15-May-2013 06:26 AM
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कर्नाटक में पराजय के बाद भारतीय जनता पार्टी के एक वर्तमान नेता और एक पूर्व नेता को अब बड़ा इत्मीनान हो रहा होगा। वर्तमान नेता हैं अनंत कुमार और पूर्व नेता हैं येदियुरप्पा। देखा जाए तो

कर्नाटक में भारतीय जनता पार्टी की अभूतपूर्व पराजय के शिल्पकार ये दो ही हैं और इन दोनों शिल्पकारों को केंद्रीय नेताओं के अहम ने जितनी शह दी है उतनी भारतीय राजनीति के इतिहास में शायद ही देखने को मिले। ऐतिहासिक तो यह पराजय भी है। जो दल लगभग पूर्ण बहुमत के साथ पांच वर्ष तक सत्तासीन रहा उसी दल को राज्य में तीसरे स्थान से संतोष करना पड़ा। इस गुणात्मक गिरावट को भारतीय जनता पार्टी जिस भी नजरिए से देखे किंतु ये तो तय है कि जिन कमजोरियों के लिए भाजपा कांग्रेस पर आघात करती आई है कमोबेश वे ही कमजोरियां कर्नाटक में भारतीय जनता पार्टी की पराजय का कारण बनी। भ्रष्टाचार, भाई भतीजावाद, वंशवाद, लालफीताशाही और हर मोर्चे पर की गई लापरवाहियां। कर्नाटक की जनता भ्रमित थी एक तरफ जनतादल सेकुलर जैसी पार्टी थी जिसके भ्रष्टाचार के रिकार्ड जनता के जेहन में ताजा थे तो दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी के शासनकाल में बेल्लारी खदानों से लेकर येदियुरप्पा के भ्रष्टाचार के किस्से जनता को झकझोर रहे थे। विडम्बना देखिए कि जनता को जब विकल्प नहीं मिला तो मजबूरी में कांग्रेस को चुनना पड़ा। उस कांग्रेस को जिसने केंद्र में इतिहास की सबसे भ्रष्ट सरकार दी है। जनता के पास कोई विकल्प नहीं था किंतु साथ ही वह ये भी जानती थी कि यदि खंडित जनादेश दिया तो इन्हीं पार्टियों के विधायक नीलामी के बाजार में खड़े हो जाएंगे और जिस भ्रष्टाचार से बचने के लिए वह सत्ता परिवर्तन कर रही है वही भ्रष्टाचार फिर गले पड़ जाएगा। लिहाजा जनता ने कांग्रेस को चुना, लेकिन एक संदेश स्पष्ट दिया कि यह जीत नहीं है बल्कि एक अवसर है और अवसर भी इसलिए मिला है क्योंकि प्रतिद्वंद्वी बटे हुए हैं। उनमें एकता नहीं है। जनता के इस संदेश को चुनावी नतीजों में पढ़ा जा सकता है। येदियुरप्पा की पार्टी केजेपी (कर्नाटक जनता पक्ष) और भाजपा को कुल मिलाकर 46 सीटें मिली हैं यदि दोनों साथ होते तो इतने भ्रष्टाचार के बावजूद दयनीय स्थिति नहीं बनती क्योंकि 51 सीटें ऐसी हैं जहां इन दोनों पार्टियों के वोट विजेता बनी कांग्रेस के प्रत्याशियों के वोट से अधिक हैं। जनता ने कांग्रेस को भी आइना दिखाया है। यह बात अलग है कि इस आइने में सच्चाई को देखने की बजाए कांग्रेस गदगद है। आतिशबाजियां की जा रही हैं और यह प्रचार किया जा रहा है कि राहुल गांधी पहली परीक्षा में उत्तीर्ण हुए हैं और मोदी धराशायी हो गए हैं। यह प्रचार कार्यकर्ताओं को उत्साहित करने के लिए बुरा भी नहीं है, किंतु कांग्रेस मुगालता न पाले तो ही अच्छा है क्योंकि उसे जिन दो महापुरुषों ने जीत दिलाई है उनमें से एक येदियुरप्पा लिंगायत समुदाय के निर्विवाद नेता थे तो दूसरे अनंत कुमार लोकप्रियता में शून्य होने के बावजूद आडवाणी, राजनाथ, गडकरी जैसे केंद्रीय नेताओं के चहेते बने हुए थे और उन्होंने इस चाहत का भरपूर फायदा भी उठाया। 