15-May-2013 06:06 AM
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ज्यादा दिन नहीं बीते जब कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने कहा था कि सत्ता के दो केंद्रों से परेशानी हो रही है। दिग्विजय का यह कथन जितना महत्वपूर्ण था। उतनी ही महत्वपूर्ण थी कांग्रेस

द्वारा इस कथन का खंडन करने में की गई दो हफ्ते की देरी। इस बार भी इतिहास दोहराया गया। देरी संगठन की तरफ से नहीं सरकार की तरफ से हुई। सीबीआई की रिपोर्ट में व्याकरण सुधारÓ के दोषी कानून मंत्री अश्विनी कुमार और भांजे की नादानी से फंसे रेल मंत्री पवन कुमार बंसल को बर्खास्त करने में पूरा दो सप्ताह लगा। बर्खास्तगी भी तब की गई जब तमतमाई सोनिया प्रधानमंत्री के घर पहुंची और उन्हें इन मंत्रियों को हटाने का निर्देश दिया। यूपीए के शासनकाल में, जिसका नेतृत्व प्रधानमंत्री मनमोहन ङ्क्षसह कर रहे हैं, यह संभवत: पहला अवसर था जब दिखा कि सोनिया और मनमोहन के बीच दरार कुछ ज्यादा ही बढ़ गई है। यूं तो मनमोहन दबाव में काम करने के आदी हैं किंतु इस बार वे अश्विनी कुमार और पवन बंसल को हटाना नहीं चाहते थे। उन्हें अच्छी तरह मालूम था कि इन दोनों मंत्रियों के हटते ही उनका सुरक्षा कवच भी पूरी तरह हट जाएगा। यह एक तरह से नैतिक हार भी होगी। किंतु सोनिया ने इस नैतिक हार के लिए प्रधानमंत्री को बाध्य किया। मनमोहन संभवत: एकमात्र ऐसे प्रधानमंत्री हैं जो चाहकर भी अपने अनुरूप सत्ता नहीं चला पा रहे हैं। कहने को तो सोनिया गांधी ने 2004 में प्रधानमंत्री पद का बलिदान दिया था, किंतु सच्चाई यह है कि वे अपने हाथों से कोई सूत्र छोडऩा नहीं चाहती। पिछले 9 वर्षों के दौरान लिए गए फैसले इसकी पुष्टि करते हैं। कई ऐसे अव्यवहारिक फैसले हुए जिसके चलते सरकार वर्ष दर वर्ष भ्रष्टाचार के घेरे में आ गई। अपने को बचाने के लिए सोनिया मनमोहन सिंह के मार्फत मंत्रियों की बलि चढ़ाती गईं। बल्कि ए. राजा जैसे मंत्री को तो जेल की हवा भी खानी पड़ी। अब सवाल यह है कि अपने सुरक्षा कवच से महरूम हुए प्रधानमंत्री कितने सुरक्षित हैं। प्रधानमंत्री की खिन्नता का अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने अश्विनी कुमार और पवन बंसल की विदाई को दुख भरा फैसला कहा। बल्कि यह भी सुनने में आया कि उन्होंने इसे अब तक के कार्यकाल का सबसे कठोर निर्णय माना था। शशि थरूर, ए. राजा, सुरेश कलमाडी सूची बहुत लंबी है। भ्रष्टाचार के आरोपों में आरोपित कई मंत्री मनमोहन ङ्क्षसह की अनिच्छा के बावजूद हटाए गए। क्या अब मनमोहन सिंह की बारी है। प्रतिपक्ष मनमोहन के इस्तीफे के लिए अड़ा है। सोनिया गांधी ने जिस तरह उन्हें मझधार में छोड़ दिया है उससे साफ लगता है कि मनमोहन जाना चाहेंगे तो उन्हें रोका नहीं जाएगा, लेकिन विपक्ष शायद मनमोहन के इस्तीफे के लिए तैयार नहीं है। क्योंकि मनमोहन के इस्तीफे का अर्थ होगा चुनाव और चुनाव एक ऐसी चुनौती है जिसमें जाने से फिलहाल सभी बच रहे हैं। अन्यथा कोयला घोटाला, बंसल प्रकरण से लेकर तमाम ऐसे प्रकरण हैं जिनके चलते इस सरकार को अब तक रुखसत हो जाना था पर सरकार के सहयोगी मजबूरी के चलते या सीबीआई के दबाव में सरकार को गिराने से हिचक रहे हैं।
