कैसे रुके शिशु मृत्यु दर
20-Mar-2017 06:28 AM 1234830
दुनिया के अन्य देशों के मुकाबले भारत में पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की सबसे ज्यादा मौतें हुर्इं। यूनिसेफ की नई रिपोर्ट बताती है कि भारत में प्रतिदिन चार हजार छह सौ पचास से ज्यादा पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु होती है। वहीं मध्यप्रदेश विधानसभा में महिला एवं बाल विकास विभाग द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट में यह तथ्य सामने आया है कि प्रदेश में करीब 80 बच्चे रोजाना मौत के गाल में समा रहे हैं। यानी देश और प्रदेश में बच्चों के स्वास्थ्य के मामले में अभी बहुत कुछ किया जाना है। देश में महिला एवं बाल कल्याण के लिए हर साल केंद्र सरकार 1.84 लाख करोड़ रूपए और मप्र में राज्य सरकार करीब 5,000 करोड़ रूपए का बजट मुहैया कराती है। लेकिन उसके बाद भी कुपोषण बच्चों का भक्षण कर रहा है। आलम यह है कि मप्र में पिछले एक साल में तकरीबन 30,000 बच्चों की मौत हो चुकी है। यानी प्रदेश में रोजाना 80 बच्चे विभिन्न बीमारियों के कारण मर रहे हैं। दरअसल, विधानसभा में कांग्रेस विधायक रामनिवास रावत ने कुपोषण से हुई मौतों के संबंध में जानकारी मांगी थी। जिस पर जवाब देते हुए महिला बाल विकास मंत्री अर्चना चिटनीस ने जवाब दिया। उन्होंने अपने जवाब में कहा कि जनवरी 2016 से जनवरी 2017 के बीच में 29,410 बच्चों की मौत हुई है। हालांकि इसके साथ ही उन्होंने बच्चों की मौत के कारणों को भी स्पष्ट किया है। सरकार की ओर से इसी विधानसभा सत्र में पिछले दिनों आए एक जवाब में कहा गया था कि प्रदेश में कुपोषण से एक भी मौत नहीं हुई है। मौतें कुपोषण से नहीं होती है, इसकी वजह कुछ और रहती हैं। सरकार के इस तकनीकी जवाब पर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और कुछ समय पहले मंत्री रहे बाबूलाल गौर ने जमकर घेरा था। उन्होंने मंत्री को यहां तक चेतावनी दी थी कि वह इस मामले में उनके साथ कुपोषण प्रभावित इलाकों का दौरा तक करने को तैयार हैं। प्रदेश में कुपोषण से होने वाली मौत को लेकर सरकार की संवेदनशीलता हमेशा निशाने पर रही है। विधानसभा में हर साल यह मसला आता है। रामनिवास रावत हर साल सवाल उठाते हैं, लेकिन सरकार इस मसले पर कोई ठोस योजना या अपना प्लान सार्वजनिक नहीं कर पाती है। इसको लेकर सत्ता और विपक्ष दोनों ही ओर से हंगामा होता है। किसी भी समाज की खुशहाली का अनुमान उसके बच्चों और माताओं को देखकर लगाया जा सकता है पर जिस समाज में हर साल तीन लाख बच्चे एक दिन भी जिंदा नहीं रह पाते और करीब सवा लाख माताएं हर साल प्रसव के दौरान मर जाती हैं, उस समाज की दशा का अंदाजा लगाया जा सकता है। जब देश में आधुनिक चिकित्सा सुविधाओं की कोई कमी नहीं है, तब ऐसा होना शर्मनाक ही नहीं, एक घृणित अपराध है। कुपोषण के मामले में भारत दक्षिण एशिया का अग्रणी देश बन गया है। राजस्थान के बारां और मध्यप्रदेश के बुरहानपुर में एक नए अध्ययन से पता चला है कि देश के गरीब इलाकों में