18-Mar-2017 10:51 AM
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पांच राज्यों (उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर) के चुनाव परिणाम आने के साथ ही देश भर में चौक से लेकर चौपाल तक नमो...नमो, मोदी... मोदी, हर हर मोदी...घर घर मोदी, हर वोट में मोदी, हर चोट में मोदी की गूंज सुनाई देने लगी है। हर तरफ यही कहा जा रहा है की मोदी लहर, मोदी की सुनामी है। हम भी मानते हैं कि वाकई प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी भारतीय राजनीति के करिश्माई व्यक्तित्व हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि भारतीय राजनीति में मोदी के सामने खड़ा होने वाला कोई दूसरा चेहरा दूर-दूर तक नजर नहीं आता है। इसके पीछे कुछ और कारण नहीं बल्कि खुद नरेंद्र मोदी का विराट व्यक्तित्व और विपक्ष की मुद्दों को लेकर नासमझी ही कारण हैं। 2014 के बाद जितने भी चुनाव हुए हैं और जहां भी विपक्ष ने लापरवाही बरती है भाजपा ने बाजी मारी है। लेकिन इस बार के चुनाव परिणाम में सत्ता विरोधी लहर की झलक दिखती है। जनता ने सरकारों के खिलाफ वोट दिया है। यदि पूरब से पश्चिम तक और उत्तर से दक्षिण तक मोदी की ही लहर है तो 2014 के बाद तकरीबन हर जगह भाजपा के वोट कम क्यों हो रहे हैं।
उत्तर प्रदेश में 3 प्रतिशत वोट घटे
पहले बात करते हैं उत्तर प्रदेश की। कहा जा रहा है कि इस बार के चुनाव नतीजे वैसे ही हैं जैसे 2014 में थे बल्कि यह भी कहा जा रहा है कि ये नतीजे 2014 से भी बेहतर हैं। पता नहीं, वे ऐसा कैसे कह रहे हैं क्योंकि चुनाव आयोग के आंकड़े को अगर गौर से देखें तो इस बार भाजपा के 3 प्रतिशत वोट अपेक्षाकृत कम हुए हैं। 2014 में लोकसभा चुनाव के दौरान उसे 43 प्रतिशत वोट मिले थे, वही इस बार उसे 40 प्रतिशत पर ही संतोष करना पड़ा। तो यह साफ कहा जा सकता है कि 3 प्रतिशत मतदाता ऐसे थे जो भाजपा और मोदी से निराश हुए हैं। परंतु यह वोट दूसरी पार्टियों में बंट गया। बसपा को लोकसभा चुनावों के मुकाबले 2.4 प्रतिशत (19.8 के मुकाबले 22.2) का और राष्ट्रीय लोकदल को 1 प्रतिशत (0.8 के मुकाबले 1.8) का लाभ मिला है। यह हैरत की बात है कि बसपा को सपा से 0.4 प्रतिशत ज्यादा वोट मिले हैं लेकिन सीटें उससे आधी से भी ज्यादा कम हैं (47 के मुकाबले 19)। यह हमारी चुनावी व्यवस्था की ट्रैजिडी है जहां हम ऐसे नतीजे देखते हैं। इस चुनाव में सबसे बड़ी थू-थू तो राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस की हुई। पहले तो इस पार्टी ने सपा के साथ गठबंधन करके अपने पांव पर कुल्हाड़ी मार ली। इससे इस पार्टी का वोट बैंक पूरी तरह से बिखर गया। पार्टी को मात्र 6 फीसदी वोट मिले। उत्तर प्रदेश की हार-जीत भाजपा के लिए अगले आम चुनाव की इबारत लिखने वाली मानी जा रही थी। इसलिए भाजपा ने दूसरे राज्यों की अपेक्षा अपनी पूरी ताकत यहां झोंक दी थी। चुनाव के आखिरी चरण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लगातार रैलियां कीं। फिर भी माना जा रहा था कि भाजपा को समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी से कड़ी टक्कर मिलेगी। मतदान बाद के सर्वेक्षणों में भी भाजपा को स्पष्ट बहुमत नहीं दिख रहा था। मगर मशीनें खुलीं तो सारे कयासों को मटियामेट