इसीलिए विपक्ष भी केवल दबाव बना रहा है ताकि जनता के बीच सरकार की कारगुजारियों का पर्दाफाश होता रहे। मध्यावधि चुनाव की संभावना बिल्कुल नहीं है। तो क्या मनमोहन सिंह को बदला जाएगा? यह एक ऐसा प्रश्न है जिससे स्वयं कांग्रेस लंबे समय से जूझती रही है। सोनिया को एक ऐसे प्रधानमंत्री की आवश्यकता थी जो उनकी राय को तरजीह दे इस लिहाज से मनमोहन सिंह बहुत मुफीद हैं। इसीलिए प्रणब मुखर्जी को भी राष्ट्रपति बनाकर वनवास दे दिया गया। किंतु एक कठपुतली प्रधानमंत्री के सहारे कब तक काम चलाया जाएगा। यह प्रश्न अब कांग्रेस के भीतर से ही उठने लगा है। दिग्विजय सिंह के कथन के बाद कई नेताओं की ध्वनियां सुनाई पड़ी। कई ऑफ द रिकार्ड बयान ऐसे भी आए जिनमें साफ कहा गया कि मनमोहन को प्रधानमंत्री बनाए रखकर कांग्रेस अपनी छवि खराब कर रही है। अनिल शास्त्री जैसे नेताओं ने तो पवन बंसल और अश्विनी कुमार को हटाने में हुई देरी को नैतिकता की गिरावट तक करार दिया।
मनमोहन सिंह की ताकत का ग्राफ घटता-बढ़ता रहा है। प्रधानमंत्री पद की शपथ पहली बार लेने के समय यह कहा गया था कि वे एक मजबूत प्रधानमंत्री बनकर उभरेंगे। शुरुआत में ऐसा होता भी दिखाई दिया, किंतु वामदलों ने जब सरकार को हैरान करना शुरू किया उस वक्त मनमोहन ङ्क्षसह जैसा चाहते थे वैसा नहीं कर पाए। अमेरिका के साथ समझौते के वक्त कांग्रेस का नजरिया मनमोहन सिंह पर बहुत कुछ थोप दिया गया था। उसके बाद कई ऐसे नजारे देखने को मिले जब मनमोहन कमजोर दिखाई दिए। मुंबई हमलों के वक्त भी वे गृहमंत्री को बदले जाने के पक्ष में नहीं थे पर तब राहुल गांधी के दबाव के आगे उन्हें झुकना पड़ा। 2009 के चुनाव के वक्त मनमोहन काफी ताकतवर बनकर उभरे थे। कांग्रेस उन्हें प्रधानमंत्री घोषित कर चुनाव में गई और जीती भी। इस जीत ने उनकी ताकत बहुत बढ़ाई। लेकिन इसके बाद अचानक मनमोहन का करिश्मा समाप्त होने लगा। खासकर घोटाला-दर-घोटाला उजागर होने के बाद। हर घोटाले के तार कहीं न कहीं प्रधानमंत्री कार्यालय से जुड़े हुए थे, किंतु मनमोहन अंजान बने रहे और उतनी ही अंजान बनी रही सोनिया। यहां सवाल यह पैदा होता है कि अपने मंत्रियों की कारगुजारी की जानकारी यदि मनमोहन सिंह को नहीं थी तो क्या सोनिया भी उतनी ही अनभिज्ञ थीं। या फिर यह कि जब मर्जी हुई तब मंत्रियों को सुरक्षा कवच प्रदान कर दिया और जब बात सोनिया तक पहुंचने लगी तो मंत्रियों की बलि चढ़ा दी गई। कांग्रेस सरकार में जितनी भी अनियमितताएं हुई और जितने भी घोटाले हुए उनकी जिम्मेदारी से सोनिया गांधी नहीं बच सकती। भले ही वे यह कहेे कि वे सत्ता में नहीं हैं। लेकिन जिम्मेदारी तो उनकी भी बनती है। फिर अकेले मनमोहन सिंह पर वार क्यों?
