01-Apr-2017 09:51 AM
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जिन आदिवासियों का पूरा जीवन प्रकृति पर आधारित है, उन पर पर्यावरण-विरोधी होने के आरोप लगा कर, उन्हें जंगलों से जबरन हटा कर राष्ट्र-राज्य न जंगलों को बचा पाएगा और न जंगलों में रहने वाले जीव-जंतुओं को। आदिवासी समुदायों को विश्वास में लिये बिना, प्रकृति विषयक उनके ज्ञान का सम्मान किए बगैर, वनों और वन्य जीवों का संरक्षण असंभव है।
आदिवासी का पूरा अस्तित्व ही जल-जंगल-जमीन पर आधारित होता है, अत: वनों को संरक्षित क्षेत्र घोषित कर वहां से आदिवासियों को बलात निष्कासित करने का अर्थ होता है उनके अस्तित्व के सामने प्रश्नचिह्न खड़ा कर देना। ऐसे में अगर ये खदेड़े गए आदिवासी अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए इन संरक्षित वन्य क्षेत्रों में अपने परंपरागत अधिकारों का दावा करते हुए सरकार की नजरों में अनाधिकार हस्तक्षेप करते हैं, तो उन्हें वन्यजीवों और वन्य पशुओं का शत्रु घोषित कर दिया जाता है। उनकी प्रतिरोधी आवाजों को कुचलने के लिए राष्ट्र-राज्य पिछले कुछ समय से वनरक्षकों और सुरक्षा एजेंसियों को तमाम न्याय से ऊपर उठकर विशिष्ट ताकत और अधिकार देने की पहल करता रहा है। आजादी के बाद भी विदेशी सत्ता द्वारा स्थापित आदिवासी विरोधी वन कानून बदस्तूर जारी हैं। आदिवासी आज भी वन रक्षकों और पुलिसवालों के उत्पीडऩ के शिकार हो रहे हैं। प्रामाणिकता का बहाना करके ऐसी खबरों को दबा दिया जाता है।
वन्य जीवों और वन्य उत्पादों के गैर-कानूनी व्यापार पर नियंत्रण लगाने के लिए सरकार को इस व्यापार के कर्ताधर्ता ठेकेदारों, व्यापारियों और राजनीतिकों पर हाथ डालना चाहिए। अगर कोई आदिवासी इस गैर-कानूनी शिकार और तस्करी में संलग्न भी है तब भी हमें यह समझना होगा कि वह असल में परिस्थितियों के चक्रव्यूह में फंसा हुआ है। संरक्षित वन्य क्षेत्र के नाम पर अपने पुरखों के जंगलों, खेतों और घरों से विस्थापित किए गए आदिवासियों और स्थानीय ग्रामीणों को उनकी क्षमता, रुचि और सभ्यता-संस्कृति के अनुरूप वैकल्पिक रोजगार और पुनर्वास उपलब्ध कराए बगैर वनों और वन्य जीवों का संरक्षण नहीं किया जा सकता।
जिन आदिवासियों का पूरा जीवन प्रकृति पर आधारित है, उन पर पर्यावरण-विरोधी होने के आरोप लगा कर, उन्हें जंगलों से जबरन हटा कर राष्ट्र-राज्य न जंगलों को बचा पाएगा और न जंगलों में रहने वाले जीव-जंतुओं को। आदिवासी समुदायों को विश्वास में लिये बिना, प्रकृति विषयक उनके ज्ञान का सम्मान किए बिना वनों और वन्य जीवों का संरक्षण असंभव है। आदिवासी के जीवन की कीमत पर शहरों के मु_ीभर अमीर लोगों की सैरगाह के रूप में जनशून्य संरक्षित वन क्षेत्रों के विकास को अमानवीयता ही कहा जाएगा। इस सरंक्षण का मूल उद््देश्य प्रभु वर्ग के आमोद-प्रमोद और सैर-सपाटे को सुनिश्चित करना होता है, जबकि इन संरक्षित वन्य क्षेत्रों में घूमने वाले पर्यटकों से राज्य को राजस्व की प्राप्ति हो रही हो।
वन्यजीवों के शिकार और अंतरराष्ट्रीय बाजार में उनकी तस्करी का एक उच्चस्तरीय जटिल तंत्र है। इसमें आदिवासी तो मात्र मोहरा मात्र होते हैं क्योंकि उन्हें अपने जल-जंगल-जमीन से निष्कासित कर दिया गया है आदिवासी अपने अस्तित्व की रक्षा में सही-गलत, कुछ तो करेगा ही। जंगल और जंगली जीव-जंतु उसके परंपरागत ज्ञान और समझ का दुरुपयोग करने को तैयार बैठे हुए अवैध शिकारियों और तस्करों पर नकेल न कस कर आदिवासी को बलि का बकरा बना वन रक्षक और उनके अफसर अपनी पीठ भले थपथपा लें, पर इससे संरक्षित वन्य प्राणियों का शिकार नहीं रुक सकता। राष्ट्रीय उद्यानों में नियमित गश्त और निगरानी जैसी तमाम कवायदों के बावजूद वन्यप्राणियों का न तो शिकार बंद किया जा सका है और न इस कवायद में जाने-अनजाने होने वाली हत्याओं का सिलसिला ही थमा है।
काम के बोझ के मारे वनरक्षक
वनों और वन्यजीवों के संरक्षण तथा आसपास के आदिवासी-ग्रामीण अधिवासों के बीच के द्वंद्व में फंसे इन वन रक्षकों पर सामान्य सुरक्षा कर्मियों की अपेक्षा काम का भारी बोझ होता है। उन्हें आग व बाढ़ जैसी स्थितियों के बीच वृक्षारोपण से लेकर जंगल और जंगल के प्राणियों की रक्षा तक का सारा कार्य करना होता है और ऊपर से साथी वनकर्मियों के खाली पड़े पदों से लेकर संसाधनों और सुविधाओं की कमी से भी जूझना होता है। घातक आग्नेय हथियारों से लैस शिकारियों और तस्करों से निपटने के लिए इनके पास होती है बाबा आदम के जमाने की लाठी-बंदूक। तमाम कर्तव्यनिष्ठा और त्याग-बलिदान के बाद भी त्रासदी यह कि राष्ट्र के प्रति इनकी सेवा और कुर्बानी को समाज कभी संज्ञान में ही नहीं लाता। स्पष्ट है कि संरक्षित वन क्षेत्रों में अगर जीव-जंतुओं और पड़-पौधों को बचाने के प्रति वास्तव में आप गंभीर हैं, तो आपको आदिवासियों के परंपरागत वन्य अधिकारों के प्रति आपको संवेदनशील होना होगा।
-बिन्दु माथुर