16-Feb-2017 07:08 AM
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उत्तर प्रदेश को छोड़कर जिन चार राज्यों पंजाब, गोवा, उत्तराखंड तथा मणिपुर में चुनाव संपन्न हो गए हैं अब वहां पार्टियां हार-जीत का हिसाब लगा रही हैं। वैसे तो सभी पार्टियां अपनी-अपनी जीत का दावा परंपरानुसार कर रही हैं लेकिन कोई भी आश्वस्त नहीं है। भाजपा जहां प्रधानमंत्री मोदी के आभा मंडल के भरोसे जीत का दावा कर रही है वहीं अन्य पार्टियां जातिगत और तथाकथित भाजपा विरोधी माहौल के दम पर जीत का दम भर रही हैं।
यूपी में भाजपा भारी
उत्तर प्रदेश में 11 फरवरी को 15 जिलों की 73 और 15 फरवरी को 11 जिलों की 67 सीटों पर हुए मतदान और चुनाव से पहले की अलग-अलग सर्वे रिपोट्र्स पर गौर करें तो भाजपा का पलड़ा भारी नजर आता है। टाइम्स नाऊ और वीएमआर सर्वे के अनुसार यूपी में अगली सरकार भाजपा की बनने जा रही है। उत्तर प्रदेश में अगली सरकार किसकी बनेगी यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा, लेकिन चुनाव से पहले हुए ओपिनियन पोल भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को सबसे आगे बता रहे हैं।
भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति हवा किस कदर है यह गंगोह विधानसभा क्षेत्र के राजबीर सिंह की बातें सुनकर आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि अगर नरेंद्र मोदी के दूत के रूप में खाली कुर्सी भी रहेगी तो भी हम उस खाली कुर्सी को वोट देंगे। मोदी बहुत ही लोकप्रिय नेता हैं और 2014 में भी जनता ने उन्हें जमकर वोट किया है, अब भी उनके लिए समर्थन कम नहीं हुआ है। इसके अलावा राज्य में बढ़ते अपराध और पुलिस द्वारा उस पर काबू नहीं पाए जाने के कारण हालात मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के खिलाफ हैं। अखिलेश यादव को भी कुछ हलकों में खासा समर्थन मिल रहा है। खासतौर पर पार्टी में अंदरूनी कलह के बाद जिस तरह से वे बड़े नेता के रूप में उभरे हैं उससे उनमें लोगों का विश्वास बढ़ा है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी अब भी 2014 की तरह विकास के मुद्दे पर चुनावी मैदान में है। दूसरी तरफ अखिलेश यादव हैं जिन्होंने राज्य की लाचार कानून व्यवस्था के प्रति आम धारणा को कुछ हद तक तोड़ा है। लेकिन अगर चुनाव उत्तर प्रदेश में हों और जात-पात व धर्म पर आधारित राजनीति की बात न हो तो कहानी अधूरी सी लगती है। इसलिए विकास के साथ जात-पात व धर्म भी अहम भूमिका निभाएंगे।
चुनाव से पहले के अलग-अलग सर्वे रिपोट्र्स पर गौर करें तो भाजपा का पलड़ा भारी नजर आता है। टाइम्स नाऊ और वीएमआर सर्वे के अनुसार यूपी में अगली सरकार भाजपा की बनने जा रही है। इस सर्वे के अनुसार यूपी में भाजपा की बहुमत वाली सरकार बनने की उम्मीद जतायी जा रही है। ओपिनियन पोल के अनुसार अगर राज्य में अभी चुनाव होते हैं तो भाजपा को 202 सीटें मिल सकती है। वहीं सपा-कांग्रेस गठबंधन को 147 सीटें मिलती दिखाई गईं हैं, वहीं बसपा व अन्य को क्रमश: 47 व 7 सीटें मिलती दिख रहीं हैं। यूपी चुनाव के लिए कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के