16-Feb-2017 07:19 AM
1234769
इन दिनों पुलिस की दुनिया से दो ऐसे प्रसंग सामने आए हैं जो पुलिस सुधार के संदर्भ में भारतीय समाज के लिए निराशाजनक अनुभव कहे जाने चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश से सीबीआई के पूर्व निदेशक रंजीत सिन्हा के विरुद्ध स्वयं सीबीआई समयबद्ध जांच करेगी। आरोप है कि सिन्हा ने 2-जी घोटाले के अभियुक्तों को लाभ पहुंचाने के क्रम में उनसे अपने निवास स्थान पर मुलाकातें कीं। जाहिर है, एक विश्वसनीय जांच एजेंसी के रूप में सीबीआई की अपनी प्रतिष्ठा का भी इम्तिहान है। इससे भी अधिक हताश करने वाला सिलसिला रहा बीएसएफ और सीआरपीएफ जैसे अनुशासन में ढले पुलिस दलों के जवानों का (सेना के जवानों के भी) सोशल मीडिया पर कई आक्षेप भरे वीडियो वायरल होने का। इनमें उनकी सेवा-स्थितियों को लेकर उठाए गए गंभीर सवालों ने इन पुलिस बलों की सांगठनिक क्षमता को ही नहीं, भारतीय लोकतंत्र में पुलिस संबंधी नीतिगत प्राथमिकताओं को भी कठघरे में खड़ा कर दिया है। फिलहाल इन पहलुओं की भी उच्चस्तरीय जांच संबंधित संगठन ही कर रहे हैं।
नरसिंह राव को देश की अर्थव्यवस्था के उदारीकरण का श्रेय देने वालों की कमी नहीं है। हालांकि कम ही लोगों को याद होगा कि वे सीआरपीएफ के एक विशिष्ट दस्ते रैपिड एक्शन फोर्स के जनक भी थे। यह भी कि केंद्रीय पुलिस बलों की उपस्थिति में हुए बाबरी मस्जिद विध्वंस की राजनीतिक शर्म को धोने की कड़ी के रूप में इस सामरिक दस्ते का जन्म हुआ था। इसे आसानी से सांप्रदायिक तनाव की गंभीरतम स्थितियों से निपटने में आज तक के सबसे विश्वसनीय बल का दर्जा दिया जा सकता है। दरअसल, संवैधानिक अर्थों में इस दस्ते का गठन पुलिस सुधार का एक महत्वपूर्ण लोकतांत्रिक कदम था।
प्राय: बाबरी मस्जिद विध्वंस, संसद पर आतंकी हमला, मुंबई में आतंकी हमला, कश्मीर घुसपैठ या नक्सल उभार जैसी गरमाई पृष्ठभूमि तक सीमित संसदीय बहसों ने पुलिस बलों के सैन्यीकरण के आयाम को मजबूत किया है। लिहाजा, केंद्रीय बजट में आंतरिक सुरक्षा के मद में गृह मंत्रालय को धन आवंटन के सैन्यवादी नमूने पर कम ही ध्यान दिया जाता है। लोकतांत्रिक आयाम वाली पुलिस के संदर्भ में तो शायद ही कभी। इसी तीन फरवरी को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के दखल पर छत्तीसगढ़ सरकार ने अशांत बस्तर संभाग में नागरिक समाज के विरुद्ध पुलिस की ज्यादतियों को रोकने के लिए अपनी छह सूत्री कार्रवाई-योजना पेश की है। इसके मुख्य बिंदु हैं, पुलिस की संवेदी ट्रेनिंग को मजबूत करना और संवैधानिक मूल्यों के प्रति उसकी जवाबदेही सुनिश्चित करना। एक तरह से यह राज्य-शक्ति की नागरिक अधिकारों से संतुलन बैठाने की अनिवार्यता की स्वीकारोक्ति ही हुई। कमोबेश, पुलिस कार्य-पद्धति का यह कमजोर आयाम हर राज्य पुलिस और तमाम केंद्रीय सुरक्षा बलों के सामने जब-तब प्रश्न खड़े करता रहता है। सोचना होगा कि सर्वोच्च न्यायालय समर्थित पुलिस सुधार की गाड़ी भी इतनी आसानी से पटरी से कैसे उतरती चली गई?
16 साल से सिर्फ बहस
पिछले एक दशक से पुलिस सुधार के नाम पर सरकारी या प्रबुद्ध नागरिक तबकों में कोई भी बहस, सन 2006 के प्रकाश सिंह मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के आलोक में ही होती आई है। इस निर्णय की घोषित दिशा थी, राजनीतिक/ प्रशासनिक कार्यपालिका के दखल से स्वतंत्र एक स्वायत्त और जवाबदेह पुलिस की स्थापना। इसे हासिल करने के प्रमुख उपकरण भी निर्णय में चिह्नित किए गए थे- अहम पुलिस पदों पर निश्चित कार्यकाल, मार्गदर्शन के लिए व्यापक प्रतिनिधित्व वाला पुलिस स्थापना बोर्ड, पुलिस का अपना आंतरिक पारदर्शी नियुक्ति बोर्ड और पुलिस के विरुद्ध आरोपों की त्वरित जांच करने में समर्थ बाह्य शिकायत समिति। हालांकि इन सुधारों के कार्यान्वयन को लेकर राजनीतिक-प्रशासनिक कार्यपालिका का उपेक्षित व्यवहार इन्हें अपेक्षित मुकाम पर पहुंचाने में बड़ी बाधा बना रहा है।
-कुमार राजेंद्र