16-Feb-2017 07:59 AM
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संजय लीला भंसाली कभी मुझे बहुत प्रिय नहीं रहे। उनकी फिल्में अक्सर मुझे भव्यता से आक्रांत और इसलिए किसी वास्तविक कलात्मक अनुभव से कुछ दूर जान पड़ती हैं। हालांकि ऐसे बहुत सारे लोग हैं जिनकी निगाह में वे बड़े और संवेदनशील फिल्मकार हैं। मगर मुझे वे अंतत: रोमानी फिल्मों के निर्देशक लगते हैं जिनमें यथार्थ बस एक झीनी पृष्ठभूमि की तरह उपस्थित रहता है। अगर उनके शिल्प को याद रखें तो अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि अलाउद्दीन खिलजी और पद्मावती पर बन रही अपनी फिल्म में कुछ सुंदर और भावपूर्ण दृश्यों और स्थितियों की रचना के लिए वे बस इतिहास की ऐसी जमीन का इस्तेमाल कर रहे होंगे जो ठोस तथ्यों से ज्यादा रूमानी कल्पनाओं को जन्म देती हो।
लेकिन पिछले दिनों इस फिल्म की शूटिंग के दौरान जो दृश्य बना, वह संजय लीला भंसाली की कलावादी रूमानियत से नहीं, अनुराग कश्यप के क्रूर यथार्थवाद से उपजा हुआ लग रहा था। इतिहास और संस्कृति की रक्षा के नाम पर किसी अनजान संगठन के कुछ तथाकथित सामाजिक कार्यकर्ता उस निर्देशक की बाल खींच रहे थे जिसने अपने ढंग का ऐसा फिल्मी मुहावरा बनाया है जिसे ब्लैकÓ, देवदासÓ, गुजारिशÓ या बाजीराव मस्तानीÓ जैसी फिल्मों की मार्फत बहुत सारे लोग बहुत शिद्दत से पसंद करते हैं। एक अनजान संगठन के कुछ मु_ी भर लोगों के भीतर यह हिम्मत कहां से पैदा होती है? क्या उस संरक्षण भाव से नहीं, जो सरकारें उन्हें चुपचाप नहीं, बल्कि खुलेआम दिया करती हैं?
क्या यह हमला सिर्फ संजय लीला भंसाली और उनकी ऐतिहासिक समझ पर था? संभव है, संजय लीला भंसाली की ऐतिहासिक समझ बहुत गहरी न हो। संभव है, वे अलाउद्दीन खिलजी और पद्मावती को लेकर वाकई एक ऐसी फिल्म बनाने का दुस्साहस कर रहे हों जो बहुत सारे लोगों की स्मृति से पैदा बोध पर एक चोट करती हो। उन्हें ऐसी फिल्म बनाने का हक है या नहीं, इस पर बहस हो सकती है।
लेकिन इस बात पर बहस नहीं हो सकती कि जिन लोगों ने उनके बाल खींचे, उन्हें थप्पड़ लगाया उन्हें ऐसा कुछ भी करने का हक नहीं था। उन्होंने सीधे-सीधे एक अपराध किया जिसे कोई भी स्वस्थ और संवेदनशील व्यवस्था स्वीकार नहीं कर सकती। इस अपराध के बाद उन्होंने संजय लीला भंसाली के साथ बैठक भी की, उन पर शूटिंग टालने का दबाव बनाया। यही नहीं, उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर अपना तथाकथिक पक्षÓ रखने की लोकतांत्रिक उदारताÓ दिखाई।
एक अनजान संगठन के कुछ मु_ी भर लोगों के भीतर यह हिम्मत कहां से पैदा होती है? क्या उस संरक्षण भाव से नहीं, जो सरकारें उन्हें चुपचाप नहीं, बल्कि खुलेआम दिया करती हैं? इनके हाथों जो लोग पिटे, जिनका नुकसान हुआ, उनके भीतर असुरक्षा बोध इतना गहरा है कि वे पुलिस में एक शिकायत तक नहीं करा पा रहे। पुलिस बड़ी मासूमियत से कह रही है कि पहले उसके पास कोई शिकायत पहुंचे तब वह कार्रवाई करेगी। भारत में जल, थल और वायु सेना हमारी सुरक्षा में जुटी रहती है और अपनी जान पर खेलकर हमारी जान बचाती है। लेकिन भारत में कई ऐसी सेनाएं हैं जो हक पाने के लिए कुछ भी कर गुजरती है। मारपीट, झगड़ा, काम रोकना इसके लिए आम बात है।