गठबंधन के बाद इंडिया टुडे ग्रुप-एक्सिस का जो ओपिनियन पोल सामने आया है उसके अनुसार, यूपी में भाजपा को 403 सीटों में से 178-188 सीटें मिलेंगी। वहीं दूसरे नंबर पर सपा-कांग्रेस गठबंधन है जिसे 169-179 सीटें मिलेंगी। सर्वे के अनुसार, बसपा को 39-45 सीटें और अन्य को 1-5 सीटे मिलेंगी। इस ताजा सर्वे के अनुसार, यूपी में सबसे ज्यादा 35 फीसद वोट भाजपा के खाते में जाएंगे। वोट के मामले में सपा-कांग्रेस गठबंधन भाजपा को 33 फीसदी के साथ टक्कर दे रहा है। 20 फीसदी वोट बसपा को जाएंगे और 12 फीसदी वोट अन्य पार्टियां ले जाएंगी। इसके अलावा, द वीक और हंसा के ओपिनियन पोल में भाजपा को 192 से 196 सीटें तो सपा को 178 से 182 सीटें और बसपा को 20 से 24 सीटें मिलती दिख रही हैं। एक अन्य एजेंसी वीडीपी एसोसिएट्स ने 29 जनवरी 2017 को जारी किए गए चुनाव पूर्व सर्वेक्षण में भाजपा को 207 सीटें जबकि सपा को 104 सीटें और बसपा को 58 सीटें मिलती बताईं गईं हैं। पहले दो चरण भाजपा के लिए इसलिए भी खास हैं क्योंकि वह साल 2014 के आम चुनाव में पार्टी ने यहां से सभी सीटें जीती थीं। हाल ही में एक इंटरव्यू में पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने कहा था कि भाजपा इन दो चरणों में 140 में से 90 सीटें जीतेगी।
पीएम मोदी की लोकप्रियता के अलावा भाजपा को यहां से जाटों का समर्थन मिलने की भी पूरी उम्मीद है। हालांकि जाट पारंपरिक तौर पर अजीत सिंह की पार्टी रालोद के समर्थन में दिखते हैं। लेकिन 2013 में मुजफ्फरनगर के सांप्रदायिक दंगों के बाद जाट भाजपा की तरफ खिसके हैं। पहले दो चरणो की 140 विधानसभा सीटों में से भाजपा ने 56 टिकट को ओबीसी समुदाय के नेताओं को दिए हैं। इनमें से 15 टिकट जाटों और 4 टिकट गुर्जर नेताओं को दिए गए हैं।
उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव को 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले मिनी चुनाव की तरह देखा जा रहा है। उत्तर प्रदेश में 7 चरणों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। पहले चरण में मतदान 11 फरवरी को होगा। राज्य में कुल 403 विधानसभा सीटों के लिए मतदान होना है। वहीं, 11 मार्च को मतगणना होगी। चुनाव के नजदीक आते ही एक के बाद एक ओपिनियन पोल सामने आए, जिनमें से लगभग सभी ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को सबसे बड़ी पार्टी के तौर दिखाया है। मतलब साफ है कि लोगों का भरोसा प्रधानमंत्री मोदी पर अब भी बरकरार है।
भाजपा की तरफ से पीएम नरेंद्र मोदी ने कई परिवर्तन रैलियांÓ की हैं और उन्हें आगे भी कई क्षेत्रों में जाना है। रैलियों में उत्तर प्रदेश की जनता के उत्साह को देखते हुए भाजपा के लिए अच्छी संभावनाएं नजर आ रही हैं।
दरअसल सत्ताधारी समाजवादी पार्टी की आंतरिक कलह ने समीकरण बदल दिए हैं। मुलायम, शिवपाल और अखिलेश के बीच सत्ता संघर्ष की वजह से अभी तक साफ नहीं है कि चुनाव में पार्टी अपने पूरे दमखम से उतर भी सकेगी या नहीं। मायावती भी लगातार रैलियां कर अखिलेश सरकार पर प्रहार कर रही हैं। कुछ दिन पहले ही उन्होंने मुसलमानों और अगड़ी जातियों से विरोधियों के जाल में न फंसने की अपील की है। एबीपी न्यूज-लोकमत-सीएसडीएस के सर्वे के मुताबिक उत्तर प्रदेश ओपिनियन पोल में कांग्रेस से ज्यादा भाजपा को मुसलमानों का समर्थन है यानी मायावती को अपने वोट बैंक पर ही निर्भर रहना होगा, जिस पर भाजपा की भी पैनी नजर है।