कर भाजपा ने जो कामयाबी हासिल की, उसकी उम्मीद उसे खुद नहीं थी। इस नतीजे ने बसपा जो मुसलमानों के प्रति अति संवेदनशील थी उसने 100 सीटों पर मुसलमानों को चुनाव लड़ाकर अन्य जातियों को अपने से दूर कर लिया है। ऐसा ही कुछ समाजवादी पार्टी ने भी किया। समाजवादी पार्टी का वोट बैंक बिखरा और यादव के अलावा अन्य ओबीसी जातियां भाजपा के समर्थन में चली गईं। इसी तरह दलित वोट बंटा और हिंदुत्व के प्रभाव में उसका कुछ हिस्सा भाजपा को मिल गया। मुस्लिम वोट सपा, बसपा, कांग्रेस और निर्दलीय के बीच बंट गया। वहीं भाजपा ने संदेश यह दे डाला कि हम मुसलमानों के साथ तो हैं परंतु एक भी मुस्लिम को उसने प्रत्याशी नहीं बनाया। जाति, समुदाय, धर्म आदि के तमाम समीकरणों पर सवालिया निशान लगाते हुए साबित किया है कि मतदाता का मन बदल रहा है। यानी मतदाता सरकारों के कार्यों का आंकलन कर रहा है। अब उसे अपने फायदे और घाटे की चिंता होने लगी है। इसलिए वह जाति, धर्म और संप्रदाय के चक्कर में नहीं पडऩा चाहता है।
यूपी में टूटे सारे मिथक
उत्तर प्रदेश के चनाव परिणाम ने तो सारे मिथक तोड़ दिए। प्रदेश में सरकार विरोधी माहौल पहले से था। बसपा, कांग्रेस पर लोगों को विश्वास नहीं रहा। ऐसे में भाजपा ही मतदाताओं के लिए एक मात्र विकल्प थी। इसलिए मोदी पर विश्वास कर जनता ने ऐतिहासिक परिणाम दिया। उत्तर प्रदेश में भाजपा को मिली विजय से कुछ बातें साफ हुई हैं। एक तो यह कि लोकसभा चुनावों के समय जो समर्थन उसे मिला, वह बरकरार है। दूसरे, नोटबंदी से लोगों में नाराजगी का कयास झूठा साबित हुआ। इससे भाजपा का पलड़ा भारी होता गया। इन सबके बावजूद इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि उत्तर प्रदेश के लोगों में मोदी का प्रभाव अब भी बना हुआ है और उन्हें लगता है कि राज्य में भी भाजपा की सरकार बनने से विकास के नए रास्ते खुल सकते हैं, रोजगार के नए अवसर उपलब्ध हो सकते हैं। इसलिए खासकर उत्तर प्रदेश में जनता ने मोदी पर सर्वाधिक विश्वास किया है।
उत्तराखंड में 9 प्रतिशत की गिरावट
चलिए, अब उत्तराखंड चलते हैं। वहां भी भाजपा की भारी जीत हुई है वैसे तो यहां भाजपा की जीत में भी कांग्रेसियों का योगदान रहा है। भाजपा की तरफ से एक तिहाई सीटों पर पूर्व कांग्रेसी जीते हैं। हालांकि यहां की जीत को भी मोदी के जादू से जोड़ा जा रहा है। लेकिन यहां तो स्थिति और भी मजेदार है। उत्तर प्रदेश में जहां भाजपा के वोट शेयर में 3 प्रतिशत की छोटी गिरावट है, वहीं उत्तराखंड में 9 प्रतिशत की बड़ी गिरावट है। यानी उस राज्य में कम-से-कम 9 प्रतिशत वोटर ऐसे हैं जिन्होंने 2014 में मोदी जी की लहर में भाजपा उम्मीदवार को वोट दिया था लेकिन इस बार किसी और पार्टी को वोट दिया है। आप पूछेंगे कि यदि ऐसा है तो भाजपा ने इतना अच्छा प्रदर्शन कैसे किया। इसका जवाब यह है (और यह यूपी के लिए भी सही है) कि भले ही भाजपा के वोटों में छोटी या बड़ी कमी आई है लेकिन ये कम होने वाले वोट उसके निकटतम प्रतिद्वंद्वी को नहीं मिले बल्कि किन्हीं और दलों में चले गए। यह इससे पता चलता है कि उत्तराखंड में कांग्रेस का वोट शेयर नहीं बढ़ा। उत्तर प्रदेश में तो सपा और कांग्रेस दोनों का सम्मिलित वोट शेयर 1 प्रतिशत घटा है। अब आप पूछेंगे कि इन दो राज्यों में कांग्रेस और सपा के वोट क्यों घटे? जवाब ऐंटी-इन्कम्बेंसी। जनाब, इन पार्टियों के वोट उन्हीं कारणों से घटे जिन कारणों से पंजाब में अकाली-भाजपा गठबंधन और गोवा में भाजपा के घटे। इन सरकारों ने अच्छा और काबिले तारीफ काम नहीं किया था जिसका नुकसान उनको उठाना पड़ा।
