16-May-2013 06:46 AM
1234810
ज्यादा दिन नहीं बीते जब एक खबर सुनने को मिली थी कि भारत की जनसंख्या में स्त्री-पुरुष अनुपात अपेक्षाकृत सुधरा है लेकिन इस खुशखबरी पर एक और खबर ने पानी फेर दिया जब पता चला

कि भारत में माताओं की स्थिति पाकिस्तान, नेपाल और बांग्लादेश से भी बदतर है। यह आंकलन स्वयंसेवी संस्था सेव द चिल्ड्रन ने किया है जिसकी ताजा रिपोर्ट में बताया गया है कि पूरी दुनिया में माताओं और शिशुओं की मृत्यु में भले ही कमी आई हो, लेकिन भारत जैसे देशों में यह अभी भी चुनौती है। संस्था की 186 देशों को लेकर तैयार की गई रिपोर्ट में भारत को 142वां स्थान मिला है जबकि पाकिस्तान 139वें, बांग्लादेश 136वें और नेपाल 121 वे स्थान पर हैं। इतना ही नहीं दुख की बात तो यह है कि प्रसव के दौरान होने वाली मौतों के मामले में भी भारत पहले स्थान पर हैं जहां हर वर्ष 56 हजार माताएं बच्चों को जन्म देते समय दम तोड़ देती हैं। भारत की प्रगति पर बदनुमा दाग है यह रिपोर्ट जिसमें नवजात शिशुओं और माताओं की देखभाल के मामले में हमारा देश बहुत पीछे रह गया है। इससे पता चलता है कि भारत में हो रही घनघोर आर्थिक प्रगति का लाभ आम जनता में समान रूप से वितरित नहीं हो पा रहा है।
पुरूष-महिला का लिंग अनुपात सुधरा
पुरूष और महिला लिंग अनुपात में सुधार हुआ हैं किन्तु बच्चे-बच्चियों का अनुपात घटकर प्रति हजार बच्चों पर 914 बच्चियां रह गया। वर्ष 2011 की जनगणना भले ही 2001 के मुकाबले पुरूष-महिला लिंग अनुपात के मामले में प्रति हजार पुरूष पर महिलाओं का आंकडा सात अंक सुधरकर 933 की बजाय 940 दर्शाती हो लेकिन आने वाले एक दशक में इस संख्या में लगभग 13 अंक की गिरावट की आशंका भी है। जनगणना 2011 में अस्थायी आंकडे के मुताबिक 2001 में प्रति एक हजार पुरूष पर 933 महिलाएं थीं, जो 2011 में बढकर प्रति एक हजार पुरूष 940 महिला हो गयी यानी दस साल में सात अंक की बढोतरी दर्ज की गयी इसी तरह आंकड़े ये भी कहते हैं कि छह वर्ष तक के बच्चे बच्चियों के वर्ग में 2001 का आंकडा जहां प्रति हजार बच्चों पर 927 बच्चियों का था, वह 2011 में 13 अंक घटकर प्रति हजार बच्चों पर 914 बच्चियां रह गया। इसी गणना को आधार बनायें तो पुरूष और महिला लिंग अनुपात में 2011 में दर्ज किये गये सुधार के अगले एक दशक में वापस 2001 की स्थिति में लौटने की आशंका है।
स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण राज्य मंत्री सुदीप बंदोपाध्याय ने लोकसभा में बताया था कि बच्चियों की संख्या में कमी की वजह लोगों का पुत्र को तरजीह देना है। इसके अलावा सामाजिक एवं वित्तीय सुरक्षा के पहलू भी हैं।
21वीं सदी के पहले दशक (वर्ष 2001-11) के बीच देश की आबादी 17.7 फीसद बढ़कर एक अरब 21 करोड़ के पार पहुंच गई है। भारत की कुल आबादी एक अरब 21 करोड़ है। दस साल में आबादी में 181.96 मिलियन की बढ़ोतरी देखी गई है, जो पहले 21. 5 फीसदी थी। 833. 5 मिलियन लोगों में और 377 मिलियन लोग शहर में रहते हैं। इसमें एक मार्च, 2011 को भारत की जनसंख्या 1,21,07,26,932 (करीब 121 करोड़) बताई गई है। पिछले दशक से 2011 में पुरुषों की संख्या में 9.097 करोड और महिलाओं की संख्या में 9.099 करोड की बढोतरी हुई। महिलाओं की वृद्धि दर 18.3 प्रतिशत रही जो पुरुषों के 17.1 प्रतिशत से अधिक है। भारत की आबादी 2001-11 के दौरान 17.7 प्रतिशत बढी जबकि पिछले दशक में यह बढोतरी 21.5 प्रतिशत थी। राज्यों की बात करें तो सबसे अधिक आबादी बिहार में बढ़ी, जहां 25.4 प्रतिशत लोग एक दशक में बढ़ गये। इस दौरान 9 करोड़ 09 लाख 70 हजार पुरुषों की तुलना में महिलाओं की तादाद 9 करोड़, 09 लाख, 90 हजार रही।
सहस्त्राब्दि लक्ष्य से दूर
शोधकर्ताओं का कहना है कि यदि यही हाल रहा तो मात्र 7 प्रतिशत विकासशील देश ही नवजात शिशुओं और गर्भवती माताओं की मृत्युदर पर सहत्राब्दि लक्ष्य के अनुरूप नियंत्रण पा सकेंगे। शोध में भारत में नवजात शिशुओं और माताओं ही हालत में महत्वपूर्ण प्रगति बताई गई है लेकिन कई अफ्रीकी देशों में हालात चिंताजनक ही बताए गए हैं। शोध के अनुसार सब सहारा अफ्रीका के 23 देश सहस्त्राब्दि लक्ष्यों को बिल्कुल पूरा नहीं कर सकेंगे और उनके लिए इन लक्ष्यों को पूरा करने में कम से कम और तीस साल का समय लगेगा। इस रिपोर्ट के अनुसार शिशुओं और माताओं की मृत्यु दर में कमी आई है लेकिन अभी भी धनी और गरीब देशों के बीच बड़ी खाई बरकरार है। 1990 में गर्भवती महिलाओं और नवजात शिशुओं की जो मृत्यु दर थी उसकी तुलना में इस समय स्थिति बेहतर जरुर बताई जाती है लेकिन कम से कम 100 विकासशील देश ऐसे हैं जिनमें ये दर इतनी तेज़ नहीं है कि वो सहस्त्राब्दि लक्ष्यों को 2015 तक पूरा कर ले।
डॉ. माया