गोवा और पंजाब में रिकार्ड वोटिंग के बाद सभी पार्टियां गुणा-भाग में जुट गई हैं। गोवा विधानसभा चुनाव में रिकॉर्ड 83 प्रतिशत मतदान दर्ज किया गया। यहां साल 2012 के विधानसभा चुनावों में 81.73 प्रतिशत मतदान दर्ज किया गया था। पंजाब में 117 सीटों के लिए वोट डाले गए थे। गोवा में 40 सीटों के लिए वोट डाले गए थे। उधर, पंजाब में इस साल पिछले विधानसभा चुनाव के मुकाबले मतदान का प्रतिशत कम रहा। इस बार यहां 75 प्रतिशत मतदान दर्ज किया गया। साल 2012 के विधानसभा चुनावों में पंजाब में 78.20 प्रतिशत मतदान दर्ज किया गया था।
चुनाव आयोग के आंकड़ों से पता चलता है कि जब भी विधानसभा चुनावों में मतदान प्रतिशत पिछले चुनाव कि तुलना में ज्यादा होता है तो ऐसे में लगभग अस्सी प्रतिशत मामलों में सरकार बदल जाती है। इन सब के बीच सभी राजनीतिक पार्टियां अपनी-अपनी जीत का दावा भी ठोकने लगी हैं। जहां आप के नेता पंजाब और गोवा दोनों राज्यों में जीत का दम्भ भर रहे हैं वहीं पंजाब में अकाली दल और कांग्रेस अपनी-अपनी जीत को लेकर आश्वस्त हैं और भाजपा गोवा में फिर से सरकार बनाने को लेकर आश्वस्त दिख रही है। पंजाब में हालांकि पिछले चुनाव की तुलना में करीब तीन प्रतिशत कम मतदान हुए लेकिन उसके बाद भी यहां सत्ता परिवर्तन के संकेत मिल रहे हैं। अकाली-भाजपा गठबंधन, कांग्रेस और आप, तीनों प्रमुख प्रतिद्वंदियों को नतीजों का इंतजार है। हार-जीत का फैसला 11 मार्च को हो जाएगा। इसी पर उनका भविष्य निर्भर है। पर इन पार्टियों के जेहन में महज जीतने की बेचैनी नहीं है। अपने भविष्य को लेकर कुछ और भी सवाल हैं, जिन पर उन्हें विचार करना है। पुरानी पार्टी कांग्रेस से शुरुआत करें, तो सबसे ज्यादा मुश्किलें कांग्रेस के सामने हैं। पंजाब में ही नहीं, बल्कि केंद्र में भी पार्टी के नेताओं का मानना है कि यदि पार्टी पंजाब में जीत जाती है, तो इससे उसे राष्ट्रीय फलक पर उभरने का मौका मिलेगा। पार्टी को इसकी बेहद जरूरत है।
पंजाब में जीत से पार्टी का मनोबल बढ़ेगा, जिसकी उसे काफी जरूरत है। यदि कांग्रेस की योजना सफल होती है, यह उसके नए सिद्धांतों का अनुमोदन होगा, जिसे कैंपेन के दौरान पार्टी के नेता बड़े साहस के साथ कहते रहे हैं। उनमें प्रमुख एक टिकट, एक फैमिलीÓ शासन भी है। कई क्षेत्रों में इसे लेकर संशय था, इसके बावजूद पार्टी अंतिम टिकट दिए जाने तक अपने इस आदर्श के साथ सफलता से जुड़ी रही।