पंजाब में भी 4, गोवा में 11 प्रतिशत की कमी
आइए, अब देखते हैं पंजाब और गोवा का हाल। पहले पंजाब। पंजाब में अकाली-भाजपा को कुल मिलाकर 35 प्रतिशत वोट मिले थे 2014 में। इस बार उनको 31 प्रतिशत वोट मिले हैं। यानी 4 प्रतिशत की गिरावट यहां भी है। ये 4 प्रतिशत वोट कहां गए? तो सीधे कांग्रेस को जो आप से भी 1 प्रतिशत वोट छीनकर 33 प्रतिशत से 38 प्रतिशत पर आ गई। असर यह कि पंजाब में कांग्रेस करीब-करीब दो-तिहाई बहुमत से सत्ता में आ गई। आप कह सकते हैं कि पंजाब में अकाली दल के नेतृत्व वाली सरकार थी और जनता को पता था कि सत्ता में साथ होते हुए भी मोदी जी बादलों पर अपनी मर्जी लाद नहीं सकते। लेकिन गोवा में तो ऐसा नहीं था। आखिर गोवा में भाजपा के वोट शेयर में इतनी भारी कमी क्यों आई? गोवा में भाजपा का वोट प्रतिशत 54 प्रतिशत से घटकर 32 प्रतिशत पर आ गया। वैसे यह सच है कि 2014 के वोट शेयर में महाराष्ट्रवादी गोमंतक पार्टी के समर्थकों के भी वोट रहे होंगे जिनके वोट इस बार भाजपा को नहीं मिले होंगे क्योंकि वह भाजपा से अलग होकर लड़ी थी, लेकिन यदि आप महाराष्ट्रवादी गोमंतक पार्टी के इस बार के वोट मिला भी दें (11.3) तो भी 2014 और 2017 का अंतर 11 प्रतिशत बनता है। अब यह अलग बात है कि ये घटे हुए वोट कांग्रेस को नहीं गए। यदि जाते तो गोवा में भी पंजाब जैसे नतीजे आते जबकि आज वहां त्रिशंकु विधानसभा है और भाजपा जोड़-तोड़ कर फिर से अपनी सरकार बना चुकी है और पूर्व रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर मुख्यमंत्री बन चुके हैं। वहीं मणिपुर में पहली बार भाजपा के नेतृत्व में सरकार बनी है। पार्टी के एन बिरेन सिंह ने इम्फाल में राज्य के मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ली। उनके साथ पूर्व डीजीपी और एनपीपी विधायक वाई जॉयकुमार राज्य के नए उपमुख्यमंत्री बनाए गए हैं। अब मुझे यह समझ में नहीं आता कि मोदी जी तो हर विधानसभा चुनाव में और हर रैली में आए लोगों से यह मीठी-मीठी शिकायत करते नहीं थकते कि जब लोकसभा चुनावों में मैं अपने लिए वोट मांगने आया था तब तो आप इतनी बड़ी संख्या में नहीं आए थे जितने कि अब आए हो, लेकिन जब परिणाम निकलता है तो वोटों का प्रतिशत घट जाता है। यानी मोदी को लगता है कि भीड़ पहले से ज्यादा हो रही है और वोट हैं कि पहले से घट जाते हैं। बिहार में भी यही हुआ, और यूपी में भी वही हुआ। बिहार में 4 प्रतिशत घटे, यूपी में 3 प्रतिशत। लेकिन चुनावी गणित का यह रोचक हाल देखिए कि बिहार में भाजपा के 4 प्रतिशत वोट घटे और वह धराशायी हो गई जबकि यूपी में 3 प्रतिशत वोट घटने के बावजूद विपक्षी धराशायी हो गए।
इस विचित्र पहेली का उत्तर सभी जानते हैं और इसी कारण एक सवाल सभी के जेहन में आता है, मोदी विरोधियों के मन में खुलकर और मोदी समर्थकों के मन में छुपकर कि यदि यूपी में बसपा, सपा और कांग्रेस मिलकर लड़े होते तो क्या यहां भी बिहार वाला परिणाम नहीं आता!