कोयला घोटाले में श्रीप्रकाश जायसवाल को जिस तरह बचाया गया वह कांग्रेस संगठन के इशारे पर ही किया गया था। इसके बाद बहुत से पसंदीदा नेताओं को बचाया जाने लगा। सोनिया के आसपास बैठे अहमद पटेल जैसे लोग उन्हें सारी जानकारी दे रहे थे तो इतना भी बताते होंगे कि सरकार में क्या चल रहा है और असली गुनहगार कौन है? सब कुछ जानते हुए भी केवल मनमोहन को निशाने पर लाना किसी रणनीति का ही हिस्सा हो सकता है। आज सरकार में मनमोहन अलग-थलग हैं। यूपीए और सोनिया के तालमेल में कमी देखी जा रही है। इसका असर आने वाले दिनों में देखने को मिल सकता है। जहां तक सोनिया का प्रश्न है वे अपनी छवि दरुस्त करने लगी हुई हैं। इसीलिए उनके जाते ही रेल घूसकांड में अपने रिश्तेदारों के आरोपों से घिरे रेलमंत्री पवन कुमार बंसल और कोयला घोटाले की सीबीआई रिपोर्ट में हेराफेरी करवाने के आरोपी की कानून मंत्री अश्विनी कुमार आखिरकार छुट्टी हो ही गई। बंसल जब पीएम हाउस पहुंचे तब उनकी सरकारी गाड़ी की लाल बत्ती जल रही थी लेकिन लौटने के बाद वह बुझ गई थी।
जब संवाददाताओं ने उनसे पूछा कि क्या उन्होंने पीएम को इस्तीफा सौंप दिया है? जवाब में बंसल ने सिर हिलाकर हां में जवाब दिया और अपनी कार का शीशा चढ़ाकर वे आगे निकल गए। बंसल के बाद अश्विनी कुमार की लाल बत्ती गाड़ी पीएम हाउस पहुंची थी और उन्होंने भी अपना इस्तीफा सौंप दिया। पार्टी की छवि सुधारने के लिए दोनों मंत्रियों से इस्तीफा लिया गया क्योंकि कर्नाटक चुनाव में जिस तरह जनता ने भ्रष्ट भाजपा सरकार को धूल चटा दी उसी तरह केंद्र में भी अब ख़तरा मंडरा रहा है। जनता के मूड को भांपकर कांग्रेस अब सतर्क हो गयी है क्योंकि भले ही एक और राज्य कांग्रेस की झोली में आ गिरा हो किन्तु आगे की राजनीति का आभास कांग्रेस को हो गया है। मामला ज्यादा बढ़ा तो प्रधानमंत्री की भी कुर्सी खतरे में आ सकती है क्योंकि प्रधानमंत्री के हाथों में ही कोयला मंत्रालय था जब कोयला घोटाला हुआ। अश्विनी कुमार तो बिचारे सरकार को बचाने में ही बलि चढ़ गए। सीबीआई ने कोर्ट में साफ़ कह दिया कि अश्विनी कुमार के ही कहने पर रिपोर्ट सम्पादित की गयी थी। सुप्रीम कोर्ट ने भी रिपोर्ट की आत्मा की हत्या करने का आरोप सरकार पर लगाया था। सीबीआई द्वारा सरकार से रिपोर्ट साझा करने के सवाल पर हलफनामा दाखिल किये जाने बाद शुरू हुई सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को मालिक के पिंजरे में बंद तोता करार देते हुए कहा था कि वह वही बोलता है जो उसका मालिक उसे सिखाता है। कोयला खदान आवंटन घोटाले में सीबीआई निदेशक के हलफनामे के अवलोकन के बाद न्यायालय ने कहा कि यह ऐसी अनैतिक कहानी है जिसमें एक तोते के कई मालिक हैं।