कई वरिष्ठ नेताओं के बच्चों और रिश्तेदारों को टिकट के लिए इनकार कर दिया गया, तो वे दबी जुबान में कुनमुना रहे थे। इसका फैसला पहली बार पार्टी के नेतृत्व ने लिया था। यह कांग्रेस की पारंपरिक संस्कृति से हटकर उठाया गया कदम था। पार्टी ने दूसरी महत्वपूर्ण बात यह रखी थी कि चुनाव से पहले वह मुख्यमंत्री पद के लिए उम्मीदवार की घोषणा नहीं करेगी। पर उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने कैंपेन के अंत में पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष कैप्टन अमरिंदर सिंह के नाम की घोषणा कर दी। पार्टी के कार्यकताओं ने कहा कि इससे गलत मिसाल कायम हुई है। उन्होंने कहा कि सभी जानते थे कि कांग्रेस के जीतने की स्थिति में अमरिंदर मुख्यमंत्री होंगे क्योंकि सारी कैंपेनिंग उनके इर्द-गिर्द हुई थी। पार्टी हाई कमान को इसकी घोषणा में देरी नहीं करनी चाहिए थी।
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव व्यक्तित्वों का युद्ध बन गया है। भाजपा ने मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार न घोषित करके सारा दांव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि और विश्वसनीयता पर लगा दिया है। उसे लगता है कि टिकट बंटवारे से उपजा असंतोष मोदी की लोकप्रियता की हवा में उड़ जाएगा। भाजपा को लोकसभा चुनाव जैसे वोट विधानसभा में मिलें या न मिलें, लेकिन यह तय है कि ढाई साल में प्रधानमंत्री मोदी की विश्वसनीयता पर आंच नहीं आई है। भाजपा को वोट न देने वाले भी उनका नाम आते ही प्रशंसा जरूर करते हैं। सोशल इंजीनियरिंग के अलावा भाजपा की यह सबसे बड़ी ताकत है। यह चुनाव राहुल गांधी और मायावती का भी राजनीतिक भविष्य भी तय करेगा। मायावती का चुनावी सफर 2009 के बाद से लगातार ढलान पर है। इस चुनाव में यह गिरावट थमी नहीं तो राज्य की राजनीति में नए जातीय समीकरण देखने को मिलेंगे। राहुल गांधी और कांग्रेस को पता था कि इस चुनाव में हार का क्या अंजाम होगा और इसीलिए वह अखिलेश की साइकिल पर सवार हो गए हैं। यदि वह साइकिल पर बैठकर भी न जीते तो पार्टी पर सवारी गांठना कठिन हो जाएगा। सपा हारे या जीते, अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश के कद्दावर नेताओं में अपने पिता से आगे निकल गए हैं। देखना यह है कि पंजा उनकी साइकिल को आगे बढ़ाता है या पीछे खींचता है?
त्रिशंकु विधानसभा
उत्तर प्रदेश में लंबे समय बाद और पंजाब में पहली बार त्रिकोणीय संघर्ष है। दोनों राज्यों के चुनाव नतीजे देश की राजनीति को प्रभावित करने वाले होंगे। इन नतीजों से 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव की राजनीतिक खेमेबंदी का खाका भी उभरेगा। इन चुनाव नतीजों से यह भी तय होगा कि संसद चलेगी या नहीं, और चलेगी तो कैसे? केंद्र सरकार के कामकाज पर भी इसका असर पड़ सकता है। संसदीय जनतंत्र में जनादेश स्पष्ट न हो तो विधानसभा के गठन से पहले ही अंदेशे उभर आते हैं। पहला सवाल तो यही उठता है किसके साथ कौन सरकार बनाएगा? फिर दूसरा सवाल उपस्थित होता है कि सरकार चलेगी कितने दिन? त्रिशंकु सदन की स्थिति में चुनाव के समय एक-दूसरे को बुरा-भला कहने वाली पार्टियां-नेता बताने लगते हैं कि राज्य के हित में या फिर जनतंत्र अथवा पंथनिरपेक्षता की रक्षा के लिए साथ आना पड़ रहा है। देश की राजनीति में त्रिशंकु विधानसभा की बात लोग भूल से चले हैं। इसके बावजूद पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजों में एक आशंका त्रिशंकु विधानसभा को लेकर भी है।
आप का क्या होगा?
