की पढ़ाई के औसत से भी कमजोर हैं। नेशनल काउंसिल ऑफ एजुकेशनल रिसर्च एंड ट्रेनिंग के नेशनल अचीवमेंट सर्वे में ये पहलू सामने आया है। पहली बार मध्य प्रदेश समेत तमाम राज्यों में ये सर्वे हुआ है, जिसमें राज्यों में पढ़ाई कर रहे बच्चों की वास्तविक स्थिति का जायजा लिया गया है। इस सर्वे में मध्य प्रदेश की स्थिति सबसे खराब दर्शाई गई है।
पठन-पाठन का स्तर 32 फीसदी
मध्यप्रदेश के छात्र पढऩे और गणितीय कौशल में भारत के दूसरे राज्यों के छात्रों से सबसे पीछे हैं। यहां प्राथमिक कक्षाओं से उच्च कक्षाओं में जाने का दर राष्ट्रीय औसत से कम है। राज्य के स्कूलों में एक कमरे को अलग-अलग कक्षाओं के छात्र साझा करते हैं। साथ ही सरकारी प्राथमिक स्कूलों में 17.6 फीसदी शिक्षकों की कमी है। मध्यप्रदेश के ग्रामीण इलाकों में सीखने का स्तर भारत में सबसे बद्तर है। वर्ष 2016 शिक्षा रिपोर्ट (एएसईआर) की वार्षिक स्थिति के अनुसार, ग्रामीण इलाकों में सर्वेक्षण किए गए बच्चों में से कक्षा पांच के केवल 34 फीसदी छात्र दूसरी कक्षा की किताबें ठीक से पढ़ सकते हैं। यह दूसरा सबसे कम आंकड़ा है। सबसे कम आंकड़े असम के हैं। रिपोर्ट के अनुसार, कक्षा पांच के केवल 31 फीसदी छात्र हैं, जो गणित में घटाव कर सकते हैं। ये आंकड़े देश में सबसे कम हैं। एकीकृत जिला सूचना प्रणाली (यू-डीआईएसई) फ्लैश सांख्यिकी 2015-16 के अनुसार, मध्य प्रदेश में प्राथमिक (कक्षा पांच) से उच्च प्राथमिक (कक्षा 6) में जाने वाले छात्रों का दर 88.67 फीसदी है। यह राष्ट्रीय औसत के 90 फीसदी के आंकड़ों से कम है। उच्च प्राथमिक स्तर पर, सीखने का स्तर भी बदतर है। सातवीं कक्षा के केवल 18 फीसदी छात्र अंग्रेजी के वाक्य पढऩे में सक्षम हैं। यह आंकड़ा देश में सबसे कम हैं। जो छात्र अंग्रेजी के वाक्य पढ़ सकते हैं, उनमें से केवल 43 फीसदी वाक्य का अर्थ बता पाने में सक्षम हैं। इस मामले में भी मध्यप्रदेश देशभर में सबसे पीछे है। इससे एक बात साफ है कि छात्र उच्च प्राथमिक कक्षा में जाने के बावजूद अन्य राज्यों के छात्रों की तुलना में खराब प्रदर्शन कर रहे हैं।
छठवीं के बच्चे नहीं पहचान पाते हिंदी के अक्षर
सरकारी स्कूलों में कक्षा आठ में पढऩे वाले 3.3 प्रतिशत बच्चे हिंदी के अक्षर तक नहीं पहचान पाते। कक्षा पांच में पढऩे वाले 56.8 प्रतिशत बच्चे कक्षा तीन की किताब नहीं पढ़ पाते। जहां तक अक्षर पहचानने की बात है तो कक्षा 1 में 49.7 प्रतिशत, कक्षा 2 में 27.3 प्रतिशत और कक्षा तीन में 16.2 प्रतिशत बच्चे कोई अक्षर या अंक नहीं पहचान पाते। इस तथ्य को सभी बिना तर्क से स्वीकार कर लेंगे कि सरकारी स्कूल से पांचवीं पास करने वाला बच्चा गुणा-भाग करने में फेल हो जाता है। संस्था प्रथम द्वारा किए गए अध्ययन में कहा गया है कि पहली दूसरी कक्षा में कमजोर नींव के कारण बच्चे 3 से 5 में अक्षर भी नहीं पहचान पाते हैं। स्कूलों में बच्चों