न्यायालय जानना चाहता था कि क्या कानून मंत्री किसी मामले में दूसरे मंत्रालयों और प्रधानमंत्री कार्यालय के लोगों की संलिप्तता की जांच का विवरण या स्थिति रिपोर्ट सीबीआई से मांग सकते हैं? कानून मंत्री और दूसरे सरकारी अधिकारियों के सुझाव पर स्थिति रिपोर्ट में बदलाव करना क्या जांच की निष्पक्षता को प्रभावित नहीं करता। यह ऐसी टिप्पणी थी जिसका असर होना अवश्यंभावी था शायद इसी कारण जब सीबीआई ने बिना किसी दबाब के रेलमंत्री के भांजे विजय सिंगला सहित कुछ रिश्तेदारों को लपेटे में लिया तो सरकार ने भी अपने को इससे अलग कर लिया।
विजय सिंगला इस समय सीबीआई की हिरासत में है। वे रेलवे बोर्ड के मेंबर से काम के एवज में 90 लाख रुपये ले रहे थे। लेकिन डील 10 करोड़ की थी। इससे उच्च पदों पर रिश्वतखोरी का खुलासा हुआ है। इस प्रकरण में गिरफ्तार रेलवे अधिकारी महेश कुमार भी बहुत से राज खोल सकते हैं। जिन 1000 फोन काल्स की डिटेल सीबीआई ने खंगाली है वे बंसल को भी अब लपेटे में लेने के लिए पर्याप्त हैं।
सवाल यह है कि विजय सिंगला की गिरफ्तारी और घूस लिए जाने के मामले से पवन बंसल कैसे बच सकते है? घूस रेलवे के एक अधिकारी महेश कुमार ने भिजवाया। महेश कुमार पश्चिम रेलवे के जनरल मैनेजर भी रह चुके है। वे छोटे मोटे अधिकारी नहीं है। फिलहाल वो मेंबर रेलवे बोर्ड है। आखिर रेलवे बोर्ड का एक मेंबर पवन बंसल के भांजे को घूस क्यों देगा, समाज सेवा के लिए या मंदिर में दान देने के लिए? अगर ये पैसे मंदिर में दान और समाज सेवा के लिए नहीं थे फिर किसी काम के एवज में दिए गए। फिर उस अधिकारी का काम या उसके फाइलों पर दस्तखत विजय सिंगला ने नहीं बल्कि पवन बंसल ने ही करना है। तो निश्चित तौर पर इस पूरे रिश्वत प्रकरण की जानकारी पवन बंसल को थी। इसलिए इस पूरे घूस कांड से पवन बंसल बेदाग नहीं बच सकते है।
पर एक अहम सवाल है कि आखिर सीबीआई ने एक कांग्रेसी मंत्री पर हमला कैसे कर दिया? क्या सीबीआई वाकई में स्वतंत्र हो गई है? क्योंकि पवन बंसल कोई कमजोर शख्स नहीं है। इसका जवाब काफी आसान है। इस समय सीबीआई चीफ रंजीत सिन्हा मुश्किल में है। कोलगेट घोटाले और चारा घोटाले में सीबीआई की हाल में हुई कार्रवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई पर सवालिया निशान लगा दिया है। रंजीत सिन्हा ने इस सवालिया निशान का काट ढूंढ लिया। अब सुप्रीम कोर्ट में अगली पेशी में रंजीत सिन्हा यह बताने में सक्षम होंगे कि सीबीआई सरकारी दबाव में नहीं है। अगर सीबीआई सरकारी दबाव में होती तो बंसल के भांजे को गिरफ्तार नहीं किया जाता?