16-Feb-2017 06:51 AM
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फिल्म प्रेम नगर का गीत...ये लाल रंग कब मुझे छोड़ेगा मेरा गम कब तलक, मेरा दिल तोड़ेगा... आप लोगों ने सुना ही होगा। वाकई लाल रंग हमेशा किसी न किसी परेशानी का सबब माना जाता है। इन दिनों ऐसे ही एक लाल रंग की चर्चा सुर्खियों में है। दरअसल, गत दिनों पटना के पुस्तक मेले में मधुबनी पेंटर बउआ देवी कैनवास पर कुछ लकीरें खींची थी जो मिल कर कमल का फूल बना रही थीं, लेकिन उनमें कोई रंग नहीं भरा था। बउआ देवी ने नीतीश कुमार से ऑटोग्राफ का आग्रह किया लेकिन नीतीश ने उसमें रंग भर दिया और नीचे ऑटोग्राफ। फिर क्या था, तस्वीर वायरल हो गई। तस्वीर के वायरल होने के साथ-साथ एक बार फिर नीतीश और भाजपा की नजदीकियों की चर्चा होने लगी। फिर क्या था भाजपा और जेडीयू नेताओं के बयान भी आने लगे। ध्यान देने वाली बात तो ये है कि नीतीश ने कमल के फूल में वो रंग नहीं भरा जो भाजपा के सिंबल में है, बल्कि उन्होंने लाल रंग भरा है। क्या ये कोई रेड अलर्ट है? अगर है वास्तव में ऐसा है तो आखिर किसके लिए? ये लाल रंग क्या गुल खिलाएगा?
कमल का स्केच बनाते वक्त बउआ देवी के मन में कोई बात रही हो या नहीं, रंग भरते वक्त नीतीश ने अपने मन की बात जरूर उकेर दी। नीतीश ने कैनवास पर ऑटोग्राफ के साथ-साथ कूची से सियासत के रंग चढ़ा दिये। वैसे नीतीश के पास कई ऑप्शन थे। वो चाहते तो बिना कोई रंग भरे नीचे ऑटोग्राफ दे सकते थे, जिसका कोई खास मतलब निकाला जा सकता था। वो चाहते तो फूल के अंदर भगवा रंग भर सकते थे जो बीजेपी के सिंबल में है। नीतीश ने तो अलग ही रंग भर दिया। न तो खाली छोड़ा, न ही भगवा रंग भरा - नीतीश ने तो उसे पूरा लाल ही कर दिया। कुछ ऐसे जैसे किसी की गाड़ी के आगे अचानक लाल बत्ती जल गई हो।
फर्ज कीजिए नीतीश कमल के फूल को खाली छोड़ सिर्फ ऑटोग्राफ दे दिया होता तो उसका एक खास मतलब होता। तब कयास लगाए जाते कि नीतीश ने फिर से भाजपा के साथ की बात पर मुहर लगा दी, लेकिन खाली स्थान भी छोड़ दिया। खाली स्थान का मतलब अब भी तमाम तरह की गुंजाइश बची और बनी हुई है। फर्ज कीजिए नीतीश कमल के फूल में भगवा रंग भर देते तो उसका अलग मतलब हो सकता था। माना जाता है कि नीतीश अब भगवा रंग में रंगने लगे हैं या फिर नीतीश को भगवा रंग भाने लगा है, इत्यादि। पटना में सत्ता के गलियारों के साथ-साथ दूर दराज के इलाकों में भी एक चर्चा ये भी है कि नीतीश के साथ-साथ उनके समर्थकों का मन भी मौजूदा महागठबंधन से उबने लगा है। महागठबंधन एक सियासी मजबूरी के चलते बना था और ये तब तक कायम रहेगा जब तक दोनों पक्षों का हित पूरा होता रहे। किसी एक का भी पूरा हुआ तो वो टूट कर अलग होने में तनिक भी देर नहीं लगाएगा। इस हिसाब से देखें तो नीतीश का काम तो पूरा हो चुका है। वो मोदी को शिकस्त देकर चुनाव जीत चुके हैं। लालू के हिसाब से देखें तो उनके बेटे उप मुख्यमंत्री और मंत्री जरूर बन चुके हैं, लेकिन ये सफर तब तक अधूरा है जब तक लालू तेजस्वी को सीएम नहीं बना लेते। कुछ मामलों में नीतीश के मुकाबले लालू का पक्ष उतना मजबूत नहीं है। नीतीश चाहें तो लालू से रिश्ता तोड़ कर भाजपा का सपोर्ट लेकर सरकार चला सकते हैं, लेकिन लालू के पास ऐसा विकल्प नहीं है। लालू को भाजपा का समर्थन मिलने से रहा और कांग्रेस से काम चलने वाला नहीं। भाजपा लालू को तभी समर्थन देगी जब उसे नीतीश की सरकार गिरानी हो, लेकिन इतनी बड़ी राजनीतिक भूल तो उसे नहीं करनी चाहिये।
नीतीश कुमार ने मोदी सरकार का सपोर्ट तो जीएसटी पर भी किया था और सर्जिकल स्ट्राइक पर भी, लेकिन ज्यादा शोर मचा नोटबंदी पर उनके समर्थन को लेकर। तब लालू से लेकर महागठबंधन में सहयोगी कांग्रेस तक के कान खड़े हो गये। रही सही कसर मकर संक्रांति पर सुशील मोदी ने दही-चूड़ा खाने के बाद दिल का रिश्ता बता कर पूरी कर दी।
-कुमार विनोद