15-Apr-2013 11:26 AM
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इतिहास की कुछ घटनाएं बड़े परिवर्तन का सबब बनती हैं। वर्ष 2004 की बात है जब चुनावी नतीजे सामने आए तो एक सांसद वाले मुस्लिम लीग को कांग्रेस ने हाथों-हाथ लिया था और 38 सांसदों वाली
समाजवादी पार्टी की घनघोर उपेक्षा की गई थी। आज समाजवादी पार्टी कांग्रेस की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की खेवनहार बनी हुई हैं। लेकिन मुस्लिम वोटों का महत्व स्वतंत्रता के पश्चात पहली बार देश की राजनीति में परिवर्तन कारी सिद्ध हो रहा है। जी हां केवल मुस्लिम वोटों की ही बात है। अन्यथा नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी की ताजपोशी में न तो भाजपा को दिक्कत होती और न ही कांग्रेस को अपने युवराज को आगे करने में कोई मशक्कत करनी पड़ती। राजनीति बदलाव का नाम है। मित्र शत्रु हो जाते हैं और शत्रु मित्र हो जाते हैं। चुनाव भले ही 2014 में हो लेकिन शत्रुओं और मित्रों की चुनावी बिसात बिछने लगी है। नरेंद्र मोदी को लेकर भारतीय जनता पार्टी जितनी उत्साहित है उतनी ही हतोत्साहित भी है। गुजरात के दंगों के दाग मोदी के दामन से धुल नहीं पा रहे हैं और दागदार मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित करना टेढ़ी खीर हो सकती है। केवल प्रत्याशी घोषित करने की बात नहीं है इस घोषणा के बाद प्रत्याशित सहयोगियों की बात भी है। मुलायम सिंह यादव से लेकर लालू यादव और नीतीश कुमार तक सभी को मुसलमानों के वोट चाहिए। द्रविड मुनेत्र कजगम, बहुजन समाज पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, अन्नाद्रमुक, तेलगु देशम, जनतादल यूनाइटेड, वामपार्टियां, राष्ट्रीय जनता दल से लेकर इस देश की छोटी-बड़ी ऐसी कौन सी पार्टी है जो मुसलमानों के वोट नहीं चाहती है। शिवसेना जैसी एकाध पार्टी ही मुस्लिम मतों से दूर होने का जोखिम उठा सकती है। भाजपा सहित तमाम राजनीतिक दल मुस्लिमों के वोट के तलबगार हैं। इसीलिए मोदी हों या अन्य कोई चुनावी समीकरण तो वोट समीकरण को देखते हुए ही तय किया जाएगा। यही कारण है कि आज भारतीय जनता पार्टी चाहकर भी, सर्वसम्मति होने के बावजूद नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित नहीं कर पाई है। उधर राहुल गांधी सब कुछ सकारात्मक होने के बावजूद स्वयं को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित करने से कतरा रहे हैं। क्योंकि उन्हें अहसास है कि यदि उनके नेतृत्व में अभूतपूर्व चुनावी पराजय मिलती है तो छोटी उम्र में ही भविष्य की सारी सम्भावनाएं ध्वस्त हो जाएंगी। इस कश्मकश भरे माहौल में राजनीति हिचकोले खाकर आगे बढ़ रही है। प्राय: हर दिन समाचार पत्र राहुल बनाम मोदी या फिर मोदी बनाम नीतीश या अन्य कोई और के बयानों, विश्लेषणों से भरे रहते हैं। देश में अन्य समस्याएं नेपथ्य में चली गई हैं और कौन बनेगा प्रधानमंत्री यह प्रश्न चुनाव से लगभग एक वर्ष पूर्व अब यक्ष प्रश्न बनकर खड़ा हो गया है।