बच्चे ऐसी मौतों का शिकार होते हैं, जिन्हें रोका जा सकता है। यूनिसेफ की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में कुपोषण के कारण पांच साल से कम उम्र के करीब दस लाख बच्चों की हर साल मौत हो जाती है। सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि कुपोषण को चिकित्सीय आपातकाल करार दिया जाए, ये आंकड़े अति कुपोषण के लिए आपातकालीन सीमा से ऊपर हैं। कुपोषण की समस्या हल करने के लिए नीति बनाने और उसके क्रियान्वयन के लिए पर्याप्त बजट की आवश्यकता है। रिपोर्ट में कहा गया है कि कुपोषण के शिकार बच्चों की संख्या भारत में दक्षिण एशिया के देशों से बहुत ज्यादा है। भारत में अनुसूचित जनजाति (28 फीसदी), अनुसूचित जाति (21 फीसदी), अन्य पिछड़ा वर्ग (20 फीसदी) और ग्रामीण समुदायों (21 फीसदी) में कुपोषण के सर्वाधिक मामले पाए जाते हैं। यह रिपोर्ट दो जिलों में कुपोषण की स्थिति पर रोशनी डालती है। इसमें उन स्थितियों का विश्लेषण किया गया है, जिन्हें रोका जा सकता है, पर इसके कारण भारत में नवजात शिशुओं और बच्चों की मौत होती है। नेशनल फेमिली हेल्थ सर्वे की तीसरी रिपोर्ट के अनुसार चालीस प्रतिशत बच्चे ग्रोथ की समस्या के शिकार हैं, साठ फीसद बच्चों का वजन कम है। इस समस्या के समाधान के लिए युद्ध स्तर पर रणनीति बनाना जरूरी है। राजस्थान में नेशनल फेमिली हेल्थ सर्वे की तीसरी रिपोर्ट के अनुसार पांच साल से कम आयु के बीस फीसदी बच्चों की मौत हो गई, जो नेशनल फेमिली हेल्थ सर्वे की दूसरी रिपोर्ट से 11.7 फीसदी ज्यादा थी। चौबीस फीसदी बच्चों की ग्रोथ रुकी हुई है, जबकि नेशनल फेमिली हेल्थ सर्वे की दूसरी रिपोर्ट में यह बावन फीसदी थी। चौवालीस फीसदी बच्चों का वजन कम पाया गया है। नेशनल फेमिली हेल्थ सर्वे की तीसरी रिपोर्ट में भी राजस्थान में अनुसूचित जनजाति के पांच साल से कम आयु के बच्चे गंभीर कुपोषण के शिकार पाए गए। राजस्थान में हर साल जन्म लेने वाले करीब अठारह लाख शिशुओं में से पहले ही साल अस्सी हजार की मृत्यु हो जाती है। इसके पीछे मुख्य कारण उचित पोषण और स्वास्थ्य की सही देखरेख न होना है। सैंपल रजिस्ट्रेशन सर्वे के अनुसार अभी प्रदेश में प्रति हजार जीवित जन्म पर सैंतालीस बच्चे दम तोड़ देते हैं। माताओं की मौत के मामले में भी कुछ अच्छे आंकड़े नहीं हैं। अभी प्रदेश में हर साल करीब चार हजार तीन सौ महिलाएं प्रसव के दौरान या उसके बाद दम तोड़ देती हैं। फिलहाल प्रदेश में यह अनुपात प्रति एक लाख पर दो सौ चौवालीस महिलाओं की मौत का है। स्वास्थ्य विभाग के पास मौजूद वार्षिक सर्वेक्षण के आंकड़ों के मुताबिक मां को उचित पोषण न मिलने के कारण बच्चे कमजोर पैदा हो रहे हैं। जन्म के समय बच्चे का औसत वजन ढाई किलो होना चाहिए, लेकिन अड़तीस फीसदी बच्चों का वजन जन्म के समय इससे काफी कम होता है। प्रदेश में शिशु और मातृ मृत्यु दर के ग्राफ में लगातार कमी आ रही है। अभी एसआरएस के आंकड़ों के अनुसार प्रदेश में हर साल करीब अस्सी हजार शिशुओं और चार हजार से ज्यादा माताओं की मौत