2008 के विधानसभा चुनाव के दौरान अनंत कुमार कर्नाटक से ज्यादा दिल्ली में सक्रिय रहे क्योंकि उन्हें विश्वास था कि सरकार तो बन ही जाएगी इसलिए दिल्ली में लॉबिंग करके मुख्यमंत्री पद हथियाना ज्यादा उचित है। उनकी यह लॉबिंग रंग भी लाई थी कर्नाटक में लगभग बहुमत के करीब पहुंची भाजपा के समक्ष जब 2008 में मुख्यमंत्री पद का सवाल खड़ा हुआ तो केंद्रीय नेतृत्व अनंत कुमार को थोपना चाह रहा था, किंतु कर्नाटक में विद्रोह की स्थिति उत्पन्न हो गई। येदियुरप्पा ने अपनी ताकत दिखाते हुए साफ कह दिया कि उन्हें मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया तो भाजपा की सरकार भी नहीं बनेगी। केंद्रीय नेतृत्व को येदियुरप्पा की उस जिद के आगे झुकना पड़ा। झुकना लाजमी भी था क्योंकि कर्नाटक में येदियुरप्पा भाजपा के पर्याय बन चुके थे। वे उस सरकार में भी उपमुख्यमंत्री थे जब भाजपा को 2004 में 78 सीटें हासिल हुई थी और 58 सीटों वाले जनता दल सेकुलर के साथ मिलकर उसने सरकार बनाई थी। उस वक्त राज्य में लिंगायत समुदाय पर येदियुरप्पा ने करीब-करीब अपना आधिपत्य जमा लिया था। भाजपा येदियुरप्पा की इस आंतरिक ताकत को समझने में नाकाम रही। केंद्रीय संसदीय समिति अनंत कुमार के इशारे पर नाचती रही। उधर जब येदियुरप्पा के भ्रष्टाचार के सारे रिकार्ड ध्वस्त हो गए तो उन्हें हटाने में भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष नितिन गडकरी ने जो देरी की उससे भाजपा की रही सही छवि भी नष्ट हो गई। जिस दल को भ्रष्टाचार से त्रस्त होकर जनता ने कमान सौंपी थी वही दल भ्रष्टाचार के दल-दल में फंसता नजर आया। यदि गडकरी येदियुरप्पा को पहले ही विदा कर देते तो कम से कम भाजपा के समक्ष एक नैतिक आधार बना रह सकता था। लेकिन येदियुरप्पा भी कुर्सी से चिपके हुए थे और गडकरी को भी उनका मोह था। इसी कशमाकश में भाजपा का जनाधार दक्षिण के इस एकमात्र राज्य में ध्वस्त हो चुका था। बची-खुची कसर बाद की कार्रवाई ने कर डाली। येदियुरप्पा के बाद नेतृत्व में लगातार बदलाव और ढीले-ढाले मुख्यमंत्रियों को कमान सौंपकर भाजपा ने अपने पैर पर ही कुल्हाड़ी मारी। नतीजा सामने है पहली बार कोई पार्टी विधानसभा में 70 सीटों का घाटा उठाकर मत प्रतिशत के हिसाब से तीसरे स्थान पर खिसक गई है। 121 सीटों के साथ कांग्रेस ने अभूतपूर्व विजय हासिल की है। उसे 42 प्रतिशत वोट भी मिले हैं। जो केंद्र में कांग्रेस की दुर्गति को देखते हुए संतोषप्रद कहे जा सकते हैं। विकल्पहीनता के अभाव में जनता ने कांग्रेस को चुनकर यह संदेश तो दिया है कि वह अभी भी राष्ट्रीय दलों को जिम्मेदारी देने के पक्ष में है, लेकिन कांग्रेस को इस जीत को बरकरार रखने के लिए भरपूर मेहनत करनी पड़ेगी। क्योंकि जनता दल सेकुलर की ताकत उत्तरोत्तर मजबूत होती जा रही है। 40 सीटें जनता दल सेकुलर को मिली हैं और उन सीटों की खासियत यह है कि एक भी सीट येदियुरप्पा की मेहरबानी से नहीं मिली। जनता दल सेकुलर को जो भी जनादेश मिला वह भाजपा से नाराजगी के कारण नहीं बल्कि दोनों राष्ट्रीय पार्टियों से मोह भंग के कारण था। सुकून इस बात का है कि अब देवेगौड़ा और उनके पुत्र सौदेबाजी नहीं कर पाएंगे। हालांकि लोकसभा चुनाव को देखते हुए यह आशंका पनप रही है कि अपनी स्थिति को मजबूत करने हेतु जनता दल सेकुलर और कांग्रेस कोई गुप्त समझौता कर सकते हैं पर यह सब उस बात पर निर्भर करेगा कि केंद्र में तीसरा मोर्चा गठित हो पाता है अथवा नहीं। फिलहाल तो येदियुरप्पा और शरद पवार की नजदीकियां कांग्रेस तथा भाजपा दोनों के लिए चिंता का विषय है। जिस तरह तीसरे मोर्चे की बात चल रही हैं वह दोनों दलों के लिए खतरे की घंटी साबित हो सकती है।