असली खतरा यही है। सरकारी संरक्षण के भरोसे के साथ यह करणी सेना और ऐसी कई सेनाएं पूरे देश में अपनी तथाकथित भावनाओं के डंडे लिए तैयार बैठी हैं। कहीं लड़की पब में चली जाती है तो वह डंडा चलाना शुरू कर देती है। कोई वेलेंटाइंस डे मनाना चाहता है तो उनकी संस्कृति को ठेस पहुंचती है। कोई राष्ट्रगान पर खड़ा नहीं होता तो वह कानून संभालने का जिम्मा अपने हाथ में ले लेती है। किसी फिल्म में सरहद पार के नायक काम करते हैं तो वह फिल्म बनाने वालों को गद्दार घोषित कर देती है। और तो और, नोटबंदी के बाद कतार में खड़े लोग अपनी तकलीफ बयान करते हैं तो वह उन्हें भी देशद्रोही करार देती है। कोई किसी मंच से इस असहिष्णुता की शिकायत करता है तो उसे उसका मजहब याद दिलाती है और उसे पाकिस्तानी बता डालती है। और जो लेखक खुद को मिले मामूली से पुरस्कार वापस करने का गलत या सही फैसला करते हैं, उन्हें पुरस्कार वापसी गैंगÓ बताकर इस तरह पेश करती है जैसे सारी गड़बडिय़ों के जिम्मेदार यही लोग हैं।
इतिहास का हम कितना सम्मान करते हैं, यह हमारी सांस्कृतिक-ऐतिहासिक धरोहरों के रखरखाव में हमारी उपेक्षा से लेकर अपनी परंपरा और संस्कृति के प्रति हमारी हीनभावना जैसी बातों से बार-बार उजागर होता है। ऐसे माहौल में कविता लिखना, चित्र बनाना, गीत गाना-कुछ भी खतरनाक और डरावना हो सकता है। या तो आप ऐसे संरक्षण प्राप्त गिरोहों के सामने घुटने टेकें, उनके समझौता करने की जिल्लत झेलें, अपनी फिल्म की पटकथा में उनके द्वारा किए गए फेरबदल को मान लें या फिर अपना लिखना-पढऩा, सोचना और असहमति जताना बंद करके खामोश बैठे रहें। पिछले साल दिल्ली और अजमेर मिला कर कुल तीन आयोजनों में मुझे मौजूदा व्यवस्था की आलोचना पर सभा के भीतर इतना हंगामा झेलना पड़ा कि लगा कि कार्यक्रम रद्द करने की नौबत आ आएगी। कार्यक्रम बस इसलिए चलता रहा कि हुड़दंगियों का इरादा बस अपनी उपस्थिति जता कर यह सुनिश्चित करने का था कि कोई उनकी विचारधारा के खिलाफ कुछ न बोले।
यह स्थिति पूरे देश में है। एक बहुत उद्धत किस्म का अनपढ़ तबका राजनीति, विचारधारा, इतिहास, देश- सब कुछ पर अपने कुछ बने-बनाए पूर्वग्रहों की रक्षा में जुटा है। लेकिन यह तबका किसी शून्य से नहीं उपजा है, उसे बाकायदा नफरत और हिंसा की घुट्टी पिला-पिला कर पाला-पोसा और तैयार किया गया है। उसे न समाज की फिक्र है न स्त्री की और न ही सम्मान की। वह बाजू फडफ़ड़ाता हुआ और गालियां बकता हुआ आता है और बिल्कुल पाशविक शक्ति से आप पर वार करता है, फिर आपको सभ्यता और संस्कृति का उपदेश देता है, आप अगर उसे सुन लेते हैं तो आपकी पीठ थपथपाता हुआ अपनी सहिष्णुता का प्रदर्शन करता है। लेकिन इतने भर तूफान से आपकी रचनात्मक सहजता जैसे नष्ट हो जाती है। आखिर देश किस दिशा में जा रहा है।
राजपूत करणी सेना