यदि बसपा, सपा एक होते तो क्या नजारा होता?
आइए, आंकड़ों पर फिर से नजर दौड़ाएं। सपा के 22 प्रतिशत, बसपा के 22 प्रतिशत और कांग्रेस के 6 प्रतिशत। कुल हुए 50 प्रतिशत। अब 50 प्रतिशत के आगे 40 प्रतिशत या साथियों के 2-3 प्रतिशत वोटों को जोड़ दें तो भी 42-43 प्रतिशत को रखिए। कुल 7-8 प्रतिशत का अंतर। और इस 7-8 प्रतिशत के अंतर से क्या होता है, यह हम पंजाब और बिहार के परिणामों से जान सकते है। भाजपा को तब भी यही वोट मिले होते 40 प्रतिशत लेकिन तब सब मोदी लहर की बात न कर रहे होते, महागठबंधन की जीत के कसीदे पढ़ रहे होते।
ऐसा नहीं है कि उत्तर प्रदेश में मोदी का जबर्दस्त सपोर्ट नहीं था। 2012 में 15 प्रतिशत वोटरों का समर्थन पाने वाली पार्टी यदि 2017 में 40 प्रतिशत वोट पाती है तो कोई बद दिमाग ही इससे इनकार करेगा कि इस अतिरिक्त 25 प्रतिशत समर्थन में मोदी की हवा का हाथ नहीं है। मोदी ने एक अच्छे-खासे तबके के मन में ‘बेहतर दिनों’ की उम्मीद जगाई है और ढाई साल के शासन के बाद भी वह उम्मीद अभी बरकरार है। लेकिन मैं नहीं मानता कि भाजपा को उत्तर प्रदेश में मिले 40 प्रतिशत वोट केवल विकास के नाम पर पड़े हैं। भाजपा के समर्थकों में कट्टरवादी हिंदू हैं जो योगी आदित्यनाथ जैसों के भक्त हैं और मुसलमानों से घृणा करते हैं, सवर्ण हैं जो दलितों और पिछड़ों से चिढ़ते हैं, या गैर-यादव पिछड़े और गैर-जाटव दलित हैं जो सपा-बसपा की उस राजनीति से नाराज हैं जिसने उनको सत्ता के लाभ से वंचित रखा। भाजपा इन तीनों समूहों के हितों का पोषण करती है और इसीलिए इन समूहों ने भाजपा को वोट दिया है। यानी ये मूलत: विकासोच्छुक वोट नहीं, बल्कि जातिवादी और धर्मवादी वोट ही थे। हां, 10-15 प्रतिशत वोटर जरूर ऐसा रहा होगा जिसने केवल इसलिए भाजपा को वोट दिया है कि वह सपा की सरकार के कामकाज और गुंडाराज से नाराज था और मोदी के नेतृत्व में बेहतर दिनों की उम्मीद देखता है। सपा-कांग्रेस और भाजपा के बीच जीत का इतना बड़ा अंतर लाने में इन 10-15 प्रतिशत वोटरों की भूमिका महत्वपूर्ण रही है वरना बाकी 25-30 प्रतिशत वोटर तो उतने ही सांप्रदायिक या जातिवादी हैं जितने सपा, बसपा या कांग्रेस के वोटर।
पंजाब के नतीजे पहले से लोगों को पता थे। शिरोमणि अकाली दल और भाजपा गठबंधन सरकार से लोगों में नाराजगी थी। सत्ता विरोधी लहर वहां शुरू से थी। ऐसे में एक मजबूत विकल्प के तौर पर आम आदमी पार्टी को देखा जा रहा था, मगर मतदाताओं ने उसे नकार कर कांग्रेस पर भरोसा जताया। उत्तराखंड में हरीश रावत सरकार से असंतोष के चलते भाजपा को लाभ मिलने की उम्मीद पहले से थी। गोवा और मणिपुर में भी कांग्रेस और भाजपा के बीच टक्कर रही। जबकि गोवा में भाजपा से छिटके नेता और आम आदमी पार्टी मैदान में थे। मगर मतदाताओं ने भाजपा और कांग्रेस में से किसी एक को विकल्प चुना। यानी इन नतीजों से एक बात यह भी साफ हुआ कि अब मतदाता क्षेत्रीय और छोटे दलों के बजाय बड़े दलों पर भरोसा करने लगा है। यही वजह है कि जिस कांग्रेस में लोगों को कोई दम नजर नहीं आ रहा था, उसे भी इस बार कुछ संजीवनी मिली।