की उपस्थिति औसतन 55.8 प्रतिशत है। लगभग 44.2 प्रतिशत बच्चे नाम लिखाने के बाद भी बच्चे स्कूल नहीं जा रहे हैं। यह रिपोर्ट 6 से 16 साल की आयुवर्ग के बच्चों पर तैयार की है। इसमें बताया गया है कि 15-16 साल की उम्र पूरी करते ही 25 प्रतिशत लड़कियां स्कूल जाना छोड़ देती हैं। वहीं 19 प्रतिशत लड़के भी इस उम्र में पढ़ाई छोड़ देते हैं। रिपोर्ट के अनुसार, 6 से 14 साल के बच्चों का एनरोलमेंट 95 प्रतिशत के करीब है। इनमें 40.2 प्रतिशत सरकारी स्कूलों में और 52.1 प्रतिशत निजी स्कूलों में जा रहे हैं। कुछ बच्चे अन्य संसाधनों से पढ़ाई कर रहे हैं। 5 प्रतिशत से अधिक बच्चे अब भी स्कूल नहीं जा रहे। हालांकि अध्यापक क्या पढ़ा रहे हैं और बच्चे क्या पढ़ रहे हैं, यह रिपोर्ट में झलक रहा है।
एक-एक शिक्षक के सहारे चलते हैं 18 हजार स्कूल
कई मामलों में देश अव्वल दर्जा हासिल करने वाला मध्यप्रदेश सबसे बुनियादी मामले में देश भर में पिछड़ा हुआ है। कृषि, पर्यटन, सौर ऊर्जा ऐसे कई क्षेत्र हैं जिनके मामले में मध्यप्रदेश का पूरे देश में बोलबाला है लेकिन शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधा के मामले में मध्यप्रदेश बुरी तरह से पिछड़ा हुआ है। सूबे के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन करना चाहते है, उन्होंने स्कूल चले हम अभियान को सफल बनाने के लिए कई प्रयास किए हैं। प्रदेश में सब पढ़े, सब बढ़े का नारा देकर बच्चों को स्कूल जाने के लिए प्रेरित किया जा रहा है, लेकिन लुभावने नारे बुलंद करने वाली सरकार के राज में प्रदेश में स्कूलों में शिक्षकों की कमी बहुत बड़ी समस्या बन गयी है। हालात ये है कि यूनिफार्म, किताबों से लेकर मध्यान्ह भोजन और साइकिल जैसी सौगाते देने के बाद बच्चे स्कूल पहुंच रहे हैं लेकिन स्कूलों में पढ़ाने वाले शिक्षक नदारद है।
दरअसल, प्रदेश में ऐसे स्कूलों की संख्या 17 हजार 972 के पास पहुंच गयी है, जिनमें एक मास्टर के भरोसे पूरे स्कूल के बच्चों को पढ़ाया जा रहा है। ये खुलासा संसद के मानसून सत्र में पेश की गयी मानव संसाधन विकास मंत्रालय की रिपोर्ट में हुआ है। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि राज्य में कुल एक लाख 14 हजार 444 सरकारी विद्यालय हैं, इनमें प्राथमिक व माध्यमिक विद्यालय शामिल हैं। इन विद्यालयों में छह से 13 वर्ष की आयु के कुल एक करोड़ 35 लाख 66 हजार 965 बच्चे पढ़ते हैं। राज्य के 5,295 विद्यालय ऐसे हैं, जिनमें शिक्षक ही नहीं है। 