नरेंद्र मोदी भारतीय जनता पार्टी के सर्वमान्य नेता हैं, लेकिन वर्ष 2009 में जब मुसलमानों ने खुलकर कांग्रेस का समर्थन किया था उस समय मोदी बनाम राहुल की जंग नहीं थी। उस समय एनडीए के प्रत्याशी थे लालकृष्ण आडवाणी जिन्हें अयोध्या प्रकरण में दोषमुक्त किया जा चुका था, लेकिन तब भी देश के मुसलमानों ने उन्हें माफ नहीं किया और एनडीए दूसरा चुनाव हार गया। यही दुविधा अभी भी है। आडवाणी बाबरी विध्वंस में कोर्ट द्वारा भले ही बरी कर दिए गए थे, उनको लेकर जो संशय मुस्लिम समाज में था वह 2009 तक तो कम से कम नहीं मिट पाया था। प्रश्न यह है कि क्या मोदी को भी इसी संशय से गुजरना पड़ेगा। पर मोदी के मामले में बात थोड़ी अलग है। पिछले एक दशक में मोदी ने अपनी छवि बदलने का भरसक प्रयास किया है। वे कभी हिंदु हृदय सम्राट हुआ करते थे, लेकिन आज विकास के पुरोधा के रूप में सारे देश में चर्चित हैं। भारतीय जनता पार्टी दावा करती है कि गुजरात के मुसलमानों ने तो मोदी को माफ कर दिया है और उनकी विकासवादी छवि को स्वीकार लिया है। क्या देश के मुसलमानों ने भी मोदी को स्वीकार लिया है? इसका आंकलन तो 2014 के मई की तपती दोपहरी में चुनावी नतीजों के समय ही हो सकेगा। लेकिन उससे पूर्व भाजपा को खुलकर यह कहना होगा कि मोदी प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी हैं। अभी तो भाजपा की हालत सांप-छछूंदर जैसी है। न निगलते बन रहा है न उगलते। हालात यह हैं कि जनतादल यूनाइटेड जैसा छोटा सहयोगी दल खुलकर चुनौती दे चुका है कि मोदी को प्रत्याशी घोषित किया तो गठबंधन टूट जाएगा। हालांकि जनतादल यूनाइटेड ने दिसंबर तक की राहत भारतीय जनता पार्टी को दी है लेकिन दिसंबर के बाद भी तस्वीर स्पष्ट हो सकेगी इसमें संदेह ही है। वर्ष 1996 से 1999 के बीच भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली की जो तीन सरकारें बनी उनकी विशेषता यही थी कि लोगों को यह पता था प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी कौन है। उस समय भी कमोबेश स्थिति यही थी। सांगठनिक बल लालकृष्ण आडवाणी के पास था, लेकिन सहयोगी दलों की ताकत अटल बिहारी वाजपेयी के साथ थी। इस बार भी हालात वैसे ही हैं। बल्कि यूं कहें कि उससे ज्यादा पेंचीदा हैं क्योंकि इस बार मोदी के रूप में सांगठनिक क्षमता से सराबोर नेतृत्व तो है पर अटल बिहारी की छवि का कोई व्यक्ति और उतना लोकप्रिय नेतृत्व भाजपा के पास नहीं है। ले-देकर मोदी ही हैं। वे ही अटल हैं और वे ही आडवाणी। क्षेत्रीय राजनीति में मोदी कहीं फिट नहीं बैठते यहां तक कि हिन्दुत्ववादी शिवसेना भी मोदी को पसंद नहीं करती। उनकी पसंद तो सुषमा स्वराज हैं। इसी कारण देश में भले ही मोदी की हवा चल रही हो पर आने वाले दिनों में क्या होने वाला है यह स्पष्ट नहीं है। तमाम अतरर्विरोधों के बावजूद लालकृष्ण आडवाणी, राजनाथ सिंह और सुषमा स्वराज जैसे नेता भाजपा की प्रधानमंत्री पद की कतार में स्वत: ही खड़े हो जाते हैं।
दूसरी तरफ कांग्रेस भी इसी दुविधा से जूझ रही है। पिछले दिनों भारतीय उद्योग परिसंघ के कार्यक्रम में राहुल गांधी ने एक बार फिर दोहरा दिया कि प्रधानमंत्री बनना उनकी प्राथमिकता नहीं है। दरअसल कांग्रेस पहले से ही कहती आई है कि भारत में संवैधानिक रूप से चुनाव पूर्व प्रधानमंत्री पद की चर्चा उचित नहीं है। क्योंकि संविधान में लिखा है कि लोकसभा में बहुमत हासिल करने वाले राजनीतिक दल के सांसद अपने नेता का चुनाव करते हैं जो प्रधानमंत्री पद संभालता है। लेकिन कांग्रेस का यह कहना उचित इसलिए नहीं है कि पंडित जवाहरलाल नेहरू के समय से ही कांग्रेस की राजनीति किसी एक व्यक्तित्व के इर्द-गिर्द घूमती रही है। नेहरू के बाद इंदिरा गांधी थी। इंदिरा गांधी के बाद राजीव गांधी और राजीव गांधी के बाद अब सोनिया गांधी। अंतर केवल इतना है कि सोनिया ने सत्ता के दो केंद्र बनाकर भारतीय राजनीति में एक अभिनव प्रयोग किया। जो शुरुआती पांच वर्ष तो सफल रहा, लेकिन अब पूरी तरह ध्वस्त हो चुका है। यही कारण है कि