ईवीएम की विश्वसनियता पर सवाल
उत्तर प्रदेश में भाजपा की बड़ी जीत पर इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (ईवीएम) की विश्वसनीयता को लेकर गंभीर सवाल खड़े किए जा रहे हैं। मायावती और अरविंद केजरीवाल कह रहे हैं कि ईवीएम के कारण उनकी पार्टी हारी। फिलहाल भाजपा नेताओं ने ऐसे बयानों को पराजित नेताओं की हताशा बताया है। मगर अब ईवीएम के खिलाफ मुहिम चला रहे नेता इसका जवाब यह कहकर दे रहे हैं कि इन मशीनों पर सबसे पहले सवाल भाजपा ने ही उठाया था। 2009 के लोकसभा चुनाव में हार के बाद उसके नेताओं ने दलील दी कि वोटिंग मशीनों में हेरफेर संभव है। इस बारे में भाजपा प्रवक्ता जीवीएल नरसिम्हा राव ने पुस्तिका लिखी थी। जिसकी प्रस्तावना लालकृष्ण आडवाणी ने लिखी थी। फिर 2011 में अश्विनी साहनी ने चाणक्य नामक किताब में ईवीएम की विश्वसनियता पर सवाल उठाए थे। निर्वाचन आयोग इससे इनकार नहीं करता कि वोटिंग मशीनों में हेरफेर संभव है। लेकिन उसका भरोसा अपनी प्रक्रिया पर है, जिसे वह अभेद्य मानता है। भारत के सभी पूर्व चुनाव आयुक्त भी ईवीएम को लेकर उठाए जा रहे सवाल को गलत बता रहे हैं।
कांग्रेस की नैया बचाने वाले कैप्टन
जब हर तरफ कांग्रेस का जहाज डूब रहा था तो एक आदमी पंजाब में कांग्रेस की नाव को चुनावी वैतरणी पार करा लेता है। वह व्यक्ति है अमरिंदर सिंह। भले ही वे लाबी सीट से चुनाव हार गए लेकिन पटियाला सीट पर उन्होंने 51,000 मतों से जीत दर्ज करने के साथ ही पंजाब में कांग्रेस को 117 सीटों में से 77 सीटें जीतवा लाए। वो कैप्टन ही हैं जिन्हें पंजाब में कांग्रेस की जीत का वास्तुकार कहा जा सकता है। सियासत से खास वास्ता न रखने वाले अमरिंदर को उनके स्कूली दिनों के दोस्त राजीव गांधी 1980 में कांग्रेस में लेकर आए। इसी साल वो पहली बार लोकसभा के लिए चुने गए। 1984 में जब अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में सेना ने सशस्त्र चरमपंथियों को बाहर निकालने के लिए धावा बोला तो इसके विरोध में अमरिंदर सिंह ने संसद और कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। साथ ही अगस्त 1985 में वो शिरोमणि अकाली दल में शामिल हो गए। इसके एक महीने बाद वे पंजाब विधानसभा के लिए चुन लिए गए और सुरजीत सिंह बरनाला की सरकार में मंत्री बने। 1987 में बरनाला सरकार को बर्खास्त कर केंद्र ने पंजाब में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया। 