65 हजार 946 विद्यालयों में तो महिला शिक्षक ही नहीं है। वर्तमान में प्रदेश में प्राथमिक स्तर पर प्रति 48 तथा माध्यमिक स्तर पर प्रति 36.8 विद्यार्थियों पर एक शिक्षक की उपलब्धता है। इसके अलावा प्रदेश की 52.52 प्रतिशत यानि 12,760 माध्यमिक शालाओं के पास अपना स्वयं का भवन नहीं है तथा प्रदेश की 2.70 प्रतिशत यानि 2197 प्राथमिक शालाओं के पास अपना स्वयं का भवन नहीं है। आज प्रदेश की प्राथमिक व माध्यमिक स्तर की क्रमश: 48900 (60.12 प्रतिशत) तथा 15413 (63.44 प्रतिशत) शालाओं में खेल का मैदान नहीं है। प्रदेश की 24.63 प्रतिशत प्राथमिक शालाओं तथा 63.44 प्रतिशत माध्यमिक शालाओं में पेयजल की अनुपलब्धता है। इसी प्रकार प्रदेश की 47.98 प्रतिशत प्राथमिक शालाओं तथा 59.20 प्रतिशत माध्यमिक शालाओं में शौचालयों की अनुपलब्धता है साथ ही इसी से जुड़ी एक और समस्या वह यह कि बालिका शिक्षा प्रोत्साहन को लेकर बड़े-बड़े दावे करने वाले इस राज्य में प्राथमिक व माध्यमिक स्तर की क्रमश:56866 (69.91 प्रतिशत) तथा 15413 (63.44 प्रतिशत) शालाओं में बालिकाओं के लिए पृथक से शौचालय की व्यवस्था नहीं है।
दुख इस बात का है कि शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009, 1 अप्रैल, 2010 से प्रभावी तौर पर लागू है और इस अधिनियम को लागू हुए सात साल हो गए, लेकिन शिक्षा को लेकर जो हमारा सपना था, वो कहीं भी रूप लेता नहीं दिख रहा। हम वहीं खड़े हैं, जहां से चले थे, अगर कुछ बदला है तो वह केवल समय और यही समय आज सवाल पूछ रहा है कि आखिर शिक्षा की दुर्दशा का जिम्मेदार कौन है? कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो देश के ज्यादातर प्राथमिक स्कूलों के बुरे हाल हैं। इन स्कूलों की मुख्य समस्या विद्यार्थियों के अनुपात में शिक्षक का न होना है। अगर शिक्षक हैं भी, तो वे काबिल नहीं। शिक्षकों की तो बात ही छोड़ दीजिए, ज्यादातर स्कूलों में बुनियादी सुविधाएं भी न के बराबर हैं। शिक्षा अधिकार अधिनियम के मुताबिक स्कूलों में ढांचागत सुविधाएं मुहैया कराने के लिए 2012 तक का वक्त तय किया गया था। गुणवत्ता संबंधी शर्तें पूरी करने के लिए 2015 की समय-सीमा रखी गई। मगर कानून के मुताबिक न तो स्कूलों में शिक्षकों की नियुक्ति हुई है और न ही बुनियादी सुविधाओं का विस्तार हुआ है। इससे समझा जा सकता है कि शिक्षा अधिकार अधिनियम को हमारी सरकारों ने कितनी गंभीरता से लिया है। आजादी के सत्तर साल में भी सरकारी नियंत्रण वाले प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों में न तो शिक्षा का स्तर सुधर पा रहा है और न ही इनमें विद्यार्थियों को बुनियादी सुविधाएं मिल पा रही हैं। जाहिर है कि सरकारी स्कूलों में शिक्षा के सुधार के लिए जब तक कोई बड़ा कदम नहीं उठाया जाता, तब तक हालात नहीं बदलेंगे।
गरीबों के लिए आरक्षित 70 फीसदी सीटें हैं खाली
मध्यप्रदेश में शिक्षा का अधिकार (आरटीई) कोटे की कम से कम 70 फीसदी सीटें भरी नहीं हैं। आरटीई अधिनियम (2009) के तहत सभी निजी, गैर सहायता प्राप्त प्राथमिक स्कूलों में एक चौथाई सीटें गरीब छात्रों की मुफ्त शिक्षा के लिए होनी चाहिए। वर्ष 2016 में आरटीई कोटे पर केवल 170000 छात्रों का दाखिला कराया गया है, जबकि 420,000 से ज्यादा सीटें आरक्षित थीं।
आखिर दोषी कौन...?