अमेरिकन मॉडल की तर्ज पर अब कांग्रेस से भी आवाजें उठने लगी हैं कि प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित कर चुनाव लड़ जाए। इस आवाज का अर्थ यह कि प्रत्याशी वही हो जिसके पास वास्तविक ताकत हो। सत्ता के दो केंद्र नहीं चलेंगे। इस संदर्भ में दिग्विजय सिंह द्वारा दिया गया हालिया बयान बहुत महत्वपूर्ण है। लेकिन दुविधा वही है कि जिसे प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी के रूप में प्रस्तुत करने की मांग कांग्रेस में उठ रही है। वह स्वयं अपनी सियासी संभावनाओं के मद्देनजर खुले दिल से अभी इस भूमिका के लिए तैयार नहीं है। इसके कई कारण हो सकते हैं। लेकिन जो कारण दिखाई दे रहा है वह है संभावित पराजय। आज के समय में भाजपा नीत एनडीए गठबंधन को बढ़त भले ही मिले पर फिलहाल सरकार बनती नजर नहीं आ रही। यही हाल यूपीए का है। ऐसे में राहुल भला स्वयं को प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी के रूप में प्रस्तुत करने का जोखिम कैसे उठा सकते हैं।
लेकिन मीडिया ने लगभग यह मान लिया है कि राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी के बीच 2014 में प्रधानमंत्री पद का महासंग्राम होना तय है। यही कारण है कि इन दोनों नेताओं की छोटी-मोटी सभाओं, कार्यक्रमों, भाषणों और क्रियाकलापों को मीडिया कुछ ज्यादा ही बढ़ा-चढ़ाकर बताता है। हाल ही में जब भारतीय उद्योग संघ की सभा में राहुल गांधी ने अपनी बात रखी तो इसे भावी प्रधानमंत्री का इस तरह का पहला भाषण बताया गया और फिर मीडिया में उसकी जमकर चीर-फाड़ की गई, जिसमें सहानुभूति, प्रशंसा, आलोचना, समालोचना और विश्लेषण भी शामिल थे। उधर नरेंद्र मोदी ने जब एक प्रतिनिधि मंडल के सामने अपने ही अंदाज में बात की तो उसे भी सुर्खियों में प्रमुखता से जगह मिली। राहुल के भाषण के लगभग 3 दिन बाद जब फिक्की फॉर लेडीज आर्गेनाइजेशन की एक सभा में नरेंद्र मोदी ने पांच सितारा होटल के हॉल में देश की महिला उद्यमियों के समक्ष अपनी बात रखी तो उसे भी प्रमुखता से समाचारों में डाला गया। दोनों नेताओं ने क्या कहा यह अलग विषय है लेकिन जिस तरह की परिस्थतियां पैदा की जा रही हैं उनसे तो यही लगता है कि इस देश का मीडिया मोदी बनाम राहुल की जंग देखने को बहुत उत्सुक है भले ही जिन सियासी पार्टियों से ये दोनों ताल्लुक रखते हैं वे उत्सुक हो या न हों। मीडिया को कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी की अंदरूनी राजनीति तथा दोनों प्रत्याशियों को लेकर दुविधा से कोई सरोकार नहीं है। मीडिया ने खुले रूप में यह मान लिया है कि दोनों ही प्रत्याशी भविष्य में अपनी-अपनी पार्टियों को नेतृत्व प्रदान करेंगे। किंतु क्या इन पार्टियों की मनोदशा भी ऐसी ही हैं? राहुल की दुविधा से कांग्रेस के भीतर कश्मकश की स्थिति पैदा हो गई है। यदि वे हां कर दें तो पार्टी के भीतर उनका विरोध करने वाला शायद ही कोई हो। बल्कि राहुल के अलावा यदि कोई अन्य नाम सामने आता है तो पार्टी में अंतरर्विरोध उत्पन्न हो सकत है। कांग्रेस की यह खासियत है कि वहां शुरुआती 2 स्थानों पर गांधी परिवार ही विराजमान रहता है। आज भी सोनिया नंबर वन हैं तो राहुल नंबर दो। कभी यही स्थिति इंदिरा गांधी और संजय गांधी के साथ तथा बाद में इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के साथ भी थी। राहुल की यह खासियत है कि वे खुलकर राजनीति के मैदान में आने के बावजूद प्रधानमंत्री पद को लेकर इतने उत्साहित नहीं हैं। इस मामले में वे