पंजाब में आप जीतती है, तो यह इसका राष्ट्रीय स्तर पर आगमन होगा। इससे केजरीवाल को एक राष्ट्रीय नेता के तौर पर उभारने में मदद मिलेगी। पंजाब के अलावा आप को गुजरात और हिमाचल प्रदेश में भी जीतने की उम्मीदें हैं, जहां इस साल के अंत में चुनाव होने हैं। लोगों का मानना है कि पंजाब में जीत से काफी अच्छा असर होगा। हिमाचल प्रदेश में वह काफी अच्छा प्रदर्शन कर सकती है, जहां मतदाताओं का भाजपा और कांग्रेस से मोहभंग हो चुका है और वे तीसरे विकल्प की तलाश में हैं। पंजाब में जीत का मतलब होगा आप के लिए पूरे राज्य पर शासन करने का पहला टर्म। यहां उनका दिल्ली से उलट सभी चीजों पर पूरा नियंत्रण होगा। दिल्ली में पुलिस जैसे विभाग केंद्रीय गृह मंत्रालय के पास हैं। यह आप को अन्य राज्यों के लिए विकास का नया मॉडल देने का मौका देगा, जहां वे अपनी जड़ों का विस्तार करना चाहते हैं और 2019 में लोकसभा चुनावों की तैयारी करना चाहते हैं।
अधर में कांग्रेस?
ये सब सिद्धांत जारी रह सकते हैं यदि कांग्रेस चुनाव जीते। यदि ऐसा नहीं हुआ, तो वह भारत के राजनीतिक परिदृश्य में और हाशिए पर आ जाएगी। यह आरएसएस के कांग्रेस मुक्तÓ भारत के मकसद की दिशा में बहुत बड़ा कदम होगा। यह इसलिए क्योंकि कांग्रेस उत्तराखंड, मणिपुर, और हो सकता है हिमाचल प्रदेश में जीत भी जाती है, तो भी ये राज्य बहुत छोटे हैं और इनका राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक महत्व बहुत कम होगा।
मंथन मूड में अकाली?
अकाली के लिए हारने की आशंका ज्यादा है, हालांकि अभी नतीजे नहीं आए हैं। उनके लिए चुनाव के बाद का समय वैचारिक मंथन का होगा कि पार्टी प्रकाश सिंह बादल के अधीन एक परिवार के प्रभुत्व के अधीन रहेगी या किसी और की तरफ रुख करेगी। पार्टी के परंपरागत समर्थकों ने कैंपेन के दौरान खुलासा किया कि नाराजगी सद से नहीं, बादल और उनके मंत्रियों की मंडली से है। सद के समर्थकों का आरोप था कि अकाली दल अपने मूल सिद्धांतों को भूल गया है, चाहे वे धार्मिक थे या राजनीतिक। राजनीतिक विश्लेषकों के एक वर्ग का मानना है कि सद की राजनीति पर सुखबीर बादल का वर्चस्व रहेगा। वे कहते हैं कि पिछले पांच सालों में सुखबीर ने अपने समर्थकों को वो जगह दी, जो पार्टी को बनाए रखने के लिए जरूरी है। भाजपा के लिए भी चुनाव के बाद का यह समय कुछ अहम मुद्दों पर विचार करने का है। उनमें सबसे अहम यह है कि वे अकालियों के साथ गठबंधन जारी रखें या नहीं। पार्टी के कई लोग महसूस करते हैं कि यदि सद-भाजपा मिलकर हार जाते हैं या भाजपा को कम सीटें मिलती हैं, तो यह अकाली-विरोधी लहर के कारण होगा। भाजपा का बड़ा वर्ग मानता है कि पार्टी को गठबंधन से बाहर निकल जाना चाहिए। पंजाब में आगे बढऩा है, तो उसे अकेले आना चाहिए, खासकर ग्रामीण पंजाब में। पार्टी काडरों की बड़ी संख्या कहती रही है कि निवर्तमान सरकार के शासन में अकाली उनके नेताओं को काम नहीं करने दे रही थी। उन्होंने यह भी कहा कि भाजपा नेताओं के साथ उनका व्यवहार ठीक नहीं था और वे कुछ नहीं कर सके क्योंकि भाजपा हाई कमान गठबंधन को बिगाडऩा नहीं चाहता था।
