16-Feb-2017 07:54 AM
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कालेधन पर अंकुश लगाने के मकसद से सरकार ने राजनीतिक दलों को मिलने वाले नगद चंदे में पारदर्शिता लाने की पहल की है। बजट में नगद चंदे की सीमा बीस हजार रुपए से घटा कर दो हजार रुपए कर दी गई। अब सरकार राजनीतिक दलों के लिए अपने आय-व्यय का ब्योरा जमा कराना अनिवार्य बनाने जा रही है। प्रस्तावित कानून के मुताबिक पार्टियों को दिसंबर तक अपने आय-व्यय का ब्योरा जमा करना होगा, नहीं तो उन्हें आयकर में मिलने वाली छूट खत्म की जा सकती है। राजनीतिक दलों पर यह सख्ती, निस्संदेह एक सकारात्मक कदम कही जा सकती है, पर वे इस पर कितना अमल करेंगे, कहना मुश्किल है। पहले भी जब पार्टियों को मिलने वाले नगद चंदे की सीमा बीस हजार रुपए की गई थी, तो वे फर्जी नामों से पर्चियां बना कर बड़ी रकम को छोटी रकम में बदल दिया करती थीं। अब चूंकि नकदी की राशि इतनी छोटी है उन्हें फर्जी पर्चियां काटने में कुछ अधिक मशक्कत करनी पड़ सकती है, पर वे चंदे की बड़ी रकम स्वीकार नहीं करेंगी, दावा करना मुश्किल है।
छिपी बात नहीं है कि पार्टियों का खर्चा हजार-दो हजार के नगद चंदे से नहीं चलता। तमाम व्यवसायियों और उद्योगपतियों की मदद से वे चुनाव लड़ती हैं। उद्योगपतियों से मिलने वाले धन पर अंकुश लगाने के मकसद से ही निर्वाचन आयोग ने भी प्रत्याशी के चुनाव खर्च की सीमा तय की थी। चूंकि उसमें पार्टियों का खर्च शामिल नहीं होता, इसलिए बहुत सारे प्रत्याशी चुनाव में खुल कर धनबल का प्रयोग करते हैं। पार्टियों की तरफ से प्रत्याशियों को मिलने वाले या फिर प्रत्याशियों के पार्टी के नाम से करने वाले खर्च पर कैंची चलाने के उद्देश्य से सरकार ने पार्टियों के आय-व्यय का ब्योरा पेश करना अनिवार्य बनाने का मन बनाया है। यह कहां तक संभव हो पाएगा, देखने की बात है। हर राजनीतिक दल के मुखिया सार्वजनिक मंचों से अपने कार्यकर्ताओं को सादगीपूर्ण जीवन की नसीहत देते नहीं थकते, पर हकीकत में उनकी तड़क-भड़क वाली जीवन-शैली बनी रहती है।
यह भी छिपी बात नहीं है कि राजनीति में आने के साथ ही बहुत सारे जनप्रतिनिधियों की संपत्ति में आश्चर्यजनक रूप से इजाफा होने लगता है। यह सब अधिकारियों, उद्योगपतियों, व्यवसायियों आदि को उपकृत करने के बदले प्राप्त होता है। फिर चुनाव लडऩा इन दिनों इस कदर खर्चीला हो गया है कि किसी सामान्य आयवर्ग के व्यक्ति के बूते की बात नहीं रह गई है। सब जानते हैं कि पार्टियां अब प्रत्याशियों को चुनाव खर्च में मदद नहीं करतीं, बल्कि प्रत्याशी खुद पार्टी फंड में कुछ मदद करते रहते हैं। उजागर है कि यह सब कानूनी तरीके से जुटाया धन नहीं होता। ऐसे में अचानक पार्टियों के सामने अपने चंदे और कमाई का विवरण पेश करने की बाध्यता उपस्थित होगी, तो वे कोई गली निकालने से बाज नहीं आएंगी। आयकर में छूट पाने के मकसद से वे विवरण जरूर पेश करेंगे, पर वह कितना सही होगा, इसकी जांच का तरीका क्या होगा, यह भी सरकार को सोचने की जरूरत है। चुनाव निस्संदेह कालेधन को सफेद करने का सबसे मुफीद अवसर होते हैं, इसलिए पार्टियों के समर्थक, उनसे लाभ पाने की उम्मीद लगाए या फिर उनके दबाव में आए उद्योगपति चोरी-छिपे चंदे के रूप में बड़ी रकम देने से बाज आएंगे, दावा नहीं किया जा सकता। इसलिए सरकार को कालेधन के स्रोतों की पहचान मुकम्मल करना जरूरी है।
भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने राजनीतिक दलों को नकद में चंदा लेने की सीमा 2,000 रुपए कर दी। इसके परिणामस्वरूप राजनीतिक दलों में खपने वाले कालेधन पर लगाम लग सकेगी, केवल सुनने में ही यह सब अच्छा लगता है। हकीकत यह है कि यह उपाय व्यवहारिक नहीं है। जिस राजनीतिक दल को चंदा लेना है, वह विभिन्न तरीकों से इस सीमा के बावजूद सरलता से बड़ी मात्रा में चंदा जुटा सकते हैं। मुझे तो यह लगता है कि यह उपाय केंद्र सरकार में उच्च पदों पर बैठे नौकरशाहों के दिमागों की उपज है वरना राजनेता अच्छी तरह से समझते हैं कि यह कितना कारगर साबित होगा। यह उपाय मुझे व्यावहारिक इसलिए नहीं लगता है क्योंकि अव्वल को अब 2,000 का कोई भी चंदा नहीं देता है। यदि किसी को चंदा देना है और नकद में ही देना चाहता है तो विभिन्न नामों से दो-दो हजार रुपए करके चंदा सरलता से देगा। इसके अलावा एक बड़ी बात यह भी है कि यह सारी राशि वह है जिसे राजनीतिक दल चंदे के रूप में दर्शाना चाहते हैं लेकिन हम सभी जानते हैं कि चुनावों में निर्धारित राशि से कहीं अधिक राशि खर्च हो जाती है।
नोटबंदी के इतने लंबे समय और बैंकों से नकद निकासी सीमा के बावजूद वर्तमान में पांच राज्यों के चुनाव में किसी भी उम्मीदवार ने भी यह नहीं कहा कि उसके पास पर्याप्त धन नहीं है इसलिए वह चुनाव नहीं लड़ सकता। इसका अर्थ है कि चुनाव खर्च के लिए पर्याप्त तैयारी कर ली गई है। बाजार में सरलता से 100, 500 और 2000 रुपए की नकदी उपलब्ध है। ज्यादातर चुनावी लेन-देन नकद में ही हो रहा है। पोस्टर तैयार करने वाले, चिपकाने वाले अन्य सामग्री की खरीद-फरोख्त करने वाले सब नकद में ही काम चला रहे हैं। हमारी कांग्रेस पार्टी के गोवा और पंजाब के कार्यकर्ताओं से बातचीत हुई। उनके मुताबिक 70 फीसदी लेन-देन नकद में हुआ। केवल 2,000 रुपए का चंदा नकद से लेने से कालेधन पर अंकुश नहीं लगने वाला। मुझे लगता है कि देश में कानूनों का सरलीकरण करना बेहद जरूरी है।
जरूरत इस बात की है कि व्यावहारिक चुनाव सुधारों को लागू किया जाए। चुनाव सुधारों के लिए जो समिति बनाई जाए, उसमें नौकरशाहों की बजाय अनुभवी राजनेताओं को जगह मिले। अनुभवी से मेरा आशय है कि जिन्होंने चुनाव लड़ा हो। उन्हें हकीकत में पता है कि चुनाव में कितना खर्च होता है और कितनी सीमा बढ़ाई जानी चाहिए। भ्रष्टाचार कभी भी कानूनों को कड़ा करने से नहीं रुकेगा। इसके लिए जरूरी है कि कानून का सरलीकरण किया जाए। यदि कर प्रणाली में सुधार करना हो तो वह करें। चुनाव सुधारों को लागू करना हो तो वह करें। मुझे तो लगता है कि चुनाव खर्च की सीमा बढ़ाना भी राजनीतिक दलों की आय में पारदर्शिता लाने में सहायक होगा। अनिल शास्त्री कांग्रेस के वरिष्ठ नेता।
राजनीतिक दलों के चुनावी चंदे में कालेधन के प्रवाह की बातें लंबे समय से हो रही है। इसे रोकने की दिशा में सरकार ने नकद चंदे की सीमा को बीस हजार से घटाकर दो हजार रुपए कर एक छोटा कदम उठाया है। लेकिन यह काफी नहीं कहा जा सकता। वैसे भी कालाधन वही होता है जिसका हिसाब-किताब नहीं होता और न यह पता चलता कि यह कहां से आया? यह बहस का विषय जरूर है कि आखिर राजनीतिक दलों को विशेषाधिकार किस बात का दिया जाए? वैसे भी राजनीतिक दल अपने हिसाब में 70 फीसदी चंदे की रकम को अज्ञात स्रोत से बताते रहे हैं। ऐसे में यह नहीं कहा जा सकता कि 20 हजार रुपए से घटाकर नकद चंदे की सीमा 2 हजार करने से यह प्रवृत्ति कम होगी।