अपने पिता और अपनी दादी के विपरीत ही कहे जाएंगे। दूसरी तरफ मोदी हैं। यदि मोदी को प्रत्याशी घोषित किए जाने के बाद गठबंधन के साथियों की तलाश करें तो अकाली दल जैसे कुछ छोटे-मोटे और प्रभावहीन दलों को छोड़कर शायद ही कोई बड़ा दल मोदीनीत भाजपा से जुडऩा चाहेगा। यही परेशानी भाजपा को भीतर ही भीतर जूझने को विवश कर रही है। इसी कारण लगातार मोदी को अग्रिम पंक्ति में रखने के बावजूद राजनाथ सिंह यह साफ कर चुके हैं कि मोदी को लेकर प्रधानमंत्री पद की अटकलें उचित नहीं हैं इन पर विराम लगना चाहिए। क्योंकि ऐसा कहने से सहयोगियों के छिटकने का अंदेशा है। कुछ समय पूर्व एक कार्यक्रम में विजय गोयल ने लालकृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी बताकर नई बहस छेड़ दी थी।
लेकिन भाजपा और कांग्रेस की इस कश्मकश को जानते हुए यह समझना आवश्यक है कि प्रधानमंत्री बनने की दृष्टि से राहुल या मोदी का व्यक्तित्व कैसा है और उनमें से कौन ज्यादा क्षमतावान है। भारतीय उद्योग परिसंघ की सभा में राहुल गांधी ने देश के लोगों को मिल-जुलकर चलने की नसीहत देते हुए कहा कि एक दो व्यक्तियों को नहीं बल्कि एक अरब से ज्यादा लोगों को ताकत देने से ही लोकतंत्र शक्तिशाली बनेगा। लोकतंत्र बना ही इसलिए है कि इसमें लोगों को ताकत मिले, लेकिन पिछले कई दशकों के शासन के बाद भी केवल नेता और कुछ खास लोग ही ताकतवर बने हैं। जनता उतनी ताकतवर नहीं है। राहुल गांधी ने भारत की तुलना मधुमक्खी के छत्ते से की जहां शहद एकत्र करने में हर एक मधुमक्खी की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। उन्होंने यह भी कहा कि कोई एक व्यक्ति घोड़े पर सवार होकर आएगा और वह सारी समस्याओं का समाधान कर देगा ऐसा नहीं है। समस्याएं मिल-जुल कर ही सुलझानी होंगी। उनका यह विश्वास है कि कुछ गिने-चुने सांसदों, विधायकों के हाथ में ताकत देने से बात नहीं बनेगी। राहुल गांधी ने कई सवाल खड़े किए, लेकिन वे सवाल ही खड़े करते रह गए। समाधान उन्होंने सुझाया नहीं, इसी कारण इस भाषण पर कुछ लोगों को निराशा भी हुई। हालांकि कुछ दूसरे लोग यह मानते हैं कि राहुल गांधी ने बिना लाग लपेट के सच्ची बात कही है। दरअसल वे सामूहिक जिम्मेदारी पर ज्यादा जोर दे रहे हैं, जिसका अर्थ यह है कि लोकतंत्र में सभी अंग सुचारू रूप से काम करें। लेकिन बात इतनी ही नहीं है बात यह भी है कि अधिकांश समय सत्ता संभालने वाली कांग्रेस के होते हुए यदि ये समस्याएं हैं तो इसमें दोष किसका है। यदि लोग शक्तिशाली नहीं हैं तो उनको शक्तिहीन अभी तक बनाए क्यों रखा गया। राहुल गांधी के भाषणों में तथ्य कम रहते है भावनाएं ज्यादा रहती हैं। शायद इसका कारण यह है कि वे पिछले कई दिनों से एक भावनात्मक अपील जनता के समक्ष करना चाह रहे हैं। क्योंकि उन्हें अच्छी तरह मालूम है कि यूपीए-2 का परफारमेंस उतना प्रभावी नहीं रहा है और जनता कांग्रेस से खुश नहीं है। किसी भी प्रकार के चुनावी वादे करने या सरकार की उपलब्धियां गिनाने की बजाय राहुल अपने भाषण में कुछ अलग बात कहना चाहते हैं, लेकिन आम जनता को यह बात समझ में आएगी इसमें शक है। जनता यह जानना चाहती है कि जो व्यक्ति कथित रूप से देश की सबसे बड़ी पार्टी का प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी है उसका विजन क्या है। देश को मौजूदा समस्याओं से निकालने की उसकी कार्ययोजना क्या है। देश में व्याप्त भ्रष्टाचार, महंगाई, गरीबी, बेरोजगारी, भुखमरी, लालफीताशाही और कानून व्यवस्था की भयानक समस्याओं से देश को कैसे निकाला जाए इसका रोडमैप राहुल गांधी के पास क्या है। यह सब तो मोदी के पास भी नहीं हैं किंतु मोदी की खासियत यह है कि उन्होंने गुजरात मॉडल का विश्व स्तर पर प्रचार करने में सफलता पाई है। वे हर मंच पर गुजरात की प्रशंसा करके देश को भी उसी तर्ज पर चलाने की पहल करते हैं।