प्रदेश में शिक्षा की बद से बदतर हालत के लिए कुछ हद तक हमारा समाज भी जिम्मेदार है। इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि देश के अधिकतर अभिभावक मौजूदा दौर को देखते हुए अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम या फिर मिशनरी स्कूल में पढ़ाना चाहते हैं। इसके पीछे कारण है, अंगे्रजी एवं मिशनरी स्कूलों में शिक्षा का जो अत्याधुनिक रूप है उसके सामने सरकारी शिक्षा कहीं भी नहीं टिकती। इससे सरकारी स्कूलों की स्थिति दिन पर दिन खराब होती जा रही है। मध्यप्रदेश के सरकारी स्कूलों के सभी प्राथमिक शिक्षण पदों में से करीब 17.6 फीसदी (लगभग 64,000) रिक्त हैं। करीब 78 फीसदी स्कूलों में कक्षा दो के छात्र किसी और कक्षा के साथ पढऩे का कमरा साझा कर रहे थे। इसी तरह ऐसे स्कूलों की भी संख्या बढ़ी है, जहां कक्षा 4 के छात्र अन्य कक्षा के छात्रों के साथ पढऩे का कमरा साझा कर रहें हैं। कक्षा 1 से 8 के छात्रों पर वर्ष 2011-12 से 2014-15 के बीच प्रति छात्र सरकारी व्यय में 50 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। लेकिन इसका लाभ कहीं नहीं दिखाई दे रहा है। दरअसल, सरकारी शिक्षा की बदहाली में सरकार और समाज बराबर के दोषी हैं।
17,884 स्कूलों में मात्र एक शिक्षक
मप्र में शिक्षा की बदहाली का आलम यह है कि यहां 17,884 स्कूल केवल एक अध्यापक के भरोसे चल रहे हैं। संसद में पेश की गई एक रिपोर्ट में इसका खुलासा हुआ है। रिपोर्ट के मुताबिक, देश में करीब 1,05,630 प्राथमिक और माध्यमिक सरकारी स्कूल ऐसे हैं जहां केवल एक शिक्षक ही स्कूल का संचालन कर रहा है। इस मामले में सबसे खराब स्थिति मध्य प्रदेश की है। दूसरे स्थान पर उत्तर प्रदेश है जहां 17,602 सरकारी स्कूल ऐसे हैं, जहां सिर्फ एक ही शिक्षक मौजूद है। तीसरे स्थान पर राजस्थान (13,575), चौथे स्थान पर आंध्र प्रदेश (9,540) और पांचवे पर झारखंड (7,391) है। जानकारों का कहना है कि यह तो महज सरकारी आंकड़े हैं, अगर जांच हो तो असल स्थिति इससे भी खराब हो सकती है।
बच्चों के बेहतर भविष्य के लिये हर तरह के उपाय हो रहे हैं
स्कूल शिक्षा मंत्री कुंवर विजय शाह का कहना है कि प्रदेश में सरकारी स्कूलों का स्तर सुधारने के लिए निरंतर प्रयास हो रहे हैं। वह कहते हैं सरकारी स्कूलों में बिजली की व्यवस्था के लिये मुख्यमंत्री शाला ज्योति योजना में 35 करोड़ का प्रावधान किया गया है। स्कूलों की प्रयोगशालाओं में उपकरण के लिये 27 करोड़ और माध्यमिक शालाओं में फर्नीचर के लिये 30 करोड़ का प्रावधान किया गया है। सरकारी प्राथमिक, माध्यमिक हाई स्कूल और हायर सेकेण्डरी शाला भवनों की मरम्मत के लिये 45 करोड़ का प्रावधान किया गया है। वह कहते हैं कि शिक्षा के अधिकार अधिनियम के तहत प्रायवेट शालाओं में कमजोर वर्ग के 8 लाख बच्चों को वर्ष 2016-17 में इसका लाभ दिलवाया गया है। नि:शुल्क प्रवेश लेने वाले बच्चों की फीस की प्रतिपूर्ति के लिये वर्ष 2017-18 में विभागीय बजट में 214 रुपये का प्रावधान किया गया है। प्रदेश में 8 विभाग की लगभग 30 प्रकार की छात्रवृत्तियां समग्र शिक्षा पोर्टल के माध्यम से ऑनलाइन स्वीकृत की गयी हैं। मिशन वन क्लिक योजना में करीब 64 लाख विद्यार्थी को 395 करोड़ की छात्रवृत्ति उनके खाते में पहुंचायी गयी है। कक्षा-1 से 8 तक के सभी छात्रों को 2 जोड़ी गणवेश के लिये वर्ष 2017-18 में करीब 303 करोड़ का प्रावधान किया गया है।