फर्क यही हो सकता है कि राजनीतिक दल चंदे को ज्यादा लोगों से मिला बता सकते हैं। सवाल यह है कि चुनाव आयोग और विधि आयोग ने चुनाव सुधारों को लेकर जो सिफारिशें कर रखी हैं उनको पूरी तरह से लागू क्यों नहीं किया जाता? चुनाव चाहे लोकसभा के हों या विधानसभाओं के हर राजनीतिक दल खुद को गरीब पार्टी बताते हुए यह कहता आया है कि उसने 10-20 रुपए जनता से एकत्र कर चुनावों के लिए रकम जुटाई है। अब जो दल दो हजार रुपए से ज्यादा चंदा मिलना बताएंगे ही नहीं तो उनको कैसे रोकेंगे? लोकतंत्र में राजनीतिक दलों का अपना महत्व है, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता। हमारा तो यह कहना है कि आधे-अधूरे कदमों से कोई फर्क पडऩे वाला नहीं। ऐसे उदाहरण भी हैं कि चुनाव खर्च की सीमा तय करने के बाद भी चुनाव जीतने वाले खुलेआम कहते रहे हैं कि उन्होंने करोड़ों खर्च किए। कार्रवाई किस पर हुई? कहने को तो हमारे यहां जनप्रतिनिधित्व कानून ने चुनावों में भ्रष्ट आचरण को साफ तौर पर परिभाषित कर रखा है। लेकिन सजा के प्रावधान काफी लचर हैं। हम शुरू से ही मांग करते रहे है कि भ्रष्ट आचरण साबित होने पर ऐसे व्यक्ति की विधायिका की सदस्यता तत्काल समाप्त हो और उसे भविष्य में चुनाव लडऩे के अयोग्य घोषित किया जाए।
राजनीतिक चंदे पर फंदा अधूरा
सरकार ने पहली बार राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे को पारदर्शी बनाने के लिए ठोस कदम भले ही उठाया हो, लेकिन चुनाव सुधारों के लिए काम करने वाली संस्था एसोसिएशन फार डेमोक्रेटिक रिफार्म (एडीआर) को यह पसंद नहीं आया है। एडीआर ने प्रस्तावित सुधारों को अधूरा बताते हुए कहा कि राजनीतिक दलों के चंदे को पारदर्शी बनाने के लिए चुनाव आयोग और विधि आयोग की सिफारिशों को पूरी तरह लागू करना होगा। राजनीतिक दलों के नकदी चंदे की सीमा को 20 हजार रुपये से 2000 रुपये करने की वित्तमंत्री अरुण जेटली के ऐलान पर प्रतिक्रिया देते हुए एडीआर ने कहा कि इससे राजनीतिक दलों के अज्ञात फंडिंग स्त्रोतों पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। एडीआर ने राजनीतिक दलों की फंडिंग पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। इसके पहले भी राजनीतिक दलों को डिजिटल या चेक से चंदा लेने की छूट थी, लेकिन वे अपनी तीन चौथाई फंडिंग के स्त्रोत का खुलासा नहीं करते थे। बसपा जैसी पार्टी को अपनी सौ फीसदी फंडिंग के स्त्रोत को अज्ञात बताती रही है। ऐसे में जरूरत राजनीतिक दलों की पूरी फंडिंग को जांच के दायरे में लाने की है। भारतीय रिजर्व बैंक के मार्फत चुनावी बांड जारी करने और उसे राजनीतिक फंडिंग का जरिया बनाने के प्रस्ताव को एडीआर सही तो मानती है। लेकिन उसका कहना है कि इस बांड के दुरूपयोग को रोकने के लिए कड़े उपाय करने की जरूरत है।
राजनीतिक दलों को खुद बनना होगा पारदर्शी
जो उम्मीदवार पराजित भी हो जाते हैं लेकिन आचार संहिता के उल्लंघन के दोषी पाए जाते हैं उन पर भी सख्त रवैया अपनाना होगा। जरूरत इस बात की है कि राजनीतिक दल जिस तरह आमजनता से पारदर्शिता की उम्मीद रखते हैं वैसे ही खुद पहल कर अपने वार्षिक लेखों को सार्वजनिक करें। जब आम आदमी को डिजिटल व्यवहार के लिए प्रेरित किया जा रहा है तो राजनीतिक दल क्यों नहीं पाई-पाई का लेन-देन ऐसे तरीके से करें जिसमें नकदी को जगह ही नहीं न मिले। यह कोई एक राजनीतिक दल के सोचने का विषय नहीं, पहल सरकार और इन दलों, सबको मिलकर ही करनी होगी। इसके साथ ही एडीआर राजनीतिक दलों को समय पर आयकर रिटर्न फाइल करने को अनिवार्य बनाने और ऐसा नहीं करने वाले दलों को आयकर से छूट की सुविधा नहीं मिलने के ऐलान से इत्तेफाक नहीं रखता है। एडीआर का कहना है कि आयकर कानून में पहले से ही इसका प्रावधान है। चुनाव आयोग ने सभी पार्टियों के लिए समय सीमा के भीतर अपनी आडिट रिपोर्ट देना अनिवार्य बना दिया है। लेकिन राजनीतिक दलों पर इसे कभी कड़ाई से लागू नहीं किया गया। एडीआर के अनुसार भाजपा, कांग्रेस, सपा, राकांपा जैसे किसी भी दल ने तय समय सीमा के भीतर चुनाव आयोग में अपनी आडिट रिपोर्ट नहीं जमा कराई है।
-विशाल गर्ग