1992 में अमरिंदर शिरोमणि अकाली दल से भी अलग हो गए और एक अलग दल अकाली दल (पंथिक) का गठन कर लिया। बाद में 1998 में इसका कांग्रेस में विलय हो गया। अमरिंदर के सियासी करियर को तब नई ऊंचाई मिली जब जुलाई 1998 में उन्हें पंजाब कांग्रेस का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। राज्य में 2002 में हुए विधानसभा चुनावों में अमरिंदर के नेतृत्व में कांग्रेस को जीत हासिल हुई और वो पंजाब के मुख्यमंत्री बने। 2007 में कांग्रेस की हार हुई और अकाली दल-भाजपा गठबंधन सत्ता में आई। 2012 का विधानसभा चुनाव भी उनके ही नेतृत्व में लड़ा गया था, लेकिन कांग्रेस को अकाली दल के हाथों शिकस्त झेलनी पड़ी। दिल्ली विधानसभा में क्लीन स्वीप करने से आप पार्टी के हौसले
पंजाब में भी बुलंद थे और इन सियासी हालात में 2017 के विधानसभा चुनावों के लिए कांग्रेस ने अपने सबसे मजबूत नेता पर दांव लगाया। ये चुनाव अमरिंदर के 35 साल के सियासी करियर का सबसे मुश्किल इम्तिहान था जिसमें वे असरदार साबित हुए।
...तो इस साल बनेगा राम मंदिर !
उत्तर प्रदेश में भाजपा ने 403 में से 321 सीटें हासिल की हैं। इतनी सीटें भाजपा को कभी भी उत्तर प्रदेश में नहीं मिलीं। कुछ ऐसा ही कारनामा लोकसभा में भी दिखाई दिया था, जब भाजपा को 80 में से 73 सीटें मिली थीं। भाजपा के अपने घोषणापत्र में भी इस बात का जक्र है कि अगर हम सत्ता में आते हैं तो राम मंदिर जरूर बनाएंगे। भाजपा नेता और सांसद योगी आदित्य नाथ ने तो इन दो सालों में कई बार कहा कि राम मंदिर जरूर बनेगा। भाजपा के किसी नेता ने इस बात से कभी मना नहीं किया कि राम मंदिर नहीं बनेगा। चाहे वे महेश शर्मा हो, उमाभारती हो, या कोई अन्य। जब रविशंकर प्रसाद से पूछा गया कि राम मंदिर बनेगा, तब उन्होंने कहा कि हां जरूर बनेगा मगर कोर्ट के आदेश और आपसी भाईचारे से बनेगा। भाजपा का दावा है कि उत्तर प्रदेश में मुसलमानों ने भी भाजपा को दिल खोलकर वोट किया है। तो क्या अब वो स्थिति आ गई है जब भाजपा यूपी में राम मंदिर बनवाए। भाजपा अब केंद्र में है। भाजपा के पास 321 सीटें हैं। यानी भाजपा को एनडीए से पूछने की भी जरूरत नहीं कि वो क्या करने वाली है। गठबंधन की सरकार को भाजपा से अच्छा कौन समझ सकता है। अटल जी के समय एनडीए की ही सरकार थी और ऐसे में कई बार भाजपा को मजबूरी में कई निर्णय लेने पड़ते थे या फिर बहुत से निर्णय ऐसे थे जिन्हें लेने में कई तरह की परेशानियां भी होती थीं। सरकार गिर जाने का एक डर भी रहता था। मगर अब भाजपा को किसी भी बात का कोई डर नहीं है। बस एक ही कसर थी कि यूपी में भाजपा की सरकार नहीं थी, मगर अब तो वो रास्ता भी साफ हो गया है। इसके बाद बात राज्यसभा में आकर रुक जाती थी। पर अब तो भाजपा के सांसद राज्यसभा में भी खूब दिखाई देंगे। यानी अब तक जो