01-Apr-2017 11:07 AM
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हम तो डूबेंगे सनम तुम्हें भी ले डूबेंगे। कुछ ऐसी ही स्थिति कांग्रेस की हो रही है। कांग्रेस जिसके साथ गठबंधन कर रही है उसे भी डुबो रही है। पश्चिम बंगाल के बाद उत्तरप्रदेश में भी यह तस्वीर देखने को मिली है। ऐसे में अब सवाल उठने लगा है कि कांग्रेस को कोई दल अपने गले लगाएगा। साथ ही हाल के चुनावों में कांग्रेस के खराब प्रदर्शन से बहस छिड़ गई है कि पार्टी अपनी पहले वाली मजबूत स्थिति में आने के लिए क्या करे। बहस की जरूरत इसलिए पड़ी क्योंकि भाजपा कांग्रेस के गढ़ पर धीरे-धीरे कब्जा कर रही है। अकेली सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद मणिपुर और गोवा में कांग्रेस सरकार नहीं बना सकी और इसके लिए वह खुद जिम्मेदार है।
नतीजों की घोषणा के तुरंत बाद कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेताओं ने विभिन्न मंचों से कहा कि पार्टी को मोदी की बुलडोजर जैसी शक्ति को रोकना है और राष्ट्रीय राजनीति में अपनी अहमियत बनाए रखनी है। कुछ ने मोदी से मुकाबले के लिए गठबंधन का सुझाव दिया, तो कुछ ने हारे उम्मीदवारों की जवाबदेही तय करने को कहा। यानी सब अपनी ढपली अपना राग अलाप रहे हैं।
हालांकि उत्तर प्रदेश-उत्तराखंड चुनाव में भारी पराजय के बाद कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा है कि कांग्रेस पार्टी में अब ढांचागत बदला व करने पड़ेंगे। पर 1969 में कांग्रेस में महाविभाजन के बाद जब राजनीतिक मुश्किल में पड़ीं तो तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने पार्टी की काया के बदले उसकी आत्मा में परिवर्तन किया था। इंदिरा गांधी ने मुददों की राजनीति शुरू की और गरीबी हटाओ का नारा दिया। जो काफी सफल रहा क्योंकि आम लोगों को यह लगा कि इंदिरा जी सचमुच गरीबी हटाना चाहती हैं। काश! राहुल गांधी ने अपनी दादी से कुछ सीखा होता।
पिछले कुछ वर्षों में कांग्रेस को लगातार कई चुनावी पराजयों का सामना करना पड़ा है। हर बार कांग्रेस हाई कमान यही कहता रहा है कि उसे अब संगठन को मजबूत करना पड़ेगा। दिल्ली विधानसभा चुनाव में पराजय के बाद तो राहुल गांधी ने कहा था कि अब मैं अरविंद केजरीवाल से कुछ सीखूंगा। पर कुछ हो नहीं रहा है और पराजय की रफ्तार थम नहीं रही है।
कांग्रेस जैसी एक देशव्यापी संगठन वाले दल का इस तरह दुबलाना स्वस्थ लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं माना जा रहा है। राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की पराजय के मुख्यत: दो कारण थे। एक तो केंद्र सरकार ने महा घोटालेबाजों के खिलाफ भी सख्त कार्रवाई की मांग को नहीं माना। जबकि अन्ना हजारे के नेतृत्व में चुनाव से पहले इसको लेकर बड़ा आंदोलन हुआ था। उल्टे मनमोहन सिंह सरकार घोटालेबाजों के बचाव में ही अपनी शक्ति का इस्तेमाल करती रही। साथ ही, कांग्रेस पार्टी और सरकार ने एकतरफा और असंतुलित धर्म निरपेक्षता की नीति चलाई। ऐसी स्थिति का पूरा लाभ भाजपा और नरेंद्र मोदी ने उठाया।
कांग्रेस की आत्माÓ में परिवर्तन की पहली शर्त यह है कि कांग्रेस और उसकी राज्य सरकारें यह साबित करें कि वे किसी भी तरह के भ्रष्टाचार के सख्त खिलाफ है। साथ ही वह सभी समुदायों के बीच के कट्टरपंथी तत्वों के खिलाफ समान रूप से कार्रवाई करे। याद रहे कि तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने यदि कभी आरएसएस के लोगों के खिलाफ कार्रवाई की तो जमात-ए-इस्लामी के कट्टरपंथियों के साथ भी ऐसा ही सलूक किया था। लेकिन अब कांग्रेस पूरी तरह बदल गई है। राहुल गांधी किसी भी कीमत पर इंदिरा गांधी तो नहीं बन सकते लेकिन एक परिपक्व नेता की तरह निर्णय तो ले सकते हैं। पार्टी के युवा नेता एकमत हैं कि आधे-अधूरे और ऊपरी परिवर्तन का वक्त अब बीत चुका है। अगर वह भाजपा से मुकाबले की इच्छा रखती है, तो पार्टी की पूरी जांच और मरम्मत की जरूरत है। इसके लिए कुछ कठोर कदम भी उठाने पड़ सकते हैं। तभी कांग्रेस वापस लौटने की स्थिति में पहुंच सकती है।
