20-Mar-2017 06:19 AM
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सत्य नहीं होता सुपाच्य, किंतु यही वाच्य। भारत देश के मां-बाप महान हैं। बेटियों की शादी करते समय दहेज के विरोधी हो जाते हैं, लेकिन बेटों की शादी करते समय दहेज को उपहार और अपना अधिकार मानकर अधिकतम प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। मैंने ऐसे कई मां-बाप देखे हैं, जो बेटी की शादी के वक्त समाज-सुधार के प्रयासों में राजा राममोहन राय और दयानंद सरस्वती के भी कान काटते हैं, लेकिन बेटे की शादी के वक्त लड़की वालों का खून चूसने में जोंक की जात को भी मात दे देते हैं।
आज भी इस देश में जितनी दहेज हत्याएं नहीं हो रही हैं, उससे बीसियों, पचासों या सैकड़ों गुणा अधिक भ्रूण हत्याएं हो रही हैं। यानी मां-बाप जब पेट में ही बेटी की इरादतन नृशंस हत्या कर दें, तो इसे वे कोई गुनाह नहीं मानते, लेकिन ससुराल में अगर दुर्घटनावश भी बेटी की मौत हो जाए, तो उसके पति और सास-ससुर से लेकर पूरे परिवार पर दहेज-हत्या का मुकदमा ठोंकने से पीछे नहीं हटते। मैं पूरी जिम्मेदारी से कह सकता हूं कि अगर हमारे बीच सौ मां-बाप हत्यारे होंगे, तो उनकी तुलना में कोई एक ही सास-ससुर हत्यारा निकलेगा। फिर भी मां-बाप ममता की मूरत और सास-ससुर कसाई!
मैंने कई ऐसे मां-बाप देखे हैं, जो एक बेटे के इंतजार में पांच-छह बेटियां पैदा कर लेते हैं। लेकिन उनके जीवन और परिवार में पहले आई उन बेटियों का कायदे से जिनका उनकी धन-संपत्ति पर पहला हक होना चाहिए, उन्हें कुछ भी नहीं मिलता और छठे-सातवें नंबर पर आए हुए उस बेटे, जो अगर इस देश में नसबंदी लागू हो गई होती, तो दुनिया में कदम भी नहीं रख पाता, उसके लिए सब कुछ बचाकर रख लिया जाता है। ऐसे छह-सात बेटे-बेटियों वाले तमाम मां-बापों को मैंने देखा है कि वे अपनी बेटियों की शादी जैसे-तैसे करके अपना पिंड छुड़ा लेते हैं और छठे-सातवें नंबर वाले उस बेटे से गालियां सुनकर भी उसे अपने सीने से सटाए रखते हैं।
आजकल टेक्नोलॉजी ने तो मामला और बिगाड़ दिया है। अपने परिवार में बेटियों को दोयम दर्जे का सदस्य मानने वाले ऐसे मां-बाप ससुराल जाने पर अपनी बेटियों के साथ दिन-दिन भर मोबाइल फोन पर लगे रहते हैं। सामने रहने पर उन्हें कराहती देखना भी जिन मां-बापों के धैर्य को नहीं डिगा पाता था, वे ससुराल में बैठी हुई बेटियों की धीमी या मद्धिम आवाज तक से पता लगा लेते हैं कि बेटी कष्ट में है। बेटी का ख्याल रखना बहुत अच्छी बात है, लेकिन बेटी के रोजमर्रा के जीवन में घुस जाना उनका परिवार तोडऩे में बड़ी भूमिका अदा कर रहा है। खासकर, तब जब दोनों तरफ से पल-पल की रिपोर्टिंग होती हो और इस रिपोर्टिंग में उतने नमक-मिर्च का इस्तेमाल होता हो, जितने का सब्जियों में भी नहीं होता। एक अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण सच्चाई यह भी है कि आज भी अगर कोई अपराधी बेटी के साथ दुष्कर्म को अंजाम दे दे, तो मां-बाप इसे छिपाने में जुट जाते हैं, जो कि प्रकारांतर से अपराधी को बचाने जैसा ही है, लेकिन उसके ससुराल जाने पर पति, जो कि एनीटाइम किसी बलात्कारी से बेहतर होता है, उसे एडजस्टमेंट की छोटी-मोटी दिक्कतों के चलते भी झूठे-सच्चे मुकदमों में फंसाकर जेल भिजवाने में उनके अहंकार को संतुष्टि मिलती है।
कानून का दुरूपयोग
कानूनों का जितना दुरुपयोग आजकल बेटियों के मां-बाप कर रहे हैं, उतना ज्यादा दुरुपयोग तो शातिर अपराधी भी नहीं करते। यह एक सच्चाई है कि दहेज-विरोधी कानूनों का जितना दुरुपयोग हुआ है, उतना तो टाडा और पोटा जैसे कानूनों का भी नहीं हुआ। विडंबना देखिए कि वही मां-बाप जो दहेज-विरोधी कानूनों का जमकर दुरुपयोग कर रहे हैं, जब बात बेटियों को बेटों के बराबर संपत्ति में हक दिलाने वाले कानून की आती है, तो उस पर कुंडली मारकर बैठ जाते हैं।
-ज्योत्सना अनूप यादव