पांव पसारती बसपा बन सकती है किंगमेकर
एक कहावत है दो बिल्लियों की लड़ाई में अक्सर बंदर रोटी ले उड़ता है। उत्तराखंड के चुनाव में यही स्थिति नजर आ रही है। कांग्रेस और भाजपा के बागी उम्मीदवार उनका सारा गणित बिगाड़ रहे हैं ऐसे में बसपा किंगमेकर की भूमिका में आ सकती है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि इस बार किसी दल की राज्य में कोई लहर नहीं है और सभी सीटों पर मुकाबला कड़ा है, इसकी मुख्य वजह ये बागी उम्मीदवार ही हैं। राज्य में दोनों ही दलों ने दलबदलुओं को टिकट दिया है। भाजपा ने जहां 13 पूर्व कांग्रेसियों को टिकट दी है वहीं कांग्रेस ने सात पूर्व भाजपा नेताओं और दो बसपा बागियों को टिकट दी है। बाहरी नेताओं को टिकट देना राज्य के जमीनी नेताओं को रास नहीं आया है और वे निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव में कूद गए हैं। राज्य की 70 विधानसभा सीटों में से लगभग 50 सीटों पर बागी उम्मीदवार चुनाव लड़ रहे हैं। प्रदेश की इन पार्टियों में बगावत के हालात इस कदर बिगड़ चुके हैं कि भाजपा अपने 50 स्थानीय नेताओं को निलंबित कर चुकी है और कांग्रेस अपने 30 पदाधिकारियों को हटा चुकी है। इनमें से अधिकांश नेता निर्दलीय के रूप में चुनाव मैदान में हैं। ऐसी स्थिति में त्रिशंकु विधानसभा अथवा मायावती की बसपा के किंग मेकर की भूमिका में उभरने से इंकार नहीं किया जा सकता। यहां तक कि राज्य के बसपा नेतृत्व को भी उम्मीद है कि भाजपा के पास सत्ता की चाबी आ सकती है। बसपा राज्य में 2002 से चुनाव लड़ रही है और उसने 68 विधानसभा सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े कर 7 सीटें तथा 11.2 प्रतिशत वोट हासिल किए थे। 2007 में बसपा का वोट शेयर बढ़कर 11.76 हो गया था और उसने आठ सीटों पर कब्जा जमाया था। 2012 के चुनाव में जरूर बसपा को सिर्फ 3 सीटें मिलीं पर उसका वोट शेयर बढ़कर 12.28 प्रतिशत हो गया था। राज्य में कम से कम एक दर्जन ऐसी मुस्लिम बहुलता वाली सीटें हैं जहां मुकाबला सीधे बसपा और कांग्रेस के बीच है। इसलिए अगर बसपा को ठीक-ठाक सीटें मिल जाती हैं तो बसपा ही राज्य में तय करेगी कि सरकार किसकी होगी। अभी पिछले दिनों असफल राष्ट्रपति शासन लागू होने के दौरान रावत सरकार को बचाने में बसपा के समर्थन ने ही निर्णायक भूमिका निभाई थी। नाम न बताने की शर्त पर राज्य में बसपा के वरिष्ठ नेता ने बताया कि राज्य में शासन कोई भी करे, पर उसकी चाबी बसपा के पास ही होगी। इस बारे में सभी निर्णय सिर्फ बहनजी ही लेंगी, लेकिन हमें ऐसी कोई संभावना नहीं दिख रही है कि भाजपा और बसपा में कोई गठबंधन हो सकता है।
-रेणु आगाल