छह राज्यों में सिमटी कांग्रेस
कांग्रेस में हमेशा से ही इस इस बात का खास ख्याल रखा गया है कि पार्टी की छवि कभी भी नेहरू-गांधी परिवार के आयाम से हटकर और कुछ न हो पाए। ये जरूर है कि पार्टी अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है लेकिन, कांग्रेस के रणनीतिकारों ने ध्यान रखा है कि पार्टी अपने खूंटे से छूटकर एकदम बिखर न जाए। क्योंकि अगर ऐसा होता है तो फिर उठने की सम्भावना ही खत्म हो जाएगी और साथ में बोनस ये है कि जब पार्टी अपने सबसे बुरे दौर से निकलकर फिर से आगे की सोचने लगेगी तो उसके पास भुनाने को रेडीमेड नेहरू-गांधी नाम होगा, जैसा कि इसके अच्छे दिनों में था। कांग्रेस जिसने भारत के 70 वर्षों के आजाद इतिहास में लगभग 55 साल देश पर राज किया है वो अब 6 राज्यों तक सीमित होकर रह गयी है।
कब होगा आत्ममंथन
कांग्रेस मुक्त भारत के अमितशाह के मिशन को भले एक बारगी अतिवादी और अव्यवहारिक नजरिया मान सकते हैं। पर कांग्रेस के लिए आत्ममंथन का दौर नरेंद्र मोदी के 2014 में उभार के बाद ही जरूरी हो गया था। सोनिया गांधी और राहुल गांधी के साझा नेतृत्व में देश की सबसे बड़ी पार्टी कोई कमाल दिखाना तो दूर अपने वजूद को भी संभाल नहीं पा रही है। उत्तर प्रदेश में उसे जितनी सीटें सपा के साथ गठबंधन के बाद मिली हैं, कयास लग रहे हैं कि उससे ज्यादा सीटें तो यह पार्टी अकेले अपने दम पर चुनाव लड़ कर भी ले आती। बहरहाल यूपी को छोड़ भी दें तो उत्तराखंड में और भी बुरी गत हुई है पार्टी की। मुख्यमंत्री हरीश रावत ने अपनी पसंद की दो सीटों से एक साथ चुनाव लड़ा। दोनों जगह ही उनका हारना मतदाताओं के प्रतिक्रियावादी रूझान को दर्शाता है। पंजाब की कामयाबी को लेकर भले कांग्रेस संतोष कर सकती है पर गोवा और मणिपुर के नतीजे भी उसके लिए सबक हैं।
दिन पर दिन बदहाल हो रही है कांग्रेस
सोनिया गांधी ने 1998 में जब कांग्रेस की कमान संभाली थी, तब भी कांग्रेस इतनी बुरी दशा में नहीं थी। तब भी सात आठ राज्यों में कांग्रेस की सरकार थी और पूर्वोत्तर के राज्य पूरी तरह से कांग्रेस के कब्जे में थे। लेकिन इस बार हालात उससे भी बुरी है। कर्नाटक को छोड़ दें तो कांग्रेस अभी जिन राज्यों में शासन कर रही उनका कुल बजट मुंबई महानगरपालिका के बजट से भी कम है। कांग्रेस कभी भी इससे नीचे नहीं गई थी। इसलिए भी कांग्रेस के नेता मान रहे हैं कि अब उसको वापसी ही करनी है यानी इतने नीचे जाने के बाद उसे ऊपर आना ही है। लेकिन क्या यह इतना आसान या स्वाभाविक है? पतन के बाद उत्थान को स्वाभाविक मानने वाले सिद्धांत के बावजूद कांग्रेस के लिए मुश्किल यह है कि अब आम आदमी पार्टी के रूप में एक बड़ी चुनौती सामने है। वह कांग्रेस की जगह लेने की राजनीति कर रही है। सो, अब कांग्रेस को अपनी राजनीति पर गंभीर मंथन करने की जरूरत है। वह रूटीन में विपक्ष की राजनीति कर रही है या चुनाव आते हैं तो कोई समीकरण बना कर लडऩे उतर जाती है। लेकिन यह स्थिति उस समय तो ठीक है, जब पार्टी के सामने कोई बड़ी चुनौती न हो। लेकिन मौजूदा हालात में उसे नेतृत्व और अपने राजनीतिक स्टैंड के बारे में गंभीरता से विचार करना होगा। उसे बदले हुए हालात में अपनी विचारधारा में भी जरूरी बदलाव करना होगा। भाजपा विरोध और सेकुलर वोटों की गोलबंदी की पारंपरिक राजनीति मौजूदा हालात में काम नहीं करेगी।
-श्याम सिंह सिकरवार