वोटिंग से सीएम बने सिद्धारमैया
कर्नाटक में जीत के बाद कांग्रेस के समक्ष मुख्यमंत्री चुनने की चुनौती पहाड़ बनकर खड़ी हो गई थी। कारण था आठ दावेदारों का लाइन में लगा होना। जिनमें राज्य स्तरीय नेताओं से लेकर केंद्रीय मंत्री तक शामिल थे। सुनने में तो यह भी आया है कि एम कृष्णा ने भी लॉबिंग कर रखी थी। इसी को देखते हुए कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व में एक अनूठा तरीका चुना। चुने हुए 121 कांग्रेसी विधायकों का गुप्त मतदान कराया गया और उनमें से 75 विधायकों ने सिद्धारमैया को अपना नेता चुना। यूं तो सिद्धारमैया प्रारंभ से ही सभी विधायकों की पसंद बने हुए थे लेकिन उनकी पृष्ठभूमि के कारण थोड़ी सी झिझक भी थी। कभी पूर्व प्रधानमंत्री एच.डी. देवेगौड़ा के विश्वसनीय रहे सिद्धारमैया छह वर्ष पूर्व ही कांग्रेस में शामिल हुए हैं और छोटी अवधि में ही उन्होंने कांग्रेस में अपना मुकाम मजबूत कर लिया है। इस मजबूती की सबसे बड़ी मिसाल था उनका नेता प्रतिपक्ष चुना जाना। कांग्रेस में कई पुराने नेताओं के रहते हुए सिद्धारमैया को नेताप्रतिपक्ष बनाया गया। ऑडी कार के शौकीन सिद्धारमैया मैसूर जिले की वरुण विधानसभा से लगातार पांच बार विधायक रहे हैं। वे दो बार कर्नाटक के उप मुख्यमंत्री भी रहे हैं। उनका आर्थिक पहलू अचानक कुछ समय में ही काफी मजबूत हो गया है। हालांकि उनके समर्थक यह कहते हैं कि सिद्धारमैया के खिलाफ कुप्रचार किया गया है। वे जमीन से जुड़े हुए व्यक्ति हंै। कारण चाहे जो हो सिद्धारमैया को इस बार मुख्यमंत्री के रूप में अपनी ईमानदारी की मिसाल कायम करनी ही होगी। क्योंकि मुख्यमंत्री पद की दौड़ में उन्होंने केंद्रीय मंत्री मल्लिकार्जुन खडग़े को पीछे छोड़ा है। खडग़े अपनी ईमानदारी के लिए विख्यात हैं यदि वे मुख्यमंत्री बनते तो कांग्रेस को ज्यादा फायदा होता। लेकिन लोकतंत्र में संख्या महत्व रखती है। संख्या की दृष्टि से खडग़े उतने ताकतवर सिद्ध नहीं हुए। हालांकि खडग़े के पक्ष में भी बड़ी तादाद में विधायक थे किंतु शायद वे उन्हें केंद्रीय मंत्री बने रहना ही देखना चाहते थे। खडग़े नौ बार उत्तरी कर्नाटक से जीतते रहे हैं। इससे पहले भी यह दलित नेता कांग्रेसियों की पसंद रहा है। लेकिन दुर्भाग्य रहा कि वे मुख्यमंत्री नहीं बन पाए। बहरहाल इस बार कांग्रेस ने राज्य में गुटबाजी पर नियंत्रण पाने का नायाब तरीका ढूंढा है। कांग्रेस के इस भीतरी चुनाव की खास बात यह है कि केंद्रीय पर्यवेक्षक के रूप में रक्षामंत्री एके एंटोनी के साथ-साथ खेल राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह और कर्नाटक के महासचिव मधुसूदन मिस्त्री ने इन चुनाव को संपन्न कराया। सिद्धारमैया ने फिलहाल अकेले ही शपथ ली है। मंत्रीमंडल का विस्तार भी एक चुनौती है। जिन 46 विधायकों ने उनके खिलाफ मतदान किया है उन्हें जोड़े रखना भी चुनौती रहेगी। कांग्रेस को इस जीत से दक्षिण भारत में संजीवनी मिली है। आंध्रप्रदेश में जगन मोहन रेड्डी को जमानत नहीं मिलने के बाद अब कांग्रेस के पास एक अवसर आंध्रप्रदेश में अपना गढ़ मजबूत करने का भी है। यदि आगामी लोकसभा चुनाव से पहले आंध्रप्रदेश, कर्नाटक और केरल जैसे दक्षिणी राज्यों में कांग्रेस अपना किला मजबूत करने में कामयाब रहती है तो उम्मीद है कि वह लोकसभा चुनाव में अपनी इज्जत बचा भी सकती है। फिलहाल तो कर्नाटक की जीत कांग्रेस के घावों पर मरहम साबित हो रही है।
श्यामसिंह सिकरवार