एक रोढ़ा बना हुआ था कि राज्यसभा में भाजपा के पास सांसदों की संख्या उतनी नहीं है जिससे वो राज्यसभा में बहुमत पा सके। मगर अब ऐसा कोई रास्ता नहीं है जो भाजपा के लिये बंद हो। हर रास्ता भाजपा के लिये खुला हुआ है। इस बार का चुनाव विकास पर लड़ा गया। मगर फिर भी कहीं ना कहीं भाजपा के घोषणापत्र में ये मुद्दा तो था ही कि राम मंदिर का निर्माण होगा। अब देखना होगा कि राम मंदिर इस साल बनता है या नहीं। फिलहाल राम मंदिर का केस सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है। सुब्रामण्यम स्वामी राम मंदिर का केस लड़ रहे हैं। स्वामी का कहना है कि इन दो सालों में राम मंदिर का निर्माण होना तय है। उधर संघ का भी कहना है की भाजपा को राम मंदिर के लिए ही जनाधार मिला है।
लोकतंत्र का मजाक
जिस तरह गोवा और मणिपुर में राज्यपालों ने संविधान, अपनी शपथ सर्वोच्च न्यायालय के फैसले व्यक्तिगत सूचिता और लोक-मर्यादा को ठेगा दिखा केंद्र सरकार के इसारे पर फैसले किए हैं। इससे भारतीय प्रजातंत्र के इस नए अवतार पर चिंता होने लगी है। अगर यही ‘जनता का जनता के लिए और जनता द्वारा’ का नमूना है तो राजतंत्र या गुलाम परपंरा में क्या बुराई थी। उम्मीद थी कि व्यक्तिगत स्वार्थ अगर भारी पड़े तो अन्य संस्थाएं उन्हें रोक देंगी। पर शायद हम भूल गए हैं कि नैतिकता के प्रश्न कानून बनाने से हल नहीं होते। सरकारिया आयोग और जस्टिस एमएम पंछी आयोग ने और बाद में सर्वोच्च न्यायालय के तमाम फैसलों ने और अंत में सर्वोच्च न्यायालय की नौ सदस्यीय संविधान पीठ ने बोम्मई फैसले से स्पष्ट रूप से बताया कि चुनाव होने के बाद ऐसी स्थितियों में राज्यपाल को किस तरह से फैसले लेने होंगे। लेकिन पिछले छह दिनों में जिस तरह दोनों राज्यों के राज्यपालों ने इन्हें ठेंंगा दिखाया वह एक बेहतरीन उदाहरण है। प्रजातंत्र में लोक मर्यादाओं के क्षरण का है।
यह कोई ओलंपिक की 100-200 मीटर रेस नहीं होती जिसमें जो पहले दावा लेकर पहुंचा वह जीता। राष्ट्रपति और राज्यपाल के लिए संविधान में शपथ की अलग व्यवस्था रखी है। जिसके तहत ये दोनों संविधान के ‘संरक्षण, अभिरक्षण और परिरक्षण’ की शपथ लेते हैं। जबकि अन्य सभी चाहे वह देश का प्रधानमंत्री हो या मुख्य न्यायाधीश। वह संविधान के प्रति निष्ठा की शपथ लेते हैं। ऐसे में नौ सदस्यीय पीठ जिसमें कानून की ताकत होती है कि बात न मानना उस शपथ की अवहेलना है। क्योंकि इसमें संविधान संरक्षण नहीं हो पाया है।
राहुल गांधी 5 साल
में 24 चुनाव हारे