अब जयपुर की घटना को ही ले लीजिए। संजय लीला भंसाली की फिल्म पद्मावती की शूटिंग में राजपूत करणी सेना ने जमकर मारपीट की। राजपूत समुदाय का आरोप है कि संजय ने इतिहास के साथ छेड़छाड़ की है। सेट पर सेना ने जमकर ड्रामा किया। तोड़-फोड़ के साथ-साथ भंसाली के साथ भी मारपीट की। इस सेना के संस्थापक लोकेन्द्र सिंह कालवी ने राजपूत करणी सेना का गठन 2006 में किया।
शिव सेना
ये वही सेना है जिसने 2008 में महाराष्ट्र में रह रहे यूपी-बिहार के लोगों को जमकर पीटा था। दूसरे राज्यों से रोजी-रोटी कमाने आए लोगों को घरों से खींच-खींचकर पीटा था। गैर मराठियों के लिए ये पार्टी हमेशा कड़े रुख में रहती है। यही नहीं करणी सेना ने जो भंसाली के सेट पर किया उसे भी शिवसेना ने जायज ठहराया और कहा इतिहास से छेड़छाड़ बर्दाश्त नहीं। पूरे देश में शिव सेना को एक कट्टर हिन्दू राष्ट्रवादी दल के रूप में जाना जाता है। 19 जून 1966 में बाल ठाकरे ने इस सेना की स्थापना की थी।
रिपब्लिकन सेना
ये सेना भले ही लोगों की नजर में नहीं आई, लेकिन कई ऐसे काम कर रही है जिससे जल्द ये मारपीट और झगड़े वाली सेना कह दी जाएगी। 2011 में मुंबई के इंदु मिल में ये सेना जबरन घुसी और बाबासाहेब आंबेडकर का वल्र्ड क्लास स्मारक बनाने की मांग करने लगी और जमकर तोडफ़ोड़ और हंगामा किया। जिसके बाद सेना के अध्यक्ष आनंदराज आंबेडकर समेत 7 लोगों को हिरासत में लिया गया।
हिंदू सेना
मारपीट और हिंसा करने वाली हिंदू सेना वही पार्टी है जिसने दिल्ली स्थित केरल हाउज की कैंटीन में घुसकर, कैंटीन के लोगों को धमकी दी थी। दावा किया था कि कैंटीन में गाय का मांस परोसा जाता है। हिंदू सेना ने यह तक कर डाला कि अगर कैंटीन में गाय का मांस पकाना और परोसना बंद नहीं किया जाता तो वो हिंसा पर उतर आएंगे। विष्णु गुप्ता ने इस पार्टी का निर्माण 10 अगस्त 2011 को किया था।
जाट सेना
ये वही सेना है जिसने जाट आरक्षण आंदोलन में हिस्सा लिया था और काफी उपद्रव किया था। यही नहीं, ट्रेन की पटरियों को भी निकाल दिया था। जिसे देखते हुए सरकार ने शूट एट साइट तक के आर्डर दे दिए थे। इस आंदोलन में कई जानें भी गई थीं। आरक्षण के लिए इस सेना ने बकायदा युवा लोगों की भर्तियां तक की थीं।
रणवीर सेना
रणवीर सेना, भारत का आतंकवादी और उग्रवादी संगठन हैं, किसका मुख्य आतंक क्षेत्र बिहार है। इस सेना ने बिहार का सबसे बड़ा सामूहिक नरसंहार किया था। जहानाबाद के लक्ष्मणपुर-बाथे नामक गांव में एक साथ 59 लोगों की हत्या की थी। रणवीर सेना की स्थापना 1995 में बिहार के भोजपुर जिले में हुई।
महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना
बाल ठाकरे के भतीजे राज ठाकर की ये पार्टी (महाराष्ट्र नव निर्माण सेना) भी मारपीट और झगड़ा करने में फेमस है। हाल ही की बात ले लीजिए, करण जौहर की फिल्म ऐ दिल है मुश्किल में पाक एक्टर्स को लिया। राज ठाकरे ने महाराष्ट्र में फिल्म रिलीज न करने का फैसला ले लिया। एमएनएस ने मल्टीप्लेक्स मालिकों को चि_ी लिखी जिसमें उन्होंने थियेटर तोडऩे की सीधी-सीधी धमकी दी। फिर राज ठाकरे की शर्तों पर फिल्म को रिलीज किया गया। राज ठाकरे ने एमएनएस की स्थापना 9 मार्च 2009 को की थी।
-अक्स ब्यूरो