मोदी ने भी राहुल के भाषण की तर्ज पर फिक्की के महिला संगठन की एक सभा में अपने ही अंदाज में बातचीत की। उन्होंने कहा कि वे देश को मधुमक्खी का छत्ता नहीं मानते बल्कि देश को भारत माता मानते हैं। मोदी अपने गुजरात का बखान करने महिलाओं के बीच मौजूद थे और उनका भाषण गुजरात पर ही केंद्रित रहा। उन्होंने बताया कि गुजरात में किस तरह महिलाएं आर्थिक रूप से सशक्त हैं। मोदी ने महिलाओं को और अधिक ताकत देने की बात कहीं। ली मैरीडियन पांच सितारा होटल के जिस वातानुकूलित सभागार में मोदी अपनी बात रख रहे थे वहां का वातावरण वैसा नहीं था जिस वातावरण में और जिस परिवेश में इस देश की महिलाएं काम करती हैं या यों कहें कि घुटती रहती हैं। नरेंद्र मोदी ने जसु बेन नामक महिला की चर्चा की। जिसने पिज्जा को ज्यादा स्वादिष्ट बना दिया था। नरेंद्र मोदी महिलाओं की व्यावसायिक कुशलता के कायल नजर आए। उन्होंने कई मुद्दों पर अपनी राय स्पष्ट करते हुए कहा कि महिलाएं तेजी से आगे बढ़ रही हैं और उनके कदमों को पुरजोर समर्थन की जरूरत है। मोदी जो बात कह रहे थे वह पूरी तरह राजनीतिक रंग में रंगी हुई थी जिन महिलाओं के बीच वे बोल रहे थे, उनके समक्ष कोई बड़ी चुनौती या समस्याएं नहीं हैं। वे महिलाएं चांदी का चम्मच मुंह में लेकर पैदा हुई हैं। उनमें से कुछ एक ही होंगी जिन्होंने संघर्ष के पश्चात मुकाम हासिल किया हो। ज्यादातर तो लाल कालीन पर चलकर शिखर तक पहुंची हैं, लेकिन मोदी को अपनी बात कहनी थी और उन्होंने उन्हीं समस्याओं के परिप्रेक्ष्य में अपनी बात भी रखी।
राहुल और मोदी की बातों में बुनियादी अंतर यह है कि राहुल जहां स्वयं जिम्मेदारी लेने से बच रहे हैं वहीं मोदी आगे बढ़कर जिम्मेदारी लेने को आतुर हैं। वे स्वयं कुछ कर गुजरना चाहते हैं, लेकिन सवाल वही है कि मोदी की महत्वाकांक्षा को परवान चढऩे से रोक कौन रहा है। कौन है जो उनके रास्ते में खड़ा है। बड़ी दिलचस्प स्थिति है इस देश में सियासत की। एक तरफ वह नेता है जिसे प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी बनने के लिए मनाया जा रहा है और दूसरी तरफ मोदी हैं जो पूरी महत्वाकांक्षा के साथ इस पद को ग्रहण करने के लिए तैयार हैं, लेकिन जिन रथों पर उन्हें सवारी करनी है उन रथों में जुते हुए घोड़े चलने से इनकार कर रहे हैं। लगता है मोदी को स्वयं ही रथ संचालन करना पड़ेगा और स्वयं ही युद्ध भी लडऩा पड़ेगा। कभी लालकृष्ण आडवाणी ने सारे देश में यात्राओं के द्वारा भाजपा को जीतने का मार्ग प्रशस्त किया था, लेकिन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी बने थे। इस बार स्थिति वैसी नहीं है। लेकिन जनता यह जानने को उत्सुक हैं कि मोदी के रथ का सारथी कौन है। यदि मोदी अर्जुन हैं तो कृष्ण कौन है और यदि वे कृष्ण हैं तो अर्जुन कौन है। यह सवाल आने वाले दिनों में और भी जटिल होता जाएगा। जहां तक मोदी का प्रश्न है बंगाल में ममता बनर्जी की तारीफ करके मोदी ने यह संकेत तो दे ही दिया है कि वे नीतिश कुमार की बेरुखी से विचलित नहीं हैं और नए साथियों को तलाश भी शिद्दत से जारी है। देखना है कि मोदी बनाम राहुल का महासंग्राम सच्चाई में कब तब्दील होता है।