हालिया पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के परिणामों ने कांग्रेस में हार की हताशा और बढ़ा कर रख दी है। उत्तराखंड-मणिपुर में उसे सरकार गंवानी पड़ी तो यूपी में उसके पास महज 7 सीटें आईं। पंजाब में उसकी सरकार जरूर बनी लेकिन गोवा में पार्टी बहुमत नहीं पा सकी। ऐसी हार के बाद अब पार्टी के नेता दबे सुर से ही सही राहुल गांधी के नेतृत्व क्षमता पर सवाल उठाने लगे है। गौर हो कि राहुल गांधी को 2013 में कांग्रेस का उपाध्यक्ष बनाया गया था। पार्टी के सभी फैसले सीधे-सीधे राहुल द्वारा ही लिए जा रहे हैं इसलिए एक के बाद एक राज्यों में होती जा रही हार के लिए भी अब उन्हें ही जिम्मेदार ठहराया जाने लगा है। 2009 के लोकसभा चुनाव में जीत का श्रेय राहुल को दिया गया था। तब उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के 21 सांसद जीतकर आए थे। लेकिन 2013 से राहुल और कांग्रेस के माथे पर एक के बाद एक हार लिखे जाने का सिलसिला शुरू हुआ। आज हाल यह है कि पिछले पांच सालों में पार्टी 24 चुनाव हार चुकी है। कांग्रेस को पहला बड़ा झटका 2012 में तब लगा जब यूपी में 21 सांसद वाली ये पार्टी विधानसभा में महज 28 सीटें जीत सकी।
आखिर गोवा और मणिपुर में कांग्रेस से कहां चूक हुई!
गोवा में 17/40 मणिपुर में 28/60 सीटों पर कब्जा करने वाली कांग्रेस पार्टी को यूपी में हार को बर्दाश्त ही नहीं कर पाई। पांच राज्यों के परिणामों के बाद शायद झटका इतनी जोर से लगा की वो समय रहते गोवा और मणिपुर में सरकार बनाने का दावा तक पेश नहीं कर पाई। वहीं भाजपा ने एक तरफ वैंकेया नायडू तो दूसरी तरफ आरएसएस के नेता व पार्टी महासचिव राम माधव को पहले ही काम में लगा रखा था। गोवा में तो चुनाव परिणामों के तुरंत बाद भाजपा ने दावा कर दिया था कि तीन निर्दलीय उसके साथ हैं। जैसे ही अन्य पार्टियों ने उसे समर्थन की बात कही, वो पहुंच गए राज्यपाल के पास। दूसरी तरफ कांग्रेस काम करने के बजाय बयानबाजी में अपना समय गंवाती रही। बाकी रही-सही कसर सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर करके पूरी कर दी। वहीं भाजपा मणिपुर में भी सरकार बनाने के प्रयास में लग गयी। पार्टी महासचिव राम माधव ने मणिपुर में सरकार बनाने के लिए जरूरी संख्या का समर्थन मिल जाने का दावा कर दिया। दरअसल कांग्रेस इस समय एक मुश्किल दौर से गुजर रही है। इसके लिए अगर कोई दोषी है तो वह है कांग्रेस हाई कमान। जो इतनी ढीली पड़ी हुई है कि जब तक वह सोचती है तब तक भाजपा काम तमाम कर चुकी होती है। मणिपुर में कांग्रेस समर्थन से तीन सीटें पीछे रहते हुए भी मौका चूक गई, वहीं भाजपा बहुमत से 10 सीटें कम होते हुए भी सरकार बनाने की स्थिति में है। कांग्रेस तीन नहीं जोड़ पाई अगला दस जोड़ गया। यही स्थिति गोवा में हुई जहां कांग्रेस को मात्र चार विधायकों की जरूरत थी। क्या कांग्रेस के धुरंधर अब बड़े शेर हो गए हैं जो अब नीतिगत फैसले लेने के बजाय सोते रहते हैं? उनके पास मोदी जैसा गुर्राता शेर नहीं है या उनका शेर ही ठंडा पड़ गया है।