आठ साल में नहीं बन पाया फीस नियंत्रण कानून
निजी स्कूलों द्वारा ली जा रही मनमानी फीस पर रोक लगा पाने में सरकार नाकाम साबित हो रही है। 2009 से अब तक अर्चना चिटनिस, पारस जैन सहित 4 शिक्षा मंत्री आ चुके हैं। फीस का मामला हाईकोर्ट में 2012 से चल रहा है, लेकिन इतने सालों बाद भी निजी स्कूलों की मनमानी फीस वसूली पर अंकुश लगाने फीस नियंत्रण कानून नहीं बन पाया। सरकार की हीलाहवाली के चलते निजी स्कूल 5 सालों में 50 से 60 प्रतिशत तक फीस बढ़ा चुके हैं। इस साल फिर 10 से 25 प्रतिशत तक फीस बढ़ाने की फिराक में हैं। अपै्रल से शुरू हो रहे नए सत्र को देखते हुए कुछ स्कूलों ने फीस में 10 से 20 प्रतिशत यानी 2000 रुपए तक का इजाफा कर अभिभावकों को फीस डायरी भी पकड़ा दी है, लेकिन फीस में राहत के नाम पर अभिभावकों को सिर्फ आवश्वासन ही मिल पा रहा। शिक्षा मंत्री कुंवर विजय शाह ने हाल ही में फीस नियंत्रण कानून के संबंध में भोपाल में प्रदेश के निजी स्कूलों की बैठक बुलाकर रायशुमारी की। बैठक में सिर्फ स्कूलों के सुझाव लिए गए। स्कूल संचालकों को ये संकेत तक दे दिए गए कि प्रस्तावित फीस नियंत्रण कानून में स्कूल के हिसाब से 5 केटेगरी तय की जाएंगी और स्कूलों को 10 प्रतिशत फीस हर साल बढ़ाने की छूट रहेगी।
फीस जमा करा रहे पूरे 12 महीने की
निजी स्कूल शिक्षा के नाम पर अभिभावकों को लूटने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहे। स्कूलों द्वारा हर साल की जाने वाली फीस वृद्घि का मामला हो या हर एनसीईआरटी की सस्ती किताबों को दरकिनार कर अभिभावकों पर जबरिया दबाव बनाकर निजी प्रकाशकों की महंगी किताब, यूनिफार्म खरीदवाने का मामला हो। निजी स्कूलों की मनमानियां सिर्फ यहीं खत्म नहीं होती। शिक्षा को व्यवसाय बना चुके ज्यादातर सीबीएसई स्कूल अपै्रल में नया शिक्षण सत्र शुरू कर 10 महीने की बजाए अभिभावकों से मई-जून की फीस सहित पूरे 12 महीने की फीस लेने लगे हैं।
यूनिफॉर्म के नाम पर भी मुनाफाखोरी
निजी स्कूलों में किताबों के साथ ही यूनिफॉर्म के नाम पर भी मुनाफाखोरी हो रही है। इसके निर्माण से लेकर वितरण तक में स्कूलों की मोटी हिस्सेदारी होती है। यूनिफॉर्म का यह काला धंधा पर्दे के पीछे होता है। न तो निर्माता का पता होता है न ही कीमत का। 250 से 300 रुपए में तैयार होने वाली यूनिफॉर्म की कीमत बाजार में 600 रुपए हो जाती है। बच्चों के साइज के अनुसार फुल सेट 700 से एक हजार रुपए में बेचा जाता है। यूनिफॉर्म निर्माण के लिए स्कूलों द्वारा न तो टेंडर निकाला जाता है न ही सूचना सार्वजनिक की जाती है। पूरा कारोबार कच्चे में होता है। इसकी एक बड़ी वजह सेल्स टैक्स, इनकम टैक्स से बचना है। स्कूल प्रबंधन गुपचुप तरीके से छात्रों की संख्या के अनुसार यूनिफॉर्म का निर्माण और वितरण करता है।