हो जाती है। सेव दि चिल्ड्रन द्वारा एडिंग न्यू-बॉर्न डेथ्स शीर्षक से जारी रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में हर साल दस लाख से अधिक बच्चे एक दिन से ज्यादा जीवित नहीं रह पाते। रिपोर्ट ने प्रशिक्षित स्वास्थ्यकर्मियों और जन्म से जुड़ी जटिलताओं को इन मौतों की सर्वाधिक प्रमुख वजह माना है। जन्म के समय उचित देखभाल और प्रशिक्षित स्वास्थ्य कार्मिकाओं की जरूरत तमाम स्वास्थ्य और सामाजिक कार्यकर्ता रेखांकित करते रहे हैं। इस बात को रिपोर्ट में भी स्वीकार किया गया है कि अगर जन्म के समय प्रशिक्षित स्वास्थ्य कर्मी मौजूद हों, तो लगभग आधी मौतों को टाला जा सकता है। यूनिसेफ द्वारा जारी स्टेट ऑफ द वल्र्ड चिल्ड्रन 2012 रिपोर्ट के मुताबिक भारत में प्रतिवर्ष लगभग सोलह लाख बच्चे पांच वर्ष की आयु पूरी करने से पहले ही दम तोड़ देते हैं, जबकि एक लाख में से लगभग चार हजार आठ सौ बच्चों की मौत जन्म के एक वर्ष के भीतर हो जाती है। 2011 में दुनिया के अन्य देशों के मुकाबले भारत में पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की सबसे ज्यादा मौतें हुर्इं। भारत में प्रतिदिन चार हजार छह सौ पचास से ज्यादा पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु होती है। यूनिसेफ की नई रिपोर्ट बताती है कि बच्चों के स्वास्थ्य के मामले में अभी बहुत कुछ किया जाना है। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट लेवल्स ऐंड ट्रेंड्स इन चाइल्ड मोरटैलिटी-2014 में कहा गया है कि 2013 में भारत में 13.4 लाख से अधिक बच्चों की मौत दर्ज की गई। 1990 में भारत में शिशु मृत्यु दर प्रति एक हजार बच्चों के जन्म पर अ_ासी थी, जो 2013 में घट कर इकतालीस हो गई। जाहिर है कि स्थिति में सुधार हुआ है, लेकिन मौजूदा हालात भी संतोषजनक नहीं हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि यों लोगों की सेहत के लिए काफी इंतजाम किए गए हैं और मानवाधिकारों की स्थिति में भी सुधार हुआ है, लेकिन अब भी बहुत से इलाकों और समुदायों में गहरी असमानता बनी हुई है। इनमें से भी करीब एक चौथाई मौतें सिर्फ भारत में होती हैं। सबसे ज्यादा मौतें भोपाल में कुपोषण से होने वाली मौतों में सबसे ज्यादा मौतें राजधानी भोपाल में हो रही हैं। यहां पर पिछले एक साल में 1704 मौतें हुई हैं। दरअसल, माना जाता है कि ग्रामीण इलाकों में कुपोषण से सबसे ज्यादा मौतें होती हैं। बड़वाननी में 1202 बच्चों की मौत हुई है। कुपोषण के लिए बदनाम क्षेत्र शिवपुरी में सिर्फ 628 मौतें ही हुई हैं। पोषण आहार में भ्रष्टाचार एक ओर प्रदेश सरकार कुपोषण से लडऩे के लिए खर्च पर खर्च कर रही है, दूसरी तरफ कुपोषण रोकने के फंड से दलालों और ठेकेदारों का पोषण हो रहा है। विपक्ष का आरोप है कि यह पोषाहार जरूरतमंदों के पास तक पहुंचता ही नहीं है। बस यह रसूखदारों के भ्रष्टाचार का साधन बन जाता है। इसको लेकर सिस्टम बदलने की घोषणा भी मुख्यमंत्री ने की थी। -सुनील सिंह
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